बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

भीतर का मेल कैसे उतरे !


(पुराने साधको के लिए प्रवचन- १९८६) में  से कुछ अंश  :

मेरी प्यारी धर्म-पुत्रियों !
 मेरे प्यारे धर्म-पुत्रों !

मन की पुरानी आदत = राग द्वेष और मोह में रहने की , उसे तोड़ कर, अच्छी आदत = सजगता  और समता में रहने की  इसे पुष्ट करने के लिए  . . .
रोज-रोज  १घंटा सुबह & १ घंटा शाम /या रात साधना का नियमित अभ्यास करना ही होगा  !
=
घंटे भर यही करना है कि राग-द्वेष वाली तरंगें कैसे बंद करें और वीतरागता- वीतद्वेषता की तरंगें कैसे जगायें !
आगे का काम कुदरत पे , धरम पे छोडें  ।

जब-जब हम ये वीतरागता - वीतद्वेषता की तरंगें जगाते हैं , तब सारे विश्व में जहां भी कोई संत, सदगुरु, सम्यक देव
सम्यक ब्रह्म ऐसी पवित्र तरंगें जगाने का काम कर रहे हैं, उनके साथ समरस हुए जा रहे हैं, ट्यूनअप होते  जा रहे हैं।

हम जो कहते हैं - तब, मंगल मैत्री अपने आप खिंची चली आती है !
यह चमत्कार की बात नहीं, कुदरतका बँधा-बँधाया नियम है।

धर्म का रास्ता ऐसा है कि इस पर जरा-सा भी सही  परिश्रम करें तो,  वह निष्फल नहीं जाता ।

फिर भी  . .. .. ..
हम जानते हैं, बडी कठिनाई होती है यह सब करने में !!  ध्यान में बैठते ही कितनी सारी  बातें याद आने लगेगी :
उसने ऐसा कह दिया रे ! उसने ऐसा कर दिया रे ! यह बहू देखो कैसी गयी-गुजरी रे ! यह सास देखो कैसी गयी-गुजरी रे !यह बेटा... ! यह फला ... वह फलां_ !!
दिन भर जिन उपद्रवों को लेकर के हमने राग-द्वेष जगाया; ध्यान में बैठे तो वही जागेंगे ।
भले जागे, जागने दो, घबराओ मत, दबाओ मत। जो कूड़ा-करकट इकट्ठा किया है, वह फूट कर बाहर आना ही
चाहिए ।
यह सब भी जाग रहा है और साथ-साथ हम सांस को भी जान रहे है । तो सफाई का काम शुरू हो गया।
जब-जब देखो कि इस तरह की कठिनाईयाँ ज्यादा आने लगी = मन संवेदना में नहीं लग रहा; तो इसीलिए साधना के दो हिस्से सिखाए- एक सांस की साधना, एक संवेदना की साधना । संवेदना को जानते हुए अगर हमने समता का अभ्यास किया तो अंतर्मन की गहराइयों तक हमने सुधारने का काम कर दिया।
मानस हमारा इतना उथल-पुथल कर
रहा है कि संवेदना को नहीं जान पाये तो सांस का ही काम करें।
सांस का भी मन से बड़ा गहरा सबंध है।
शुद्ध सांस को देखते चले
जायँ। उसको भी नहीं देख पाते तो सांस को जरा-सा तेज कर लें।
संवेदना को तो हम चाहे तो भी तेज नहीं कर सकते, अपने स्वभाव
से न जाने कहां, क्या संवेदना होगी, कैसी होगी? लेकिन सांस को
तो हम प्रयत्न पूर्वक तेज कर सकते हैं। जरा प्रयत्न पूर्वक सांस लेना
शुरू कर दिया। विचार भी उठ रहे हैं, तूफान भी उठ रहे हैं; भीतर ही भीतर सब जंजाल चल रहे हैं, फिर भी सांस को जाने जा रहे हैं।
तूफान भी उठता है, सांस को भी जानते हैं; तूफान भी उठ रहा है तो भी सफाई का काम चल रहा है, मत घबरायें।
इस बात से कभी मत घबरायें कि हमारे मन में ये विचार क्यों उठ रहे हैं? पहले विचार शांत होंगे, उसके बाद सफाई होगी;  ऐसा बिल्कुल नहीं । अगर सांस या संवेदना को साथ-साथ जान रहे हैं
और उनके प्रति समता का भाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, भले
थोड़ी-थोड़ी देर ही समता रहती है, बाकी समय उसी तरह प्रतिक्रिया
करते हैं, तो भी कुछ नहीं खोया; लाभ ही हुआ।

युं  समझदारी से सही तरह परिश्रम करेते रहेंगे, तो अच्छे फल मिलेंगे ही।

उत्साह के साथ, उमंग के साथ काम करते रहें ।

जिन-जिन के भीतर धर्म
का बीज पड़ा है, उन सबका धर्म विकसित हो!
जिन-जिन के भीतर प्रज्ञा जागी है, उन सब की प्रज्ञा विकसित हो ! पुष्ट हो !

सबका मंगल हो ! सबका कल्याण हो !
:
कल्याण मित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org


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