शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

आज के धर्मों में से विज्ञान के सबसे ज्यादा करीबी धर्म कौन सा है?

आधुनिक भारत में पालि तथा बौद्ध साहित्य की पुनः प्रतिष्ठा करने का श्रेय मुख्यतः भिक्षुत्रय अर्थात् राहुल सांकृत्यायन, जगदीश काश्यप तथा भदन्त आनन्द कौशल्यायन को जाता है। ऐसे समय में जबकि भारत से बौद्ध धम्म तथा पालि साहित्य का लोप हो चुका था, इन्होंने ही ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद करके प्रकाशन कराया तथा प्रचार किया। इनके जीवन-चरित्रों को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर ज्ञात होता है कि ये तीनों ही धर्मधुरन्धर अंगुत्तर निकाय में विद्यमान केसमुत्ति-सुत्त से अत्यधिक प्रभावित रहें। कालामों को सम्बोधित करते हुए उन्हें दिया गया यह केसमुत्ति-सुत्त समस्त वाङ्मय प्रपञ्च में विवेकवाद तथा स्वतन्त्र चिन्तन के लिए एक प्रकार का घोषणा-पत्र ही है। कालामों को दिया गया यह सुत्त वास्तव में मानवता के लिए एक वरदान है ।
इस केसमुत्ति सुत्त ने इन विद्वान भिक्षुओं को अत्यन्त प्रभावित किया। भगवान बुद्ध और बौद्ध-दर्शन के प्रति आकर्षण होने की बात को राहुल सांवृफत्यायन अपनी आत्मकथा 3 में इस तरह से प्रकट करते हैं -
ढाई हजार वर्ष पहले के समाज और समय में बुद्ध के युक्तिपूर्ण सरल और चुभने वाले वाक्यों का मैं तन्मयता के साथ आस्वाद लेने लगा। त्रिपिटक में आये चमत्कार अपनी असम्भवता के लिए मेरी घृणा के पात्र नहीं, बल्कि मनोरंजन की सामग्री थे। मैं समझता था, पच्चीस सौ वर्षों का प्रभाव उन ग्रन्थों पर न हो यह हो नहीं सकता। असम्भव बातों में कितनी बुद्ध ने वस्तुतः कहीं, इसका निर्णय आज किया नहीं जा सकता, फ‍िर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये बुद्ध के उपदेश- ‘किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो’ को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहाँ है एक आदमी जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्त्व को समझता है। जब मैनें मज्झिम-निकाय में पढ़ा- ‘बड़े की भाँति मैनें तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं, तो मालूम हुआ, जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता फिर रहा था, वह मिल गई।
राहुलजी भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट मानव कल्याण सम्बद्ध बातों से तथा तर्कसंगत विषयों के प्रतिपादन के कारण उनसे अत्यन्त प्रभावित रहें। वस्तुतः भगवान बुद्ध के द्वारा कहीं गई शिक्षाओं में एक भी मानव कल्याण तथा तर्क के परे नहीं है। केसमुत्ति सुत्त में बुद्ध भगवान द्वारा कालामों को दी गई शिक्षाप्रद-पंक्तियाँ राहुलजी के हृदय में उतर सी गई थी।
भदन्त आनन्द कौशल्यायन भी अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में इसी प्रकार की बात को स्वीकार करके इस सुत्त के प्रति अपनी कृतज्ञता निवेदित करते हैं। वे लिखते हैं कि केसमुत्ति-सुत्त को पढ़कर ही वे बौद्ध-धम्म तथा साहित्य की ओर आकर्षित हुए। अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में वे इस प्रकार लिखते हैं -
जिस कालाम-सूक्त की बौद्ध-वाङ्मय में ही नहीं, विश्वभर के वाङ्मय में इतनी धाक है, जो एक प्रकार से मानव-समाज के स्वतन्त्र-चिन्तन तथा स्वतन्त्र-आचरण का घोषणा-पत्र माना जाता है, वह कालाम-सुत्त इसी अंगुत्तर-निकाय के तिक-निपात के अन्तर्गत है। भगवान ने उस सुत्त में कालामों को आश्वस्त किया है-
‘हे कालामों! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि वह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कहीं गई है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रन्थ (पिटक) के अनुकूल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह तर्क-सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह न्याय (शास्त्र) सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि आकार-प्रकार सुन्दर है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुकूल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निन्दित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है- तो हे कालामों! तुम उन बातों को छोड़ दो।’
वैश्विक इतिहास में भगवान बुद्ध ने यह नई बात कहीं है। किसी भी धर्मगुरु ने इतना बड़ा साहस नहीं किया। सभी अपनी अपनी भगवत्ता को स्थापित करने या उसे बचाने के प्रयास में ही लगे दिख पड़ते हैं। किन्तु भगवान बुद्ध की बात ही निराली है। वे स्वयं के द्वारा कही गई बात को भी आँख बन्द करके न मानने की शिक्षा को इस प्रकार उपस्थापित करते हैं-
तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।। 5
भावार्थ - ‘हे पण्डित! जिस तरह उच्च ताप से पककर कोई सुवर्ण (सोना) परखा जाता है, उसी तरह मेरे भी वचनों को (वैज्ञानिक कसौटी पर कसते हुए) परखकर ग्रहण करना चाहिए, न कि मेरे प्रति गौरव (श्रद्धा) के कारण।
विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org

Follow this link to join my WhatsApp group 10 दिवसीय निशुल्क ध्यान शिविर: 

or contact at 9410432846

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बुद्ध पूर्णिमा पर गोयन्का जी का लेख

🌺बुद्ध जयन्ती - वैशाख पूर्णिमा🌺 (यह लेख 28 वर्ष पूर्व पूज्य गुरुजी द्वारा म्यंमा(बर्मा) से भारत आने के पूर्व वर्ष 1968 की वैशाख पूर्णिमा ...