बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

🌺बढ़े पारमी क्षंंति की 🌺




पारमी अथवा पारमिता कहते हैं परिपूर्णता को। उन सद्गुणों की परिपूर्णता जो कि किसी भी बोधिसत्त्व को संबोधि प्राप्त करने के लिए सामर्थ्य प्रदान करती है, जो कि किसी भी मनुष्य को भव-सागर के पार जाने में सहायिका सिद्ध होती है। दस पारमिताओं में से क्षांति (खन्ति) का, यानी तितिक्षा, सहिष्णुता, सहनशीलता का विशिष्ट महत्त्व है। भव-सागर की उत्ताल तरंगों को धर्म-धैर्य के साथ सहन कर लेना, अप्रिय से अप्रिय हृदय-विदारक घटना के संयोग से भी चित्त को विचलित न होने देना, प्रिय से प्रिय के वियोग पर भी अंतर्तम की समता कायम रखना - यही क्षति पारमी को परिपुष्ट करना है।

जो बोधिसत्त्व अपनी सभी पारमियों को पराकाष्ठा तक परिपूर्ण करके भगवान गौतम के नाम से सम्यक संबुद्ध बने, उन्होंने अनेकानेक पूर्व जन्मों में अपनी क्षांति पारमी परिपूर्ण करने का भी सफल प्रयत्न किया।

🌺पुत्र-वियोग
भव-संसरण के एक जीवन में बोधिसत्त्व वाराणसी के एक ब्राह्मण कुल में जन्मे। बड़े हुए, अपने परिवार के प्रमुख बने । उनके साथ उनकी पत्नी, एक युवा पुत्र, एक युवा पुत्र-वधू, एक युवा पुत्री और एक दासी थी; यों छ: जनों का सुखी परिवार था। परिवार के भरण-पोषण के लिए बोधिसत्त्व नगर के बाहर खेती-बाड़ी करते थे और युवा पुत्र उनका साथ देता था।

सदा की भांति एक दिन वह अपने खेत पर काम कर रहे थे। स्वयं हल चलाने में निमग्न थे, युवा पुत्र खेत का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करके उसे जलाने के काम में लगा था। इतने में कूड़े-कर्कट के ढेर में से एक क्रुद्ध नाग निकला और उसने पुत्र को डस लिया। कुछ ही देर में नाग-विष सारे शरीर में समा गया और किसान का पुत्र बेहोश होकर वहीं गिर पड़ा। बोधिसत्त्व ने दूर से अपने पुत्र को गिरते हुए देखा तो समीप चले आये। परंतु तब तक पुत्र के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। बोधिसत्त्व ने मृत शरीर को उठा कर समीप के एक पेड़ की छांह में लेटा दिया और उसे कपड़े से ढक दिया। बिना व्याकुल हुए वह पुनः हल चलाने के काम में लग गये।

कुछ देर बाद देखा कि खेत के समीप की पगडंडी पर से एक अन्य किसान नगर की ओर जा रहा है। बोधिसत्त्व ने उससे प्रार्थना की कि वह उनकी घरवाली को एक सूचना पहुँचा दे। सूचना यही थी कि घर की जो दासी नित्य दोपहर को पिता-पुत्र का भोजन लेकर खेत पर आया करती थी वह आज केवल एक का ही भोजन लेकर आये । पहले भोजन लेकर अकेली दासी आया करती थी, आज परिवार के सभी लोग स्वच्छ वस्त्र पहन कर, अपने साथ कुछ सुगंधित फूल लेकर आये।

यह सूचना जब राहगीर ने ब्राह्मणी को दी तो वह तत्काल समझ गई कि उसका पुत्र नहीं रहा। परंतु यह दु:खद सूचना पाकर ब्राह्मणी विचलित नहीं हुई। परिवार के अन्य चार जने भी अविचलित रहे और बोधिसत्त्व के आदेशानुसार खेत की ओर चल दिये। उनमें से न तो किसी ने रुदन-क्रंदन किया, न विलाप-प्रलाप ।
बोधिसत्त्व अपने हर जीवन में धर्म का जीवन जीते हुए किसी न किसी पारमी को परिपुष्ट करने का काम करते हैं। वह केवल स्वयं धर्म का जीवन जीकर नहीं रह जाते बल्कि अपने स्वजन-परिजन, मित्र-बंधुओं को भी धर्ममय जीवन जीने की शिक्षा देते हैं। आगे जाकर स्वयं सम्यक संबुद्ध बनने पर उन्हें अनेकों को शुद्ध धर्म के मार्ग पर आरूढ़ करके भव-मुक्ति की ओर बढ़ने का उचित निर्देशन करना होगा, इसलिए हर जीवन में अत्यंत मैत्री चित्त से धर्म-देशना दे सकने का सामर्थ्य भी बढ़ाते हैं। अतः बोधिसत्त्व अपने सारे परिवार को गृहस्थ की जिम्मेदारियां कुशलतापूर्वक निभाते हुए शुद्ध धर्म में प्रतिष्ठित होने का नित्य उपदेश देते थे और स्वयं भी धर्म का जीवन जीकर सबके लिए प्रेरणादायक आदर्श उपस्थित करते थे। उन्होंने अपने परिवार वालों को यही शिक्षा दी थी कि वे शील का पालन करें। प्रसन्न चित्त से यथाशक्ति दान दें। साधना करते हुए चित्त को वश में करके उदय-व्यय का बोध जगा कर चित्त को निर्मल करते रहें। समय समय पर मरणानुस्मृति की भावना सबल करते रहें और निसर्ग के नियमों की यह सच्चाई समझते रहें कि जो जन्मा है, वह देर-सबेर मृत्यु को प्राप्त होगा ही। मृत्यु के चंगुल से एक भी प्राणी नहीं बच सकता। बोधिसत्त्व स्वयं मरणानुस्मृति की साधना में पक गये थे और उन्होंने अपने परिवार वालों को भी पकाया था।

जब परिवार के चारों लोग घर से खेत पर आये तब जिस बात की आशंका थी, वहीं सामने देखी। परंतु युवा पुत्र का मृत शव देख कर न कोई रोया, न किसी ने छाती पीट कर विलाप किया। सब चिता के लिए आसपास लकड़ियां चुनने लगे। थोड़ी देर में चिता तैयार हो गई। सबने मिल कर शव को चिता पर लेटाया। अपने साथ लाये हुए सुगंधित पुष्प उस पर चढ़ाये और चिता आवलित (प्रज्वलित) करके सब उसके समीप बैठ गये।

एक व्यक्ति ये सारी घटनाएं देख रहा था । सब कुछ देख कर वह विस्मय-विभोर हो उठा। समीप आकर उसने किसान से वार्तालाप आरंभ किया। उसने पूछा - - “क्या किसी पशु को जला रहे हो?”
“नहीं, यह पशु नहीं है, मृत मनुष्य का शरीर है जिसे हम जला रहे हैं।” बोधिसत्त्व ने उत्तर दिया।
 “तो यह तुम्हारा कोई दुश्मन रहा होगा ?”
“दुश्मन नहीं, यह मेरा इकलौता पुत्र था।”
तो क्या पुत्र के साथ तुम्हारे संबंध बिगड़े हुए थे?”
“नहीं भाई, नहीं। यह मेरा अत्यंत प्रिय पुत्र था।"
 “तो इस इकलौते प्रिय पुत्र को खोकर तुम रोते क्यों नहीं? विलाप क्यों नहीं करते?"
“जो गया सो गया। जैसे सांप अपनी कंचुली छोड़ कर चल देता है वैसे ही यह भी अपना शरीर छोड़ कर चला गया। अब विलाप करने से क्या मिलेगा? विलाप करने से तो वह वापिस आने वाला नहीं है।”

आगंतुक ने यही प्रश्न मृत युवा की माता से किया। उसने कहा – “पिता का हृदय कठोर हो सकता है, पर तुम तो नौ महीने पेट में पाल कर जन्म देने वाली, स्तन-पान करा कर उसका पोषण करने वाली मां हो। मां का हृदय तो बड़ा कोमल होता है। इकलौता पुत्र खोकर भी तुम क्यों नहीं रोती ?"
इसी प्रकार मृतक की भार्या से भी उसने प्रश्न किया – “तुम्हारा तो सर्वस्व लुट गया। इस कम उम्र में तुमने अपना सुहाग खो दिया। फिर भी तुम रोती क्यों नहीं?”
ऐसा ही प्रश्न उसने मृतक की बहन से किया - “बहन को अपना भाई अत्यंत प्यारा होता है। तुम कैसी बहन हो जो ऐसे भाई को खोकर भी क्रंदन नहीं कर रही ?"
तदनंतर उसने घर की दासी से पूछा- “मृतक व्यक्ति अवश्य तुम्हारे साथ अत्यंत कटुताभरा कठोर व्यवहार करता रहा होगा। इसीलिए तुम उसके मरने पर व्यथित नहीं हो।”
दासी ने कहा- “वह घर का दुलारा अत्यंत मृदुभाषी था। सबके साथ उसका व्यवहार अत्यंत मधुर था। वह सबका प्यारा था। बड़ा होनहार था।”
 “फिर भी कोई नहीं रोया?”

सबका यही उत्तर था- “रोने से किसी को क्या मिलेगा भला? वह बिना बुलाये आया था और बिना आज्ञा लिए चला गया। संसार में जीवन ही (कर्मानुसार) अनिश्चित होता है, मृत्यु तो सबकी निश्चित ही है। अपने कर्मों के अनुसार प्राणी आते हैं और अपने कर्मों के अनुसार चले जाते हैं।
यथागतो तथा गतो, तत्थ का परिदेवना?
- जैसे आया वैसे चला गया, इसके लिए रोना-पीटना क्या ?

जाने वाला चला गया। यह जो निष्प्राण शरीर चिता पर जल रहा है, वह क्या जाने कि हम उसके लिए रो रहे हैं? रोकर हम न अपना भला करते हैं, न किसी और का । रोकर स्वयं भी दुःखी होंगे, औरों को भी दु:खी बनायेगे।
तस्मा एतं न सोचामि, गतो सो तस्स या गति।
- उरगजातकं ३५४/२१-२२...
- जाने वाला अपने कर्मानुसार उसकी जैसी गति है वहां चला गया। इसके लिए हम शोक नहीं करते।"
इस प्रकार बोधिसत्त्व ने इस जीवन में स्वयं अपनी क्षति पारमी बढ़ाई तथा अपनी-अपनी क्षति पारमी बढ़ा सकने में परिजनों के भी सहायक हुए।

🌺पत्नी-वियोग
बोधिसत्त्व के किसी एक जीवन में उनकी अत्यंत रूपवती युवा भार्या रोगग्रस्त होकर काल के गाल में समा गई। लोग उस सुंदर युवती को मृत देख कर व्याकुल हो रहे थे, परंतु बोधिसत्त्व अपनी प्रिय पत्नी के मरण से जरा भी विचलित नहीं थे। ऐसी अवस्था में सामान्य लोग पत्नी-शोक में इतने व्याकुल हो जाते कि न खाते, न पीते, न नहाते, न धोते, न अपने काम-धंधे में लगते, बल्कि श्मसान भूमि का चक्कर लगाते हुए रोते-बिलखते विलाप ही करते रहते।
परंतु बोधिसत्त्व ने ऐसा कुछ नहीं किया। जब लोगों ने कारण पूछा तो उनका यही उत्तर था -

“जिसका स्वभाव टूटने का है वह देर सबेर टूटता ही है। हर प्राणी मरणधर्मा है। यही उसका स्वभाव है। वह मरता ही है। निसर्ग के नियमों के अनुसार यह भी मृत्यु को प्राप्त हुई। इसमें रोना क्या ? जब तक जीवित थी तब तक मेरी कुछ लगती थी। वह मेरी सेवा करती थी और मैं उसकी देखभाल करता था। मरने के बाद वह अपने कर्मानुसार किसी अन्य लोक में जन्मी है। अब वह मेरी क्या लगती है? मैं उसका क्या लगता हूं? रोने से न मेरा लाभ होगा, न उसका ।” यों बोधिसत्त्व ने इस जीवन में भी क्षति पारमी की पुष्टि की।

🌺अग्रज-वियोग
किसी एक जीवन में बोधिसत्त्व एक धनवान गृहस्थ के घर जन्मे । समय पाकर माता-पिता का देहांत हुआ। उनका बड़ा भाई सारा काम-धंधा देखता था। बोधिसत्त्व सहित सारा परिवार बड़े भाई पर आश्रित था। उसी के सहारे सब जीते थे। परंतु शीघ्र ही किसी रोग का शिकार होकर वह भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। बोधिसत्त्व ने धर्म-धैर्यपूर्वक इस आघात को सहन किया। रो-रोकर विलाप करते तो अपनी भी हानि करते और परिवार के अन्य लोगों की भी। अपने मृत भाई को भी कोई लाभ नहीं पहुँचा पाते। अतः क्षांति पारमी का संवर्धन करते हुए वे रुदन-क्रंदन से सर्वथा विमुख रहे। लोगों ने प्रश्न किया तो उन्होंने सबको धर्म समझाकर सांत्वना दी - “सारे प्राणी मरणधर्मा हैं। समय आने पर शरीर खंडित होता ही है। उसके लिए विलाप करना बेमाने है, निरर्थक है।”

🌺पितामह-वियोग
किसी जीवन में बोधिसत्त्व एक धनी गृहस्थ के घर जन्मे । बड़े होने पर उनका दादा काल-कवलित हुआ। बोधिसत्त्व दादा के बिछोह से विचलित नहीं हुए, परंतु उनका पिता अपना धीरज खो बैठा। उसका रुदन-क्रंदन रोके नहीं रुक रहा था। उसने अपने पिता के मृत शरीर का दाहकर्म करके उसके अस्थि-अवशेषों पर एक छतरी बनाई और वहां जाकर नित्य विलाप करता था। बोधिसत्त्व ने अपने पिता को समझाने की बहुत कोशिश की, पर असफल रहे। तब उन्हें एक युक्ति सूझी। वह कहीं से एक मरा हुआ बैल उठवा लाये और उसके सामने हरी-हरी घास और शीतल जल रख कर रुदन करने लगे कि वह फिर से जी उठे और यह आहार ग्रहण कर ले । लोगों ने बहुत समझाया पर वह रुदन ही करते रहे। लोगों ने समझा कि युवक सचमुच पागल हो गया है जो इस मुर्दै बैल को जिंदा करके, आहार खिलाना चाहता है।

पिता ने यह सब सुना तो बहुत घबराया । पितृ-वियोग के शोक को भूल कर अब वह पुत्र के लिए चितित हो उठा कि ऐसा समझदार युवक पागल कैसे हो गया? उसने अपने पुत्र को समझाना चाहा कि रोना निरर्थक है। यह मरा हुआ बैल पुनः जी नहीं सकता। यह सुन कर बोधिसत्त्व ने कहा- “पिताजी, देखिये इस बैल के तो सिर, मुँह, पेट, पांव आदि सारे अंग कायम हैं और प्रत्यक्ष दीख रहे हैं। मेरे रोने से यह अवश्य जी उठेगा। आप पितामह के लिए रोते हो जिनका सारा शरीर जल चुका, कुछ हड्डियां मात्र बची हैं। यदि आपके रोने से ये हड्डियां जी उठेगी तो मेरे रोने से यह मरा बैल क्यों नहीं जी उठेगा?" यह सुन कर पिता का होश जागा । इस प्रकार बोधिसत्त्व ने अपनी क्षति पारमी बढ़ाई और पिता को भी धर्म का बल प्रदान किया।

🌺पिता-वियोग
अनगिनत भव-संसरण की एक भव-श्रृंखला में बोधिसत्त्व दशरथ-पुत्र राम बन कर जन्मे। पिता के आदेश पर उन्होंने राज्य त्याग कर सीता और लक्ष्मण सहित वन-गमन किया। कुछ समय के बाद पिता की मृत्यु हो गई और भरत उन्हें आग्रहपूर्वक वापिस राजधानी ले आने के लिए वन में पहुँचा। बोधिसत्त्व राम को जब पिता के मरने की सूचना मिली तो वे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। उस समय लक्ष्मण और सीता फल-फूल चुनने के लिए बाहर गये हुए थे। राम जानते थे कि उन दोनों का हृदय बहुत कोमल है। यह दु:खद समाचार सुन कर वे व्याकुल, व्यथित हो उठेगे। अतः उनके लौट आने पर राम ने बहुत यत्नपूर्वक यह कटु संवाद सुनाया जिससे कि वे उस दुःख को सह सके, परंतु वे दोनों अत्यंत विकल हो उठे। भरत तथा उसके साथ आया हुआ सारा राजपरिवार तो रुदन-क्रंदन कर ही रहा था। क्षति पारमिता के धनी बोधिसत्त्व राम ने सबको धीरजभरी धर्मदेशना दी और समझाया –

“बहुत विलाप करके भी हम मृत पिता को जीवित नहीं कर सकते। प्रिय-वियोग के समय रुदन-क्रंदन से यदि किसी का भला होता हो तो हम सबको अवश्य रोना चाहिए, परंतु इससे तो अपनी तथा औरों की हानि ही होती है। रोने वाला अपने आपके प्रति हिंसा करता है, औरों का रुदन बढ़ा कर उनके प्रति भी हिंसा करता है। रोने-पीटने से मृत व्यक्ति को भी कोई लाभ नहीं होता। अतः रोना निरर्थक है । समझदार आदमी को चाहिए कि ऐसे समय मन में दु:ख जागते ही उसे तुरंत दूर कर दे, ठीक वैसे ही जैसे कि घर में आग लगने पर उसे तुरंत बुझा दिया जाता है।”

बोधिसत्त्व राम के धर्मोपदेश से सबका रुदन-क्रंदन रुका। इस प्रकार बोधिसत्त्व ने अपनी क्षति पारमी का संवर्धन किया, तथा औरों को भी क्षति-धर्म सिखाया। (जातक कथाओं में से)

साधको, जीवन में अनचाही घटना घटती ही रहती है। प्रिय व्यक्ति, वस्तु, स्थिति से वियोग होता ही रहता है। बोधिसत्त्व के अनेक जन्मों के अनुभवों से हम लाभान्वित हों और सहिष्णुता की पारमी का संवर्धन कर अपना कल्याण साध लें।

कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

('विपश्यना' वर्ष 24, अंक 8, माघ पूर्णिमा, 15-2-1995 से साभार)
नवम्बर 2015 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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