बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

एक ज‍िज्ञासा - क्या ईश्वर है

यह जिज्ञासा लगभग सभी के मन में समायी रहती है कि वह कौन है जो जन्मने पर हमारी मृत्यु निश्चित करता है और मरने पर पुनर्जन्म देता है? अधिकतर लोग उसे ईश्वर के रूप में मानते हैं। वह ईश्वर है जो हमें जन्म देता है और मृत्यु तक पहुँचाता है और फिर जन्म देता है। बुद्ध के पहले भी ऐसे प्रश्न उठते थे, बुद्ध के समय भी और बुद्ध के बाद भी। बुद्ध के बाद का एक भारतीय संत कहता है - ‘पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्। वह औरों की तरह अपने परमात्मा, मुरारि से प्रार्थना करता है-- ‘पाहि मुरारे... -- मुझे इस भव-संसरण से बाहर करो।

बुद्ध ने भी इस सच्चाई को जानने के लिए, इस समस्या के समाधान के लिए कई जन्मों में बहुत समय बिताया कि वह कौन है जो हर मृत्यु के बाद नया जन्म देता है। अंततः जब सम्यक संबोधि जागी तब तो सब स्पष्ट हो गया कि पुनर्जन्म कोई नहीं देता। हम स्वयं अपने लिए पुनर्जन्म की तैयारी करते रहते हैं। हमारे मानस में जितने भी कर्म-संस्कारों के बीज हैं, उनमें का हर बीज अपना फल लेकर आता है। मृत्यु के समय कोई न कोई बीज प्रमुख होकर हमारे लिए एक नया जन्म खड़ा कर देता है। संबोधि से यह बात स्पष्ट हुई कि मैंने अपने पुनर्जन्म को समाप्त कर दिया है। जिन कर्म-बीजों से यह पुनर्जन्म होता है, उन्हें नष्ट कर दिया है। नया-नया घर बनाने वाले को न जाने कब से खोज रहा था। अब स्पष्ट हो गया कि मेरे भीतर एक भी पुराना कर्म-बीज नहीं रहा और नया कर्म-बीज बनाने की तृष्णा नहीं रही। अतः स्पष्ट हो गया कि मैं ही अपना घर बनाता रहा हूं, अन्य कोई मेरा नया घर बनाने वाला नहीं है। जब पुनर्जन्म के बीज समाप्त हो गये तब कहा - 'नथिदानि पुनभवोति' - अब नया जन्म नहीं होगा। 'अयं । अन्तिमा जाति' - यह अंतिम जन्म है।

खोज पूरी हो गयी। जब तक किसी अन्य को नया जन्म देने वाला मानता था और मानता था कि वही मेरे लिए नये-नये घर बना कर तैयार रखता है, वह ईश्वर ही है। अब यह भ्रम दूर हुआ। 'मैं ही मेरा ईश्वर हूं, अन्य कोई नहीं है।

प्रकृति ही ईश्वर है, अन्य कोई नहीं। प्रकृति के नियमों के अनुसार 'जैसा बीज वैसा फल' सबको मिलता है। कोई चाहे कि मैं बीज तो नीम का डालूं, परंतु फल उसमें मीठे आम के लगें, तो यह असंभव है। जैसा बीज है, वैसा ही फल होगा। ऐसे ही जैसे हमारे कर्म-बीज हैं, वैसे ही कर्म-फल होंगे। मृत्यु के समय हमारे संचित कर्म-बीजों में से कोई एक निम्न कोटि का बीज प्रबल होकर आगे आता है और हमें अधोगति का फल देता है। अधोगति के फल देने वाले बीज समाप्त हो जायें तो किसी ऊर्ध्वगति के बीज से हमें ऊर्ध्वलोक का फल मिलता है। यह प्रकृति का बँधा-बँधाया अटूट नियम है। इसमें किसी मुरारि की कृपा नहीं काम करती। बुद्ध हो जाने पर अधोगति के ही नहीं बल्कि ऊर्ध्वगति के भी सारे कर्म-बीज नष्ट हो गये, कोई फल देने वाला नहीं बचा। ऐसी अवस्था में सारे रहस्य स्पष्ट हो गये । यही बुद्ध की संबोधि थी।

बुद्ध स्वयं भी इस खोज में बहुत भटके। अनेक जन्मों में इसकी खोज करते रहे कि मरने के बाद मेरे लिए नया-नया घर बना देने वाला वह कौन है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-- ‘अनेकजातिसंसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं' - अनेक जन्मों में बिना रुके संधावन करते रहा। 'गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं' -- घर बनाने वाले की खोज में बार-बार दुःखमय जन्म लेता रहा। 'गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि'-- हे गृहकारक! मैंने तुझे देख लिया है। अब तू मेरे लिए कोई घर नहीं बना सकता!
‘सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं ।
विसङ्घारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा ॥

-- घर बनाने की सारी कड़ियां भग्न हो गयीं, घर का शिखर विशृंखलित हो गया यानी इस पुनर्जन्म का रहस्य समझ में आ गया। हे घर बनाने वाले! अब तु मेरे लिए नया घर नहीं बना सकता। क्योंकि मैंने अपने भीतर कर्म-संस्कारों के सारे बीज विपश्यना द्वारा समाप्त कर लिये और अब तृष्णा बची ही नहीं, जिससे कि नये संस्कार बनें । इसके बाद न पुराने शेष रहे और न नये बन सकेंगे। कर्म-बीज ही नहीं रहा तो कर्म-फल कहां से आयेगा?

इस मुक्त-अवस्था में सारा रहस्य स्पष्ट हो गया। अब किसी मुरारि से प्रार्थना करने की जरूरत नहीं जो किसी को भव-संसरण से मुक्त कर दे। अब यह स्पष्ट हो गया कि -- 'अपनी मुक्ति अपने हाथ'। जब सारे पुरातन कर्म-संस्कार विपश्यना द्वारा नष्ट कर दिये जायें और नये संस्कार बनाने वाली तृष्णा का नामोनिशान नहीं रहे, ऐसी अवस्था में पुनर्जन्म का कोई अर्थ ही नहीं । अतः ईश्वर के नाम की कल्पना और उससे की गई प्रार्थना दोनों ही निरर्थक हैं, बेमानी हैं।

जब भगवान बुद्ध की यह वाणी प्रसिद्ध होने लगी तो पुरोहितों की धरती हिल गयी। अब तक वे किसी परमात्मा की प्रार्थना करना सिखाते थे, जो कि उन्हें भव-संसरण से मुक्त कर दे। परंतु बुद्ध के अनुसार ऐसा न तो परमात्मा है, न अन्य कोई उन्हें भव-संसरण से मुक्त कर सकता है। बुद्ध की इस घोषणा ने पुरोहितों की धरती हिला दी। क्या करते? बड़े-बड़े यज्ञ स्थापित करके अपने लिए अपार धन प्राप्त करने की योजनाएं समाप्त हो गयीं। जब ईश्वर ही नहीं है तो कोई क्यों उनसे यज्ञ करायेगा और क्यों बड़ी दान-दक्षिणा देगा? तब उन्होंने एक पासा फेंका और एक चाल चली। बुद्ध को ही ईश्वर बना दिया। यानी बुद्ध को ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया। इस सफेद झूठ के कारण अनेक लोग सच्चाई से विचलित हो गये। परंतु जो बचे रहे, वे इस भ्रम में नहीं उलझ पाये ।

बुद्ध-विरोधी लोगों में इस बात का दुःख रहा कि सम्यक सम्बुद्ध के इतने स्पष्ट विवेचन द्वारा यह सिद्ध हुआ कि पुनर्जन्म देने वाला कोई ईश्वर नहीं है। यह प्रकृति ही है जो अपने नियमों के अनुसार काम करती है। उन्हें इस बात का दुःख रहा कि बुद्ध को ईश्वर का अवतार बता कर ईश्वरवाद को कायम रखने का जो मिथ्या प्रयत्न किया जा रहा था, उसका उन्हें कोई मनोवांछित परिणाम नहीं मिला। जो लोग समझदार थे, उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली।

कांची कामकोटि पीठ के जगद्गुरु श्री जयेन्द्र सरस्वती से इस पर चर्चा हुई। वे उदार वृत्ति के संत पुरुष हैं। उन्होंने यह भूल तुरंत स्वीकार कर ली और मेरे साथ जो समझौता किया गया उसमें पहली बात यही रखी गयी कि बुद्ध किसी ईश्वर के अवतार नहीं थे। उनकी उदार दृष्टि और वास्तविकता को समझ कर अन्य तीनों पीठासीन जगद्गुरु शंकराचार्यों - श्री भारती तीर्थ महास्वामी, शृंगेरी पीठाधीश्वर, श्री स्वरूपानंद सरस्वती महाराज, द्वारका शारदा पीठाधीश्वर और श्री विद्यानंद गिरि महामंडलेश्वर, कैलास आश्रम पीठाधीश्वर ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया।

इतना होने पर भी किसी के मन में यह भ्रम रहे कि बुद्ध ईश्वर के अवतार थे, तो यह झूठी मान्यता कहां तक चलेगी?

बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया तो अब पूजा करने वाले किसकी पूजा करेंगे? बुद्ध स्वयं अपने आपको ईश्वर मानने के सर्वथा विरुद्ध थे। बुद्ध ने एक बात अपने शिष्यों को बार-बार दोहरायी कि मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता। तुम्हें स्वयं अपना जीवन सुधारना है। मैं मुक्तिदाता नहीं हूं, केवल मार्ग-आख्याता हूं। मैंने मार्ग बता दिया। अब उस पर चलना तुम्हारा काम है। फिर भविष्य के लिए तुम्हारे द्वारा किये गये अच्छे काम ही अच्छे फल लायेंगे। काम तुम्हें करना है। मैं तो मार्ग आख्यात करने वाला हूँ -- 'तुम्हेहि किच्चमातप्पं, अक्खातारो तथागता’ । बुद्ध की इस घोषणा ने बुद्ध-विरोधी सभी पुरोहितों को हिला दिया।

अगर ईश्वर की प्रार्थना नहीं करें तो अन्य छोटे-मोटे देवी-देवताओं की ही प्रार्थना करके अपनी इच्छा पूर्ति कर लें । परंतु जब स्वयं काम करना है और जब हमारी मनचाही कर देने वाला कोई है ही नहीं, तब हम किसकी पूजा करें, किसकी प्रार्थना करें? जब बुद्ध ने कह दिया कि तुम्हारी इच्छाओं की। पूर्ति कोई दूसरा नहीं कर सकेगा। भव-संसरण से छुटकारा पाने के लिए तुम्हें स्वयं विपश्यना द्वारा अपने अधोगति और ऊर्ध्वगति के सारे कर्म-बीजों को समाप्त करना होगा। आगे नया कर्म-बीज बनाओगे नहीं तो भव-संसरण से स्वतः मुक्ति मिल जायगी। इस घोषणा से छोटे-बड़े सभी पुरोहितों की धरती हिल गयी।

'न कोई ईश्वर है जो हमें मुक्त कर देगा और न छोटे-मोटे देवी-देवता हैं, जो हमारी इच्छाओं की पूर्ति कर देंगे'-- इन दो वक्तव्यों के कारण बुद्ध को घोर नास्तिक ठहराया गया। फिर भी उनकी शिक्षा फैलती ही गयी, क्योंकि वह सार्वजनीन शिक्षा थी। वह कोई संप्रदाय नहीं था, क्योंकि बुद्ध ने कोई संप्रदाय स्थापित नहीं किया। बुद्ध ने धर्म सिखाया और जो सिखाया, वह सार्वजनीन था, सबके लिए समान रूप से उपकारी था। सदाचार का जीवन जीना, मन को बिना किसी बाहरी आलंबन के एकाग्र करना और भीतर जो कुछ महसूस हो रहा है, उस सत्य को ही समता के भाव से देखना - यह मार्ग सबके लिए अनुकूल था। और फैलता ही गया। क्योंकि सच्चाई तो सच्चाई है। बुद्ध को नास्तिक कह देने से  सांसारिक सच्चाई झूठी नहीं हो सकती।

अब इस जिज्ञासा की पूर्ति हो गयी कि अपना घर बनाने के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कोई दूसरा हमारे लिए नया घर नहीं बनाता। मिथ्यादृष्टि दूर हुई, सही ज्ञान जागा। बुद्ध की शिक्षा का यह मकसद कि हर व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं जिम्मेदार है पूरा हुआ। जब तक कर्म-बीज हैं, तब तक नया-नया घर बनता रहेगा। विपश्यना द्वारा सारे कर्म-बीज समाप्त कर लें तो नया घर नहीं बन सकेगा। इसके पहले अपने ईष्टदेव से प्रार्थना करता रहा कि मेरे काम, क्रोध, लोभ, मोह को दूर करो, इनसे छुटकारा दिलाओ। रोज-रोज गीली आंखों से प्रार्थना करता रहा, परंतु कोई देवी-देवता मेरे लिए कुछ नहीं कर सका। अब विपश्यना ने मेरे मन की मुराद पूरी की। एक बड़ी जिज्ञासा पूरी हुई। मेरा कल्याण हुआ। इसी में सबका कल्याण समाया हुआ है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

मई 2013 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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