बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

ऐ मेरे मन!



कितना समय बीत गया पर अब तक भी तेरा कुलबुलाना नहीं मिटा। तेरे
भीतर क्रोध के अंगारे अब तक भी सुलग रहे हैं। अरे अबोध! इन अंगारों में तू
किस कदर जल रहा है? कितना संतापित है तू इस जलन से ? फिर भी, कितना
दुर्बोध है रे तू? अपने भीतर धीरे-धीरे इस आग को सुलगाए ही जा रहा है। जब
तक इसे शांत करने का कोई उपाय नहीं करेगा, तब तक तो यह आग अपने
स्वभाव से शनैः शनैः बढ़ती ही जायगी। किसी ने ठीक ही तो कहा है: -
सिने सिप्पं सिने धनं, सिने पब्बतमाहं।
सिने कामस्स कोधस्स, इमे पञ्च सिने सिने॥
(लोकनीति गाथा १)

शनैः शनैः ही शिल्पज्ञान बढ़ता है। शनैः शनैः ही धन बढ़ता है। शनेः शनैः
ही पर्वतारोहण होता है। शनै: शनेः ही काम और क्रोध बढ़ता है। ये पांचों शनेः
शनैः ही बढ़ते हैं।
जैसे आग स्वयं अपने लिए नया-नया जलावन लेकर शनैः शनैः बढ़ती ही
रहती है, वैसे ही स्वयमेव बढ़ते रहना इस क्रोध का सहज स्वभाव है।
अप्पो हुत्वा बहु होति, वड्ठते सो अखन्तिजो।
वह जो अशांति से उत्पन्न होने वाला क्रोध है, वह थोड़े से बढ़ता हुआ बहुत
ही होते रहता है।
आसङ्गी बहुपायासो, तस्मा कोधं न रोचये।

(जातक गाथा १६)

इसका संग बहुत दुःखदायी है। ऐसा अनर्थकारी, पापी क्रोध किस समझदार

को रुचिकर हो सकता है भला? परंतु तेरे जैसे नासमझ इसे बढ़ाने में ही लगे रहते
हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि इसका कितना बड़ा दुष्परिणाम होने वाला है।

बाणिजान॑ यथा नावा, अप्पमाणभरा गरु।
अतिभारं समादाय, अण्णवे अवसीदति॥

एवमेव नरो पापं, थोक थोकम्पि आचिनं।
अतिभारं समादाय, निरये अवसीदति॥
(जातक २. गाथा १२४५-४६)

जैसे किसी बनिए की थोड़े भार वाली नाव में अत्यधिक भार भर दिये जाने
पर वह समुद्र में डूब जाती है वैसे ही थोड़ा-थोड़ा पाप-भार बढ़ाता हुआ नासमझ
व्यक्ति अतिभार के कारण दुर्गतियों में डूब जाता है
चाहिए तो यह कि जिस प्रकार कोई सुनार धीरे-धीरे चांदी का थोड़ा- थोड़ा
मैल दूर करता है, वैसे ही समझदार आदमी सत्प्रयत्न द्वारा क्षण प्रतिक्षण अपने
मन का थोड़ा-थोड़ा मैल दूर करे। उसे देषहीन बनाए, क्रोधहीन बनाए, पापहीन
बनाए ।
अनुपुब्बेन मेधावी, थोकं थोकं खणे खणे।
कम्मारो रजतस्सेब, निद्धमे मलमत्तनो॥
(धम्मपद गाथा २३९)
परंतु तू तो इतना नासमझ है कि अपने मैल को शनैः शनैः कम करने के
बजाय उसे शनैः शनैः बढ़ाए ही जा रहा है और परिणाम स्वरूप इस आग से
अपने आपको संतप्त ही किए जा रहा है। यह जो आग तेरे भीतर उत्पन्न हुई है,
वह अन्य किसी को जलाए या न जलाए, तुझे तो अवश्य जलाएगी ही।
कट्ठस्मिं मत्थमानस्मिं, पावको नाम जायति।
तमेब कटं डहति, यस्मा सो जायते गिनि॥
(जातक १. गाथा ५८)
जिस प्रकार किसी काठ में पारस्परिक रगड़ द्वारा उत्पन्न हुई आग उसी काठ
को जलाती है, वैसे ही तेरे भीतर किसी के भी रगड़ से उत्पन्न हुई यह क्रोधाग्नि
तुझे ही जला रही है।
किसी मूर्ख, अजान, अबोध से तेरी ऐसी रगड़-झगड़ हो गई कि उसके
परिणाम स्वरूप तेरे भीतर यह क्रोध की अग्नि जागृत हो गई। पर तू भी तो कम
अबोध नहीं कि इस आग में अब तक जले ही जा रहा है।
एवं मन्दस्स पोसस्स, बालस्स अविजानतो।
सारम्भा जायते कोधो, सोपि तेनेव डय्हति॥
(जातक ४४१. गाथा ५९)
चाहे जिस मंद-बुद्धि अबोध व्यक्ति की रगड़ से तेरे भीतर आग जल उठी
हो, परंतु आग तो आग है और उसका स्वभाव है कि जहां उत्पन्न होती है, उसी
को जलाती है। जिसकी रगड़ से यह आग लगी, वह जळे या न जले, परंतु तू तो
इस आग से जळे ही जा रहा है।

जिसकी रगड़ से तेरे भीतर यह आग लगी है वह दुर्बोध हो, अज्ञानी हो
अथवा कोई श्रमण हो, ज्ञानी हो, इससे क्या अंतर पड़ता है? यदि इस आग से तू
जल उठा है तो तुझे तो यह आग संतापित करेगी ही। नीम की लकड़ी की रगड़
लगी हो अथवा चंदन की लकड़ी की, यदि उस रगड़ से किसी काठ में आग उत्पन्न
हो गई तो वह आग उस काठ को जलायेगी ही। जलाना ही उसका धर्म है। आग
चाहे कोयळे की हो अथवा पेट्रोल की हो, विद्युत की हो अथवा गैस की हो, आग
तो आग है। जलायेगी ही। अतः समझदार आदमी सदैव इस बात से सतर्क रहता
है कि आग चाहे जिस स्रोत से उत्पन्न हुई हो उसे बढ़ने न दे।
सुत्वान दुसितो बहुं वाचं, समणानं वा पुथुजनानं।
फरुसेन हि न पटिवज्जा, न हि सन्तो पटिसेनि करोन्ति ॥
(वतुरारक्खदीपनी निस ३, गाथा १७)

समझदार शांत-चित्त व्यक्ति किसी श्रमण से अथवा किसी मूढ़ अज्ञानी
व्यक्ति से अनेक दूषित वचन सुनकर भी बदढ़े में स्वयं कभी कटु-कठोर वचन का
प्रयोग नहीं करता। स्वयं क्रुद्ध होकर उसका प्रतिकार नहीं करता। क्योंकि वह
जानता है कि ऐसा करते ही वह स्वयं अपने भीतर आग जला लेगा। और उस
दुर्भाषी व्यक्ति की क्रोध की आग में नया पेट्रोल छिड़क देगा। अपने और पराए
भढे को समझने वाला, न स्वयं अपनी ओर से कड़वे वचन बोलकर नयी आग
लगाता है, और न ही किसी और के कड़वे वचन सुनकर उसे कड़वा प्रत्युतर देता
है और उसकी आग को भड़काता है।

मा वोच फसुसं किञ्चि, वृत्ता पटिवदेय्युं तं।
दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्युं तं ॥
(नरदक्खदीपनी चारित्त निद्देस गाथा १३७)

इसीलिए समझदार आदमी कभी कोई कड़वी वाणी न बोले। क्योंकि सुनने
वाला क्रुद्ध होकर बदले में कड़वी वाणी ही बोलेगा। क्रोधभरा हर वचन दुःख ही
पैदा करेगा। ऐसे वचनों का प्रयोग करने वाले हमेशा दुःखी होंगे।

यो कोपनेय्ये न करोति कोपं,
न कुज्झति सप्पुरिसो कदाचि।
कुद्धोपि सो नाविकरोति कोपं,
ततं बे नरं समणमाहु लोके ॥
(जातक १. गाथा २४)

सत्पुरुष कभी किसी पर क्रोध नहीं करता । वह तो किसी कोपभाजन पर भी
क्रोध नहीं करता। क्रुद्ध हो जाय तो भी क्रोध प्रकट नहीं करता। ऐसा संयमित
सत्पुरुष ही तो दुनिया में सच्चा संत कहलाता है। सचमुच समझदार के लिए क्रोध
किसी भी अवस्था में उचित नहीं है।

अलसो गिही कामभोगी न साधु,
असञ्जतो पब्बजितो न साधु।
राजा अनिसम्मकारी न साधु,
पण्डितो कोधनो तं पि नं साधु॥
(लिकनीति राजक ९३१. गाथा १२१)

आलसी कामभोगी गृहस्थ अच्छा नहीं होता, न ही संयमविहीन गृहत्यागी
प्रव्रजित, बिना सोचे समझे निर्णय करने वाला शासक अच्छा नहीं होता, और न
ही क्रोधयुक्त ज्ञानी पंडित व्यक्ति। कोई सचमुच ज्ञानी होगा तो वह क्रोध का
गुलाम होगा ही नहीं।

समझदार व्यक्ति सदा अपनी सही सुरक्षा करता है। वह अपनी सुरक्षा में ही
औरों की भी सुरक्षा देखता है। समझदार व्यक्ति सदा औरों की सही सुरक्षा करता
है। वह औरों की सुरक्षा में ही अपनी भी सुरक्षा देखता है।

अत्तानं रक्खन्तो परं रक्खति,
परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति॥
(नरदक्खदीपनी वारित्त निहेस गाथा १४५)
वह अपनी रक्षा करता हुआ औरों की रक्षा करता है। औरों की रक्षा करता
हुआ अपनी रक्षा करता है। सचमुच, जो स्वयं क्रोध की पहल नहीं करता और
किसी क्रोधी के पहर कर लेने पर प्रतिक्रिया स्वरूप भी क्रोध नहीं करता, ऐसा
व्यक्ति ही तो अपनी और परायी सब की सही सुरक्षा करता है। ऐसा व्यक्ति ही

तो सही माने में सत्पुरुष है।

उभिन्नमत्थं चरति, अत्तनोच परस्सच।
परं संकुप्पितं ञत्वा, यो सतो उपसम्मति॥
(नरदक्खदीपनी चारित्त निदेस गाथा १४५)

अपने और पराये भले के लिए ही सत्पुरुष दूसरे को कुपित हुआ देखकर
स्वयं शांति धारण करता है। सचमुच इसी में तो दोनों की भलाई है। कुपित हुए पर
कुपित हो जायँ तो अपनी और उसकी दोनों की ही हानि हो।

ऐ मेरे भोळे मन! तू जिस धर्म-पथ का पथिक है वह तो क्षांति का पथ है।
शांति का पथ है, सहिष्णुता का पथ है, धीरज का पथ है। इस पथ पर चलने वाळे
सभी पथिक शांति का ही अभ्यास करते आए हैं। मैं जानता हूं कि यह तो अभी
संभव नहीं है कि तुझे उन धर्मराज भगवान तथागत की तरह कभी, किसी भी
अवस्था में, क्रोध आए ही नहीं, उनकी तरह तेरी भी भृकुटी कभी टेढ़ी हो ही नहीं ।
परंतु इतना तो अवश्य हो ही सकता है कि जब कभी तुझे क्रोध आए तब तू शीघ्र
से शीघ्र उसका शमन कर ले। उसे बढ़ने न दे | बुद्ध बनने के पूर्व उस नर-श्रेष्ठ ने
भी तो जन्म जन्मान्तरों में यही अभ्यास किया था। भावी-बुद्ध बोधिकुमार ने
सर्वथा उकसाने वाली स्थिति में भी इस दुष्ट क्रोध को अपने सिर पर सवार नहीं ही
होने दिया। इसका सामना ही किया।

उष्पज्जे मे न मुच्चेय्य, न मे जीवतो।
रजंब॒ विपुला बुडि, खिप्पमेय निवारये॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५०)

उठते हुए क्रोध को देखते-देखते भावी बुद्ध को यह होश था कि यह उत्पन्न
होगा तो मुझे नहीं छोड़ेगा, जीवन भर बांधे रखेगा जिस तरह उठती हुई धूल को
विपुल वृष्टि द्वारा दबा दिया जाता है, वैसे ही इसका निवारण कर देना चाहिए।
और यही तो उसने किया भी।

उप्पज्जि मे न मुच्चित्थ, न मे मुच्चित्थ जीवतो।
रजं ब विपुला बुदि खिप्पमेव निवारयिन्ति॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५२)

यह क्रोध जैसे ही उत्पन्न हुआ, मैं उसके अधीन नहीं हुआ। अतः यह मुझे
जीवन भर अपना गुलाम बनाए न रख सका। (परन्तु अब) जिस प्रकार उठती हुई
धूल का निवारण विपुल वर्षा द्वारा हो जाया करता है, वैसे ही मैंने इसका निवारण
कर लिया।

_यम्हि जाते न पस्सति, अजाते साधु पस्सति।
सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो ॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५४)_

कैसा अनिष्टकारक है यह क्रोध! सज्जन इसके उत्पन्न होने के पहले ही
भली-भांति देख समझ सकते हैं। इसके उत्पन्न होने पर तो सारी सूझ-बूझ नष्ट हो
जाती है। ऐसे अनर्थकारी क्रोध के उत्पन्न होने पर मैं इसके अधीन नहीं हुआ।
सचमुच क्रोध तो मूर्खों की ही गोचर भूमि है।

_यस्मिञ्च जायमानम्हि, सदत्थं नावबुज्झति।
सो मे उप्पज्नि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५६)_

जिसके उत्पन्न होने पर आदमी की सारी सद्बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह
स्वयं अपना भला बुरा भी नहीं समझ सकता, ऐसा दुष्ट क्रोध मुझमें उत्पन्न हुआ,
परंतु मैं उसके वशीभूत नहीं हुआ। अहो, क्रोध तो मूर्खो की ही गोचरभूमि है।

_येन जातेन नन्दन्ति, अमित्ता दुक्खमेसिनो।
सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५५)_

जब मुझमें क्रोध जागता है तो मेरे वे दुश्मन जो मेरा अनिष्ट चाहते हैं, जी
मुझे दुःखी देखना चाहते हैं, उनकी इच्छा पूरी होती है, वे ऐसा देखकर प्रसन्न ही
होते हैं । क्योंकि क्रोध को जन्म देकर मैं अपने दुःखों को ही जन्म देता हूं। इसीलिए
मुझे क्रोधान्वित देखकर वे प्रसन्न ही होते हैं। ऐसा दुःखदायी क्रोध मुझमें उत्पन्न
हुआ, परंतु मैंने उसका तुरंत शमन कर दिया। मैं उसका गुलाम न बन सका।
अहो, क्रोध तो मूर्खों की ही गोचर भूमि है।

_येनाभिभूतो कुसलं जहाति,
परक्करे विपुलञ्चापि अत्थं।
स भीमसेनो बल्वा पमद्दी,
कोधो महाराज न मे अमुच्चथ॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५७)_

जिसके वशीभूत होकर आदमी अपना कुशल खो देता है। बड़े से बड़ा लाभ
गंवा देता है। हे महाराज! बड़े बड़ों का मर्दन कर देने वाला ऐसा भयावह बलशाली
वह क्रोध मुझे अपने बंधन में न बांध सका। अहो, महा अनर्थकारी क्रोध का
गुलाम होने से मैं बच गया। इस विजय की खुशी में भावी-बुद्ध बोधिकुमार प्रसन्न
हो उठा।

ऐ मेरे बावरे मन! तू भी उसी संत के पावन पथ का अनुगामी बन। जीत,
अपने उठते हुए क्रोध को जीत । इसे बढ़ने न दे, इसके वशीभूत न हो, नहीं तो यह
तेरे भीतर ऐसा द्वेष-दौर्मनस्य भर देगा जो कि जीवन भर तुझ पर छाया रहेगा।
जीवन भर तुझे दुःखी बनाता रहेगा। इसके पहले कि यह तुझे पछाड़ दे और
सदा-सदा के ठिए तुझे अपने वश में कर ले, शीघ्र इसके चंगुल से निकल, इसका
गुलाम होने से बच। दौर्मनस्य के इस उठते हुए गर्द-गुब्बार पर प्रीति-प्यार की
माधुरी वर्षा कर, मंगल-मैत्री की विपुल बौछार कर। और इसका शमन कर। शमन
कर! शमन कर! ताकि तू भी प्रसन्नतापूर्वक कह सके -

_सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो।
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५६)_

वह दुष्ट क्रोध मुझमें उत्पन्न तो हुआ, पर मुझे अपने वशीभूत न कर सका।
वशीभूत न कर सका। क्रोध तो मूर्खों की ही गोचरभूमि है।

(वर्ष ३ बृद्धवर्ष २५९७ आश्विन पूर्णिया दि. १२-१०-७३ अंक ४)

विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org

Follow this link to join my WhatsApp group 10 दिवसीय निशुल्क ध्यान शिविर: 

or contact at 9410432846

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बुद्ध पूर्णिमा पर गोयन्का जी का लेख

🌺बुद्ध जयन्ती - वैशाख पूर्णिमा🌺 (यह लेख 28 वर्ष पूर्व पूज्य गुरुजी द्वारा म्यंमा(बर्मा) से भारत आने के पूर्व वर्ष 1968 की वैशाख पूर्णिमा ...