🌹गुरूजी--
मेरे प्यारे साधक, साधिकाओं!
स्थान स्थान से विश्व भर के साधक साधिकाओं की मंगल मैत्री मिल रही है।मंगल मैत्री अमित कल्याणी है।
🍁परंतु किसी किसी साधक ने चिंता भी प्रकट की है।चिंता, भय, आशंका, निराशा, व्याकुलता धर्म विरोधी तरंगे हैं, कल्याण विरोधी तरंगे हैं।
अतः विपश्यी साधको के लिये ऐसी तरंगो का प्रजनन अत्यंत अशोभनीय है, त्याज्य है।
समता भरी मंगल मैत्री ही ग्राह्य है।
🌻यदि रोग आये तो चिंता किस बात की?
रोग तो मंगल का सूचक है।
शरीर में संचित हुए अनेक प्रकार के विष जब अन्य किसी राह से नही निकल पाते तब रोग से ही उनका रेचन होता है।
इसी प्रकार कई अकुशल संस्कार ऐसे होते हैं जो विपश्यना द्वारा दुर्बल तो हो जाते हैं परंतु वह निर्मूल नही हो पाता, तो उनका रेचन(expulsion) भी कभी कभी शारीरिक रोग द्वारा ही होता है।
दोनों ही अवस्था में महामंगलदायक है रोग का आगमन।
🌸हां यदि रोग को भोगने लगे तो अवश्य चिंता की बात शुरू हो जाती है।
जब कोई व्यक्ति रोग का दुःख भोगता है तो कराहता है, तड़पता है, व्याकुल होता है, दुर्मन होता है और परिणामतः रोग-निवारण की उपचार अवधि को लंबा बनाता है।
दूसरी और जितनी देर भोगता है, उतनी देर नये-नये दूषित कर्म संस्कारो का ढेर प्रजनन किये जाता है।
यानि अपने ही दुःखो का संवर्धन किये जाता है।
🌷परंतु कोई व्यक्ति जब जब अपने रोग को देखता है, उसका साक्षिकरण करता है तो समता भरे शांत चित्त से दुःख दर्शन करता हुआ रोग निवारण की उपचार अवधि को छोटा करता है।
जीवनधारा पर उदीर्ण हुए पूर्व कर्म संसकारों के कर्म विपाको का साक्षी बनकर नए संस्कारो के प्रजनन का संवर करता है, और इस प्रकार पुरानों के विघटन और क्षय होने का कारण बनता है।
💐रोग का दर्शन दुःख का दर्शन है।
रोग इस परिवर्तनशील शरीर का स्वभाविक धर्म है।अतः रोग का दर्शन धर्म का दर्शन है।रोग से जरा-जीर्ण होना जीवन जगत की सच्चाई है।
अतः रोग का दर्शन सत्य का दर्शन है।
रोग दर्शन यानी सत्य दर्शन यानी प्रथम आर्य सत्य-दर्शन, ऐसी सच्चाई का दर्शन जो हमे आर्य बना देता है, मुक्त बना देता है।
इसलिये रोग का दर्शन महामंगलकारी है।
🌺परंतु दुर्बल मन कभी कभी रोग दर्शन से यानी सत्य दर्शन से मुह मोड़ लेता है। अपने पुराने कर्म संस्कारो का ऋण हँसते हँसते नही चुकाना चाहता तो कुछ देर के लिये रोग में लोट- पलोट लगाने लगता है, रोग भोगने लगता है।यानि दुःख भोगने लगता है।
🍁ऐसे समय किसी के द्वारा प्रजनन की गयी चिंता की तरंगे मन को और अधिक दुर्बल बनाने में सहायक होती हैं।
परंतु ऐसे समय किसी साधक द्वारा समता भरे चित्त से अनित्य बोध की प्रज्ञा से प्रजनन की मंगल मैत्री की तरंगे रोगी के मन को सबल बनाने में सहायक होती हैं।
भोक्ता से दृष्टा बनाने में सहायक होती हैं। दोनों और कल्याण का कारण बनती है।
🌻अतः साधक भूलकर भी चिंता की तरंगो का प्रजनन न करे।
प्रज्ञाभरी मंगल मैत्री का ही प्रजनन करे।
असीम कल्याणी है मंगल मैत्री।
विपश्यना शिविर में सम्मिलित होने के देखें साइट www.dhamma.org
मेरे प्यारे साधक, साधिकाओं!
स्थान स्थान से विश्व भर के साधक साधिकाओं की मंगल मैत्री मिल रही है।मंगल मैत्री अमित कल्याणी है।
🍁परंतु किसी किसी साधक ने चिंता भी प्रकट की है।चिंता, भय, आशंका, निराशा, व्याकुलता धर्म विरोधी तरंगे हैं, कल्याण विरोधी तरंगे हैं।
अतः विपश्यी साधको के लिये ऐसी तरंगो का प्रजनन अत्यंत अशोभनीय है, त्याज्य है।
समता भरी मंगल मैत्री ही ग्राह्य है।
🌻यदि रोग आये तो चिंता किस बात की?
रोग तो मंगल का सूचक है।
शरीर में संचित हुए अनेक प्रकार के विष जब अन्य किसी राह से नही निकल पाते तब रोग से ही उनका रेचन होता है।
इसी प्रकार कई अकुशल संस्कार ऐसे होते हैं जो विपश्यना द्वारा दुर्बल तो हो जाते हैं परंतु वह निर्मूल नही हो पाता, तो उनका रेचन(expulsion) भी कभी कभी शारीरिक रोग द्वारा ही होता है।
दोनों ही अवस्था में महामंगलदायक है रोग का आगमन।
🌸हां यदि रोग को भोगने लगे तो अवश्य चिंता की बात शुरू हो जाती है।
जब कोई व्यक्ति रोग का दुःख भोगता है तो कराहता है, तड़पता है, व्याकुल होता है, दुर्मन होता है और परिणामतः रोग-निवारण की उपचार अवधि को लंबा बनाता है।
दूसरी और जितनी देर भोगता है, उतनी देर नये-नये दूषित कर्म संस्कारो का ढेर प्रजनन किये जाता है।
यानि अपने ही दुःखो का संवर्धन किये जाता है।
🌷परंतु कोई व्यक्ति जब जब अपने रोग को देखता है, उसका साक्षिकरण करता है तो समता भरे शांत चित्त से दुःख दर्शन करता हुआ रोग निवारण की उपचार अवधि को छोटा करता है।
जीवनधारा पर उदीर्ण हुए पूर्व कर्म संसकारों के कर्म विपाको का साक्षी बनकर नए संस्कारो के प्रजनन का संवर करता है, और इस प्रकार पुरानों के विघटन और क्षय होने का कारण बनता है।
💐रोग का दर्शन दुःख का दर्शन है।
रोग इस परिवर्तनशील शरीर का स्वभाविक धर्म है।अतः रोग का दर्शन धर्म का दर्शन है।रोग से जरा-जीर्ण होना जीवन जगत की सच्चाई है।
अतः रोग का दर्शन सत्य का दर्शन है।
रोग दर्शन यानी सत्य दर्शन यानी प्रथम आर्य सत्य-दर्शन, ऐसी सच्चाई का दर्शन जो हमे आर्य बना देता है, मुक्त बना देता है।
इसलिये रोग का दर्शन महामंगलकारी है।
🌺परंतु दुर्बल मन कभी कभी रोग दर्शन से यानी सत्य दर्शन से मुह मोड़ लेता है। अपने पुराने कर्म संस्कारो का ऋण हँसते हँसते नही चुकाना चाहता तो कुछ देर के लिये रोग में लोट- पलोट लगाने लगता है, रोग भोगने लगता है।यानि दुःख भोगने लगता है।
🍁ऐसे समय किसी के द्वारा प्रजनन की गयी चिंता की तरंगे मन को और अधिक दुर्बल बनाने में सहायक होती हैं।
परंतु ऐसे समय किसी साधक द्वारा समता भरे चित्त से अनित्य बोध की प्रज्ञा से प्रजनन की मंगल मैत्री की तरंगे रोगी के मन को सबल बनाने में सहायक होती हैं।
भोक्ता से दृष्टा बनाने में सहायक होती हैं। दोनों और कल्याण का कारण बनती है।
🌻अतः साधक भूलकर भी चिंता की तरंगो का प्रजनन न करे।
प्रज्ञाभरी मंगल मैत्री का ही प्रजनन करे।
असीम कल्याणी है मंगल मैत्री।
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