शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

*लक्ष्य*

जीवन जीने की कला
*लक्ष्य*
"जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है।” इस सच्चाई का अनुभव बुद्ध की शिक्षा का सारतत्त्व है। चित्त (नाम) और शरीर (रूप) उन प्रक्रियाओं का पुंज (समूह) मात्र हैं जो निरंतर उत्पन्न होती हैं और नष्ट हो जाती हैं। हमारा दुःख तब उत्पन्न होता है जब हम उन प्रक्रियाओं के प्रति, जो वस्तुतः क्षणभंगुर तथा निस्सार हैं, आसक्ति करते हैं । यदि हम इन प्रक्रियाओं की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकें और इनके प्रति तटस्थ बने रहें तब इनके प्रति हमारी आसक्ति समाप्त हो जाती है। साधक यही काम करते हैं। वे अपने अंदर की क्षण-क्षण बदलती संवेदनाओं को देखकर उनकी अनित्य प्रकृति को समझते हैं और जब कोई संवेदना प्रकट होती है तब वे प्रतिक्रिया नहीं करते अपितु समता बनाए रखते हैं। ऐसा करके वे अपने चित्त के पुराने संस्कारों को ऊपरी सतह पर आने पर नष्ट हो जाने देते हैं। जब सारे संस्कार और आसक्ति समाप्त हो जाती है, तब दुःख समाप्त हो जाता है और हम मुक्ति का अनुभव करते हैं। यह एक लंबे समय का काम है जिसमें लगातार अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधना मार्ग के
प्रत्येक चरण पर लाभ प्रकट होते हैं लेकिन उनकी प्राप्ति के लिए लगातार बार-बार प्रयास करने की आवश्यकता होती है। केवल धैर्य और दृढतापूर्वक निरंतर काम करके साधक अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है।
*परम सत्य का प्रतिवेधन*
इस मार्ग पर प्रगति के तीन चरण हैं। पहला है केवल विधि (तकनीक) के बारे में जानना कि यह क्यों और कैसे की जाती है। दूसरा है इसका अभ्यास। तीसरा है प्रतिवेधन, अपने बारे में सच्चाई का गहराई तक प्रतिवेधन करने के लिए विधि का प्रयोग करते हैं जिससे कि परम लक्ष्य निर्वाण तक पहुँचा जा सके।
बुद्ध ने प्राणियों के- अपने तथा अन्यों के आकार, रूप, रंग, स्वाद, गंध, दुःख, सुख, विचार और चित्तवृत्तियों के प्रकट संसार के अस्तित्व को इनकार नहीं किया । उन्होंने केवल इतना कहा कि ये परम सत्य नहीं हैं, बल्कि ये क्षणभंगुर हैं। सामान्य दृष्टि से हम केवल बड़े पैमाने वाळे ढांचे को समझते हैं
जिसमें अधिक सूक्ष्म प्रपंच का अपने आप आविर्भाव होता रहता है। केवल ढांचे को देखने से और उनके अंतर्निहित घटकों को न देखने से, हम प्रथमतः उनकी भिन्नताओं से परिचित होते हैं। अतः उनमें भेद करते हैं, उन पर लेबल लगाते हैं, उनके प्रति अभिरुचि और पूर्वाग्रह रखते हैं, उनको पसंद-नापसंद करना प्रारंभ करते हैं जो प्रक्रिया अंततः राग-देष में विकसित होती है।
राग-देष की आदत से उबरने के लिए न केवल एक संपूर्ण दृष्टि का होना आवश्यक है, बल्कि वस्तुस्थित को उनकी गहराई में देखना, अंतर्निहित तथ्यों को समझना भी आवश्यक है, जो प्रकट सत्य का निर्माण करते हैं। ठीक यही बात विपश्यना का अभ्यास हमे करने के लिए कहता है।
स्वभावतः आत्मनिरीक्षण स्वयं के सर्वाधिक स्पष्ट रूप- शरीर के विभिन्न भाग, विभिन्न अंग तथा अवयव से आरंभ होता है। गहरे (पैने) निरीक्षण से प्रकट होता है कि शरीर के कुछ भाग ठोस, कुछ द्रव, कुछ गतिशील अथवा स्थिर हैं। संभवतः हम शरीर के तापमान को अपने चारों ओर के वातावरण के तापमान से भिन्न समझते हैं। ये सभी निरीक्षण अधिक आत्मजागरूकता के विकास में सहायता कर सकते हैं तदपि वे सभी आत्मनिरीक्षण, भासमान सत्य को संघटित आकार अथवा रूप में देखने के परिणाम हैं। परिणामस्वरूप, भेद जैसे- अभिरुचि, पूर्वाग्रह, राग तथा द्वेष बने रहते हैं।
साधक के रूप में अपने अंदर की संवेदनाओं को देखने का अभ्यास करके हम आगे बढ़ते हैं। ये संवेदनाएं वस्तुतः एक सूक्ष्मतर सच्चाई को प्रकट करती हैं जिनके बारे में पहळे हम कुछ नहीं जानते थे । प्रथमतः हम शरीर के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाओं से परिचित होते हैं। जो उत्पन्न होतीं हैं, कुछ देर के लिए रुकती हैं और अंततः नष्ट हो जाती हैं। यद्यपि हम सतही स्तर से आगे निकल गए हैं, फिर भी अभी हम प्रकट, भासमान सत्य के सामूहिक ढांचे को ही देख रहे हैं। इस कारण हम अभी भेदभाव तथा राग, देष से मुक्‍त नहीं हुए हैं।
यदि हम परिश्रमपूर्वक अभ्यास जारी रखें, तो देर-सवेर हम एक ऐसी अवस्था पर पहुँचते हैं जहां संवेदनाओं का स्वभाव बदलता है। अब हम सारे शरीर में एक तरह की सूक्ष्म संवेदनाओं को जानते हैं जो बहुत तेज गति से उत्पन्न और नष्ट होती हैं। हमने संघटित ढांचे से परे प्रतिवेधन किया है जिससे हम उस अंतर्निहित तथ्य को, नन्हें-नन्हें परमाणु कणों को, जिनसे सभी पदार्थ बने हैं, जिनसे उनकी रचना हुई है, को समझ सकें। हम इन कणों की क्षणभंगुर प्रकृति
को, इनके निरंतर उदय-व्यय होने का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अब हम अंदर जो कुछ देखते हैं, रक्‍त अथवा अस्थि, ठोस, द्रव, गैस चाहे सुंदर अथवा असुंदर, उन सबको एक कंपन ही कंपन समझते हैं जिनमें एक दूसरे से भेद नहीं किया जा सकता। अंततोगत्वा उनके भेदीकरण और लेबल लगाने की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। हमने अपने शरीर में ही पदार्थ के परमार्थ सत्य, उसकी निरंतर गतिशीलता, तथा उदय-व्यय का अनुभव कर लिया।
इसी प्रकार मानसिक प्रक्रियाओं के भासमान सत्य का सूक्ष्मतर स्तर पर प्रतिवेधन किया जा सकता है। रुचि-अरुचि की प्रतिक्रिया होती है। दूसरे क्षण मन रुचि तथा अरुचि की प्रतिक्रिया को दुहराता है और इसे बलवती बनाता है जब तक कि ये राग-द्वेष नहीं बन जाती हैं। हमें केवल घनीभूत प्रतिक्रिया की जानकारी होती है। इस सतही समझ से हम उनकी पहचान करने लगते हैं और उनको सुखद-द्‌;खद, अच्छा-बुरा, चाही-अनचाही रूप में देखने लगते हैं। परंतु जैसा कि भासमान भौतिक शारीरिक सच्चाई के मामले में होता है, वैसे ही चित्त की ठोस वृत्तियों में भी होता है जब हम अंदर की संवेदनाओं को देखने लगते हैं,
ये विघटित हो जाते हैं। जैसे रूप उप आणविक कणों की तरंगों के सिवा और कुछ नहीं, उसी तरह प्रबल मनोवेग भी क्षणिक रुचि-अरुचि, संवेदनाओं की
क्षणिक प्रतिक्रियाओं का केवल संघटित रूप है। एक बार जब प्रबल मनोवेग भी सृक्ष्मतर रूप में विघटित हो जाता है तो अभिभूत करने की इनकी शक्ति नहीं रह जाती है।
शरीर के विभिन्न भागों में विभिन्न स्थूळ संवेदनाओं को देखने से हमें लगातार उदय-व्यय होने वाली एक तरह की संवेदनाओं की जानकारी होती है। पूरे शरीर की संवेदनाएं बड़ी तीव्र गति से उत्पन्न और नष्ट होती हैं, उनका अनुभव कंपनों के प्रवाह की तरह, पूरे शरीर में बहने वाली धारा की तरह किया जा सकता है। हम जब कभी अपना ध्यान शारीरिक संरचना के अंदर ले जाते हैं, हमें उदय-व्यय के अतिरिक्त किसी और चीज का ज्ञान नहीं होता है। जब मन में कोई विचार
प्रकट होता है तब हमें उसके सहचारी शारीरिक संवेदनाओं के उदय-व्यय की
जानकारी होती है। शरीर और मन का भासमान घनत्व पिघल जाता है और हमें
रूप, नाम और संस्कारों के परमार्थ सत्य का अनुभव होता है जो कंपन, दोलन और तीव्र वेग के साथ होने वाळे उदय-व्यय के अतिरिक्त कुछ नहीं।
इस सत्य का अनुभव करने वाले (बुद्ध) ने कहा है --
*सब्बो आदीपितो लोको, सब्बो लोको पथधूपितो।*
*सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो॥*
सारे लोक संतप्त ही संतप्त हैं, सारे ठोक संतापित ही संतापित हैं।
सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं, सारे लोक प्रकंपित ही प्रकंपित हैं |
भंग के इस सोपान पर पहुँचने के लिए साधक को जागरूकता तथा समता के विकास के अतिरिक्त और कुछ करने की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अधिक सूक्ष्म तथ्यों को अपने माइक्रोस्कोप के ताल लैस को बढ़ाकर देखता है, उसी प्रकार जागरूकता और समता का विकास करके साधक अपने अंदर की सूक्ष्मतर सच्चाइयों को देखने के लिए अपनी क्षमता को बढ़ाता है।
यह अनुभव जब होता है, वस्तुतः बहुत सुखद होता है। सभी दर्द और पीड़ाएं मिट जाती हैं, संवेदना-विहीन सभी क्षेत्र लुप्त (गायब) हो जाते हैं। व्यक्ति शांति, सुख और परमानंद का अनुभव करता है। बुद्ध इसका वर्णन इस प्रकार करते हैं -
*यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।*
*लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानतं॥*
साधक (सम्यक सावधानता के साथ) जब-जब (शरीर और चित्त) स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यना द्वारा अनुभूति करता है, तब-तब उसे प्रीति-प्रमोद (रूपी अध्यात्मक-सुख) की उपलब्धि होती है। ज्ञानियों के लिए यह अमृत है। साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने से परमसुख का उदय होना ही है, जब मन और शरीर का भासमान घनत्व (ठोसपना) पिघल जाता है। इस सुखद स्थिति के आह्लाद से हम यह सोच सकते हैं कि यह अंतिम लक्ष्य है। लेकिन यह केवल मार्ग के बीच का पड़ाव (स्टेशन) है। इस बिंदु से, हम मन और शरीर के परे परमार्थ सत्य के अनुभव के लिए, दुःख से पूर्ण मुक्ति की प्राप्ति के लिए और आगे बढ़ते हैं|
बुद्ध के इन शब्दों का अर्थ हमारी अपनी विपश्यना साधना से बहुत स्पष्ट हो जाता है। प्रकट सत्य से सूक्ष्म सत्य का प्रतिवेधन करते हुए हम सारे शरीर में कंपनों के धाराप्रवाह का रस लेना शुरू कर देते हैं। यों करते हुए जब अचानक धाराप्रवाह गायब हो जाता है तब फिर शरीर के कुछ भागों में घनीभूत, दुःखद संवेदना का अनुभव करते हैं और दूसरे भागों में संभवतः कोई संवेदना नहीं भी
होती है तब हम फिर मन में प्रबल वृत्तियों का अनुभव करते हैं। इस प्रकार यदि हम इस नयी स्थिति के प्रति देष अनुभव करने लगते हैं और धारा-प्रवाह के वापस लौटने की लालसा करते हैं, तो हमने विपश्यना को नहीं समझा। हमने इसे एक खेल बना दिया जिसमें हमारा लक्ष्य सुखद संवेदनाओं को प्राप्त करना और दुःखद को दूर करना है। यह तो वही खेल हुआ जिसे हम जिंदगी भर खेलते रहे, खींच-तान, आकर्षण-विकर्षण का कभी न खत्म होने वाला चक्कर, जो दुःख के अलावा और कुछ नहीं देता है।
फिर भी, जैसे-जैसे प्रज्ञा बढ़ती है, हम समझते हैं कि भंग के अनुभव के बाद भी स्थूल संवेदनाओं का फिर लौटना हमारे पीछे जाने का नहीं अपितु आगे बढ़ने का संकेतक है। हम विपश्यना की साधना किसी विशेष प्रकार की संवेदना के अनुभव के उद्देश्य से नहीं करते हैं अपितु चित्त को सभी संस्कारों से मुक्त बनाने के लिए करते हैं। यदि हम किसी संवेदना के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, तो हम अपना दुःख बढ़ाते हैं। यदि हम समता में रहते हैं तो कुछ संस्कार गुजर जाते
हैं, संवेदना हमारे लिए दुःखों से मुक्त करने का साधन बन जाती है। बिना किसी प्रतिक्रिया के दुखद संवेदनाओं को देखकर हम देष का उन्मूलन करते हैं। बिना किसी प्रतिक्रिया के सुखद संवेदनाओं को देखकर हम राग का उन्मूलन करते हैं। बिना किसी प्रतिक्रिया के अदुःख-असुख संवेदनाओं को देखकर हम मोह, अज्ञान का उन्मूलन करते हैं। अतः कोई भी संवेदना, कोई भी अनुभव तत्त्वतः अच्छा या बुरा नहीं है। यदि हम समता में हैं तो हर संवेदना अच्छी है, यदि हम अपनी समता खोते हैं, तो यह बुरी है।
इस समझ के साथ हम प्रत्येक संवेदना का उपयोग संस्कार-उन्मूलन के लिए एक उपकरण के रूप में करते हैं। हर अवस्था संस्कार-उपेक्षा यानी सभी संस्कारों के प्रति समता भाव की है जो विभिन्न चरणों से गुजरती हुयी क्रमशः मुक्ति के चरम सत्य निर्वाण तक पहुँचाती है।
*मुक्ति की अनुभूति*
मुक्ति संभव है। व्यक्ति सभी संस्कारों, सभी दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ने इसकी व्याख्या की है -
*“अत्थि भिक्खवे, तदायतनं, यत्थ नेव पथवी, न आपो, न तेजो, न वायो, न*
*आकासानञ्चायतनं, न विञ्ञाणञ्चायतनं, न आकिञ्चञ्ञायतनं, न*
*नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं, नायं लोको, न परलोको, न उभो चन्दिमसूरिया। तत्रापाहं,*
*भिक्खवे, नेव आगतिं वदामि, न गतिं न ठितिं, न चुतिं, न उपपत्तिं; अप्पति,*
*अप्पवत्तं, अनारम्मणमेवेतं । एसेवन्तो दुक्खस्सा”ति।”*
यह एक ऐसा अनुभव क्षेत्र है जो संपूर्ण रूप जगत, संपूर्ण नाम जगत से परे है, जो न तो इहलोक है, न परलोक है और न दोनों है। न चंद्रमा है, न सूर्य है। इसे मैं न तो उदय-व्यय, न स्थिर, न जन्म, न पुनर्जन्म कहता हूं। यह बिना आधार का, बिना विकास का, बिना नींव का है । यह दुःख-निरोध है।”
उन्होंने यह भी कहा-
*“अत्थि, भिक्खवे, अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं। नो चेतं, भिक्खवे, अभविस्स*
*अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं, नयिध जातस्स भूतस्स कतस्स सङ्घतस्स निस्सरणं*
*पञ्ञायेथ । यस्मा च खो, भिक्खवे, अत्थि अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं, तस्मा*
*जातस्स भूतस्स कतस्स सङ्घतस्स निस्सरणं पञ्ञायती”ति।*
निर्वाण, अजात, अभूत, अकृ त, असंस्कृत है। यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जातकृत, भूतकृत, संस्कृत से मुक्ति नहीं जानी जाती | क्योंकि वह अजात.... है इसलिए जात, भूत....से मुक्ति जानी जाती है|
निर्वाण कोई ऐसी अवस्था नहीं है जहां मृत्यु के पश्चात लोग जाते हैं। इसका अनुभव हमें यहीं, अभी, हमारे अंदर होता है। निषेध के रूप में इसका समस्त वर्णन नकारात्मक शब्दों में किया जाता है इसलिए नहीं कि यह एक निषेधात्मक अनुभव है अपितु इसलिए कि इसके वर्णन के ठिए हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। प्रत्येक भाषा के पास भौतिक और मानसिक तथ्यों के क्षेत्र को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द होते हैं परंतु जो कुछ मन और शरीर के परे है उसके वर्णन के लिए शब्द अथवा अवधारणाएं नहीं होतीं। यह (निर्वाण) सभी प्रकार की श्रेणियों, सभी प्रकार की भिन्नताओं का खुळे आम विरोध करता है। हम इसका वर्णन, जो कुछ यह नहीं है, उसके कथन द्वारा ही कर सकते हैं।
वस्तुतः निर्वाण की व्याख्या करना निरर्थक है। कोई भी वर्णन भ्रामक होगा। इसके लिए विवेचना और तर्क करने की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है इसका अनुभव करना। बुद्ध ने कहा-
*इदं दुक्खनिरोधं अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे पुब्बे अननुस्मुतेसु धम्मेसु चक्खु*
*उदपादि, णं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि ।*
कि “दुःख निरोध आर्य सत्य' का अनुभव स्वयं करना है। जब किसी ने निर्वाण का अनुभव कर लिया तभी यह उसके लिए वास्तविक है। तब उससे संबंधित सभी तर्क अप्रासंगिक हो जाते हैं।
मुक्ति के परम सत्य के अनुभव के लिए हमारे लिए पहले प्रकट सच्चाई के परे का प्रतिवेधन और शरीर तथा मन की भंगावस्था का अनुभव करना आवश्यक है। साधक प्रकट सत्य से परे जितना अधिक प्रतिवेधन करता है उतना अधिक राग, देष और आसक्ति को छोड़ता है तथा परमार्थ सत्य के अधिक निकट पहुँचता है। विभिन्न चरणों में काम करते हुए साधक स्वाभाविक रूप से
एक ऐसे सोपान पर पहुँचता है जहां अंतिम चरण निर्वाण का अनुभव है। इसके लिए लालायित होने की कोई बात नहीं, उसके आने के बारे में संदेह करने का कोई कारण नहीं। इसे उन सबके पास आना ही चाहिए जो सही ढंग से धर्म धारण करते हैं। यह कब आयगा कोई नहीं कह सकता। यह अंशतः प्रत्येक व्यक्ति में संचित संस्कार पर और अंशतः उनके उन्मूलन के लिए किए गए उसके प्रयास पर निर्भर करता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए कोई इतना ही कर सकता है और इतना ही करना आवश्यक है कि बिना प्रतिक्रिया किए प्रत्येक संवेदना को देखना जारी रखे।
हम यह तय नहीं कर सकते कि हम परम सत्य निर्वाण का अनुभव कब करेंगे। परंतु यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हम इसकी ओर प्रगति करते जा रहे हैं। हम चित्त की वर्तमान अवस्था का नियंत्रण कर सकते हैं। हमारे बाहर या भीतर जो कुछ भी होता हो, अपनी समता बनाए रखकर हम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करते हैं। बुद्ध ने या जिसने भी इस परम सत्य को प्राप्त किया, यही कहा है-
“यो खो, आबृसो, रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो- इदं वुच्चति निब्बान”न्ति”
“राग का निरोध, देष का निरोध, मोह का निरोध, निर्वाण है।' उस सीमा पर पहुँच कर
जहां चित्त इनसे मुक्त हो जाता है, साधक मुक्ति का अनुभव करता है।
प्रत्येक क्षण जब हम ठीक प्रकार से विपश्यना का अभ्यास करते हैं, इस मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। आखिर धम्म की परिभाषा ही है कि मुक्ति का फल यहीं और अभी मिलना चाहिए, न कि भविष्य में । साधना के मार्ग के प्रत्येक चरण पर हमें इसके लाभ का अनुभव होना चाहिए । प्रत्येक चरण सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ना ही चाहिए। इस क्षण संस्कारों से मुक्त जो चित्त है, वह परम शांत होता है। ऐसा प्रत्येक क्षण हमें पूर्ण मुक्ति के निकट ले जाता है।
हम निर्वाण के विकास के लिए प्रयास नहीं कर सकते क्योंकि निर्वाण का विकास नहीं होता है, यह एक अवस्था है। लेकिन हम उस गुण के विकास की कोशिश कर सकते हैं जो हमें निर्वाण तक ले जाता है। यह गुण है समता | प्रत्येक क्षण जब हम प्रतिक्रिया किए बिना सच्चाई का निरीक्षण करते हैं, परम सत्य का प्रतिवेधन करते हैं। सच्चाई की पूर्ण जागरूकता पर आधारित समता मन का सर्वोच्च गुण है।
*वास्तविक सुख*
एक बार बुद्ध से यह समझाने के लिए कहा गया कि वास्तविक सुख क्या है? उन्होंने अनेक कुशल कर्मों के नाम गिनाये जो ऐसे सुख के उत्पादक हैं, जो वास्तविक उत्तम मंगल है। इन मंगल धर्मों की दो श्रेणियां हैं - अर्थात परिवार और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति करते हुए ऐसे कर्म करना जो दूसरों का हित संपादन करते हैं और ऐसे कर्म करना जो चित्त को निर्मल बनाते हैं। दूसरों के हित से अपना हित अलग नहीं किया जा सकता है। अंत में उहोंने कहा--
*फुस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न. कम्पति।*
*असोकं विरजं खेमं, एतं मंगल्मुत्तमं॥*
जिसका चित्त लोकधर्मों (लाभ-हानि, निंदा-प्रशंसा, यश-अपयश, सुख-दुःख) से कंपित नहीं होता, वह निःशोक, निर्मल तथा निर्भय रहता है - यह उत्तम मंगल है।
अपने शरीर-स्कंध और चित्त-स्कंध के छोटे-से-छोटे भाग में अथवा बाहरी दुनिया में कुछ भी होता हो, बिना तनाव के अथवा बिना राग, द्वेष किये, पूरी सहजता और मुस्कान के साथ व्यक्ति उसका सामना करने में समर्थ होता है। प्रत्येक स्थित में चाहे वह सुखद-दुःखद हो, इच्छित-अनिच्छित हो उसे कोई चिंता नहीं होती। अनित्यता की समझ के साथ वह पूर्ण सुरक्षित अनुभव करता है, यह
उत्तम मंगल है।
यह जानते हुए कि आप स्वयं अपना मालिक हैं और कुछ भी आपको अभिभूत नहीं कर सकता, जीवन जो कुछ आपको देता है, उसे मुस्कराते हुए आप स्वीकार कर सकते हैं- यह मन की पूर्ण समता है, यह वास्तविक मुक्ति है। विपश्यना अभ्यास के द्वारा इसे हम यहीं और अभी प्राप्त कर सकते हैं। वास्तविक समता केवल अभावात्मक अथवा निष्क्रिय अलगाव नहीं है। यह किसी ऐसे
व्यक्ति की अंध स्वीकृति अथवा भावशून्यता नहीं है जो जीवन की समस्याओं से पलायन चाहता है, अथवा जो रेत में अपना सिर छिपाने की कोशिश करता है बल्कि यह चित्त के वास्तविक संतुलन, समस्याओं के प्रति पूर्ण जागरूकता तथा सच्चाई के सभी स्तरों की जागरूकता पर आधारित है।
राग अथवा देष के अभाव का अभिप्राय निर्मम उदासीनता की मनोवृत्ति नहीं है जिसमें व्यक्ति स्वयं की मुक्ति का आनंद लेता है और दूसरों के दुःखों पर कोई ध्यान नहीं देता । इसके विपरीत वास्तविक समता को ठीक ही “पवित्र उपेक्षा" कहा गया है। यह एक गत्यात्मक गुण है, चित्त-विशुद्धि की अभिव्यक्ति है। मन जब अंध प्रतिक्रिया की आदत से मुक्‍त हो जाता है, तब सचमुच सकारात्मक कर्म कर सकता है जो रचनात्मक, उत्पादक एवं स्वयं तथा दूसरों के लिए लाभकारी ही होता है। उपेक्षा के साथ विशुद्ध मन के अन्य गुण उपजते हैं; मैत्री अर्थात बदले में कोई चीज चाहे बिना दूसरों का हित संपादन करना, दूसरों की विफलता और दुःख में उनके प्रति करुणा और उनकी सफलता और सौभाग्य में मुदिता। ये चार
गुण (ब्रह्म विहार) विपश्यना अभ्यास के अपरिहार्य परिणाम हैं।
पहले व्यक्ति हमेशा जो कुछ अपने लिए अच्छा था, उसे अपने पास रखने की कोशिश करता था और जो कुछ अनिच्छित था, उसे दूसरों के लिए छोड़ देता था। अब वह समझ गया है कि दूसरों की खुशी की कीमत पर अपनी खुशी प्राप्त नहीं की जा सकती है। दूसरों को खुशी देने में ही स्वयं को खुशी मिलती है। इसलिए व्यक्ति के पास जो कुछ अच्छा है, वह उसे दूसरों के साथ बांटना चाहता है। दुःखों से उबरने और मुक्ति का अनुभव करने पर व्यक्ति समझता है कि यही सबसे बड़ा मंगल है। इस प्रकार व्यक्ति चाहता है कि दूसरे भी इस मंगल का अनुभव करें और अपने दुःखों से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ निकालें।
विपश्यना ध्यान की तार्किक परिणति है- मेत्ता भावना अर्थात दूसरों के प्रति मैत्री का विकास | पहळे इस भावना के प्रति कोई दिखावटी प्रेम दिखाता होगा परंतु उसके अंतर्मन की गहराई में राग, देष की वही पुरानी प्रक्रिया चलती रहती थी। अब कुछ सीमा तक प्रतिक्रिया की प्रक्रिया बंद हो गई है। अहंकार की पुरानी आदत चली गई है और अंतर्मन की गहराई से सद्भावना का स्रोत स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होने लगा है। इसके पीछे लगी शुद्ध चित्त की संपूर्ण शक्ति के साथ यह सद्भावना सबके हित के लिए एक शांत, सामंजस्यपूर्ण वातावरण निर्माण करने के लिए बहुत बलशाली हो सकती है।
कुछ ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि सदा संतुलित बने रहने अर्थात समता में बने रहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति जीवन के संपूर्ण वैविध्य का आनंद नहीं उठा सकता मानो कि एक चित्रकार के पास विविध रंगों से भरी रंगपट्टिका है और वह केवल भूरे रंग का प्रयोग करना चाहे अथवा किसी के पास पियानो है और वह केवल मध्य 'सी' का स्वर बजाना चाहे। यह समता की गलत समझ है।
वास्तविकता यह है कि पिआनो बेसुरा है और हम उसे बजाना नहीं जानते।
आत्माभिव्यक्ति के नाम पर महज कुंजियों को दबाने से केवल बेसुरापन उत्पन्न होगा। लेकिन यदि हम उस वाद्ययंत्र का सुर मिलाना सीख ळें और उसे ठीक ढंग से बजाएं तो हम संगीत उत्पन्न कर सकते हैं। जब निम्नतम स्वर से उच्चतम स्वर तक कुंजी पटल की पूरी श्रेणी का हम उपयोग करते हैं तब प्रत्येक स्वर जिसे हम बजाते हैं, सौंदर्य एवं समरसता की सृष्टि करता है।
बुद्ध ने कहा कि चित्त-शुद्धि तथा पूर्ण प्रज्ञा प्राप्ति के द्वारा व्यक्ति उल्लास, परमानंद, प्रशब्थि, जागरूकता, पूरी समझ और सच्चे सुखों का अनुभव करता है।' एक संतुलित चित्त से, समताभरे चित्त से हम जीवन का और अधिक आनंद उठा सकते हैं। जब एक सुखद स्थिति प्रकट होती है, तब हम वर्तमान क्षण की पूर्ण एवं निर्विघ्न जागरूकता के साथ, इसका पूरा स्वाद ले सकते हैं। लेकिन जब यह अनुभव समाप्त हो जाता है, तब दु:खी नहीं होते हैं। यह समझते हुए कि इसका परिवर्तन होना ही था, हम मुस्कराते रहते हैं। इसी प्रकार जब कोई दुःखद स्थिति प्रकट होती है, तब परेशान नहीं होते हैं।इसकी बजाय, हम इसे समझते हैं और ऐसा करके संभवतः इसको बदलने का कोई रास्ता ढूंढते हैं। यदि यह हमारे सामर्थ्य में नहीं है तो भी यह अच्छी तरह जानते हुए कि यह अनुभव अनित्य है और इसे समाप्त होना ही है, हम शांत बने रहते हैं। इस प्रकार अपने मन को तनावमुक्त रखकर, हम अधिक आनंददायक और रचनात्मक जीवन जी सकते हैं।
एक कहानी है कि बर्मा में लोग सयाजी ऊ बा खिन के शिष्यों की यह कहकर आलोचना करते थे कि उनमें विपश्यना साधना करने वाले व्यक्ति के उपयुक्त गंभीर आचरण का अभाव है। एक शिविर में आलोचकों ने स्वीकार किया कि जैसा चाहिए था वैसा उन्होंने गंभीरतापूर्वक काम किया और बाद में वे हमेशा प्रसन्नता से मुस्कराते रहे। जब यह आलोचना देश के एक सर्वाधिक आदरणीय भिक्षु बेबू सयाडो के पास पहुँची, उन्होंने उत्तर दिया, “वे मुस्कराते हैं, इसलिए कि वे मुस्करा सकते हैं।' यह मुस्कराहट आसक्ति अथवा मोह की न होकर धम्म की थी। जिसने अपने चित्त को शुद्ध कर लिया है वह अपना तेवर चढ़ाकर नहीं घूमता फिरेगा। जब दुःख का निवारण हो जाता है, तब मुस्कराना स्वाभाविक है। जब कोई मुक्ति का मार्ग सीख लेता है तब यह स्वाभाविक है कि वह सुख का अनुभव करता है।
यह हार्दिक मुस्कराहट शांति, समता और सद्भावना की अभिव्यक्ति करती है, जो मुस्कराहट प्रत्येक स्थिति में विद्यमान रहती है, वही वास्तविक प्रसन्नता है।
यही धम्म का लक्ष्य है।
- अध्याय - ९ ( जीवन जीने की कला )

विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org


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