अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, बुद्ध के निर्वाण धातु , धम्म धातु, बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।
अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, धम्म के निर्वाण धातु , ज्ञान धातु , बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।
अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, संध के निर्वाण धातु , धम्म धातु , बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।
सामुहिक साधना सत्र के समापन एवं मंगल मैत्री के पूर्व के समय
अनिच्चा वत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरूज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखो।।
(अर्थ- सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु , व्यक्ति अनित्य ही तो है। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना , यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपस्सना साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न होकर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है - पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, उसी का नाम परमसुख है , वही निर्वाण सुख है।)
अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।
गहकारक दिट्ठोसि , पुन गेहं न काहसि।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं।
विसंङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगाति।।
(अर्थ- अनेक जन्मो तक बिना रूके संसार में दौड़ता रहा। (इस कायारूपी) घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुख:मय जन्म में पड़ता रहा है।
हे गृहकारक ! अब तू देख लिया गया है! अब तू पुन: घर नहीं बना सकेगा! तेरी सारी कड़िया भग्न हो गई है। घर पर शिखर भी विशृंखलित हो गया ह। चित्त संस्कार रहित हो गया है, तृष्णा का समूल नाश हो गया है।)
सब्बे सङ्खारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।
अथ निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया।।
(अर्थ- सभी संस्कृत (बनी हुई चीजें ) अनित्य है जब कोई प्रज्ञा से यह देख लेता है, तो सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। ऐसा है या चित् विशुद्धि का मार्ग।)
सब्बेसु चक्कवाळेसु, यक्खा देवा च ब्रह्मुनो।
यं अम्मेहि कतं पुञ्ञं, सब्बसम्पत्ति साधकं।।
(अर्थ- सभीचक्रवालों के यक्ष देव और ब्रह्मा हमारे द्वारा किये सर्वसंपत्ति साधक पुण्य का अनुमोदन करें।)
सब्बे तं अनुमोदित्वा, समग्गा सासने रता।
पमादरहिता होन्तु, आरक्खासु विसेसतो।।
(अर्थ- और वे समग्र रूप में शासन में रत हो विशेष कर बुद्ध शासन की रक्षा में प्रमादरहित होवें।)
पुञ्ञभागमिदं चञ्ञं सम ददाम कारितं।
अनुमोदन्तु तं सब्बे, मेदनी ठातु सक्खिके।।
(अर्थ- इस परित्राण पाठ से अर्जित पुण्य को तथा अन्य पुण्यों को भी हम समान रूप से वितरित करते हैं। सभी (यक्ष देव और ब्रह्मा) इसका अनुमोदन करें और पृथ्वी साक्षी रहे।)
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