रविवार, 19 जनवरी 2020

कृतज्ञता ज्ञापन

कृतज्ञ हैं !

परम आदरणीय गुरुदेव! 

आप का मंगलमय सान्निध्य आज भी महसूस होता रहता है ।
धर्म का सान्निध्य है तो आप का सान्निध्य है ही । धर्म का सान्निध्य बना रहे ताकि आपका मंगलमय सान्निध्य बना रहे । यहीं शिवसंकल्प है ।

कितना मंगलमय है आप का सान्निध्य ! धर्म का सान्निध्य ! ज़ब-जब धर्म-सान्निध्य होता है तब-तब आप की असीम करुणा का स्मरण हो आता है और मन कृतज्ञता व रोमांच-पुलक से भर उठता है ।

मन कृतज्ञता से भर उठता है उन भगवान सम्यक-सम्बुद्ध शाक्यमुनि के प्रति, जिन्होंने असंख्य जन्मो तक साधनामय जीवन जीने हुए दसों पुन्य-पारमिताओ को परिपूर्ण किया जिससे कि न केवल अपनी स्वस्ति-मुक्ति साध सके, बल्कि अनेकों की स्वस्ति-मुक्ति का कारण बने। ऐसी कल्याणकारी विद्या खोज निकाली जिसे कि जीवन भर करुणचित्त से मुक्तहस्त बांटते रहे, जिससे अगणित लोगों का मंगल सधा।

और कृतज्ञता से मन भर उठता है उन जीवन-मुक्त अर्हन्तो के प्रति जिन्होंने कि यह कल्याणकारी विद्या भगवान से प्राप्त कर
“चरथ भिक्खवे, चारिकं बहुजन हिताय, बहुजन सुखाया लोकानु-कम्पाय " के मंगल आदेश को शिरोधार्य कर गांव-गांव, नगर-नगर, जनपद-जनपद इस मुक्तिदायिनी विद्या को बांटने में अपना जीवन लगा दिया।

और कृतज्ञता से मन भर उठता है उन सभी सत्पुरुषों के प्रति जिन्होंने कि इस पावन धर्म-गंगा को अनेक पीढियों तक प्रवहमान रखा।

कृतज्ञता से मन भर उठता है उन अर्हन्त सोंण और उत्तर के प्रति जो कि विदेश-यात्रा के सभी संकटों को झेलते हुए भगीरथ की
तरह इस धर्मगंगा को स्वर्णभूमि ले गये और अगणित प्यासों की प्यास बुझायी ।

और कृतज्ञता से मन भर उठता है उन परंपरागत धर्मआचार्यों के प्रति जिन्होंने कि ब्रह्मदेश में गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा इस विद्या को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने शुद्ध रूप में कायम रखा । इसमें शब्दों का, रंग-रूप का, आकृति, कल्पनाओं आदि का सम्मिश्रण नहीं होने दिया । जो पथ स्थूल भासमान सत्य का भेदन करता हुआ सूक्ष्मतम परम सत्य की और ले जाने वाला राजपथ है,
उसे एक स्थूल भासमान सत्य से दूसरे स्थूल भासमान सत्य की ओर ले जाने वाली अंधी गली नहीं बनाया । शुद्ध रूप में रखा तो ही हमें शुद्ध रूप में यह विद्या प्राप्त हुई ।

और कृतज्ञता से मन भर उठता है इस पुनीत आचार्य-परंपरा के पिछली सदी के जाज्वल्यमान नक्षत्र लैडी सयाडो के प्रति और सद्रुहस्थ आचार्य सयातैजी के प्रति जिन्होंने कि इस उत्तरदायित्व को कितने आदर्शरूप से निभाया ।

और कृतज्ञता से मन भर उठता है, गुरुदेव ! आपके प्रति, जो इतने करुणाचित्त से इस अनमोल धर्मरत्न का दान दिया । यदि यह
धर्मरत्न न पाता तो क्या दशा होती? धन दौलत के संचय-संग्रह और सामाजिक पद-प्रतिष्ठा की होड़-दौड में ही जीवन खो देता ।
धर्म की ओर झुकाव होता भी तो क्रिसी संप्रदाय की बेडियों को ही आभूषण माने रहता । परायी अनुभूतियों के गर्व-गुमान में ही जीवन बिता देता । सत्य-धर्म की प्रत्यक्षानुभूति वाला यह सम्यक-दर्शन कहां उपलब्ध होता ? कल्पनाओं को ही सम्यक-दर्शन मानकर संतुष्ट हो लेता । यथाभृत दर्शन द्वारा सम्यकज्ञान कहाँ उपलब्ध होता?  बौद्धिक 'ऊहापोह को ही सम्यक ज्ञान मानकर जीवन खो देता । कर्मकांड, पूजापाठ, भजनक्रीर्तन अथवा स्वानुभूति-विहीन मत-मतान्तरीय दार्शनिक मान्यताओं की जकडन में अनमोल मनुष्य जीवन गवाँ देता । अपने यह अनुत्तर-अनुपम धर्मदान देकर मानव-जीवन सफल कर दिया गुरुदेव !
सचमुच अनुत्तर-अनुपम ही है यह धर्म-साधना !

कितनी ऋजु, कितनी स्पष्ट, कितनी वैज्ञानिक, कितनी मांगलिक ! बंधन से
मुक्ति की ओर ले जाने वाली l माया मरीचका से निभ्रन्ति की ओर ले जाने वाली ! भासमान प्रकट सत्य से परमसत्य की ओर ले जाने वाली ! ऐसी अनमोल निधि की निर्मलता अपने शुद्ध-रूप में कायम
रहे हैं आज के इस पुण्य-दिवस पर यही शिवसंकल्प है । कहीं किसी प्रकार के सम्मिश्रण की भूल का हिमालय जैसा बडा अपराध न हो जाय ! यह अनमोल निधि अपने निष्कलुष रूप में कायम रहे और
इसके अभ्यास द्वारा जन-ज़न की मुक्ति के लिए अमृत का द्वार खुले, इसी में आप का सही पूजन-वन्दन , आदर-सम्मान समाया
हृआ है ।

विनीत धर्मपुत्र .
सत्यनारायण गोयन्का

(19 जनवरी 1971 सयाजी ऊ बा खिन जी की पुन्य-तिथि एव गुरुदेव श्री गोयनकाजी की
जन्म-तिथि के 30 जनवरी 1924 पर- विपश्यना वर्ष ४२ अंक ११ से साभार )

विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org


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