शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

🌹धन्य विपश्यना 🌹

🌹धन्य विपश्यना 🌹
तथागत की शिक्षा के दो भाग हैं -
1. परियत्ति, संपूर्ण पालि (धम्म) वाङ्मय यानी, तिपिटक, अट्ठकथा एवं टीकाओं का अध्ययन।
2. पटिपत्ति, शिक्षा का प्रयोगात्मक पक्ष - विपश्यना, यानी शील, समाधि, प्रज्ञा के आर्य आष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन। इस प्रयोगात्मक पक्ष से ही मेरा कल्याण आरंभ हुआ तथा पिछले 41 वर्षों में भारत तथा विश्व भर में अनेकों का कल्याण हुआ है।
मेरा अनुभव –
बुद्ध की शिक्षा के प्रति अनेक भ्रांत मान्यताओं से भ्रमित मैं विपश्यना का शिविर लेने के लिए तैयार नहीं था। परंतु मेरे परम मित्र और स्वतंत्र म्यंमा के प्रथम अटार्नी जनरल ऊ छान ठुन के आग्रह पर मैं विपश्यना के आचार्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मिलने गया । वे स्वतंत्र बर्मा के प्रथम अकाउंटेंट जनरल थे। मिलने पर मेरी झिझक का सही अंदाज लगाते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, क्या तुम्हारे हिंदू धर्म में सदाचार का विरोध है ? मैंने कहा, हमारे हिंदू धर्म में ही नहीं, बल्कि विश्व के सभी धर्मों में सदाचार की स्वीकृति है। इसमें विरोध हो ही कैसे सकता है! फिर उन्होंने कहा कि वे शिविर में मूलतः शील, सदाचार का ही अभ्यास कराते हैं, परंतु इसके लिए मन को वश में करना सिखाते हैं, जिसे समाधि कहते हैं। इसका भी मुझे क्या विरोध होता! मैंने सोचा कि हमारे धर्मग्रंथों में अनेक ऋषि-मुनियों द्वारा वन में जाकर समाधि लगाने का वर्णन भरा पड़ा है। अतः मुझ जैसे गृहस्थ को समाधि लगानी सिखायी जाय तो इसमें क्या विरोध हो भला?
इस पर उन्होंने कहा- केवल समाधि पर्याप्त नहीं है। इससे केवल मानस के ऊपरी-ऊपरी हिस्से के विकारों की सफाई होती है। और कुछ समय के लिए शांति अनुभव होती है। जबकि अंतर्मन की गहराइयों में विकारों की जड़ें समायी रहती हैं। इन्हें निकालने के लिए हम प्रज्ञा सिखाते हैं। इससे तुम्हें कोई एतराज है? मैं क्या एतराज करता! काम, क्रोध और अहंकार के दुखदायी विकारों से छुटकारा पाने के लिए ही मैं अपने ईष्टदेव श्रीकृष्ण से वर्षों तक प्रतिदिन अश्रुपूर्ण प्रार्थनाएं करता रहा हूं। परंतु ऐसी प्रार्थना के बाद एकाध घंटे तो लगता है कि मेरा मन स्वच्छ और शांत हुआ, परंतु फिर वैसे-का-वैसा। यदि मुझे इन विकारों से नितांत मुक्ति पाने के लिए प्रज्ञा का अभ्यास कराया जाय, तो इसका कैसे विरोध करता!
वैसे भी प्रज्ञा के प्रति मेरे मन में सदा गहरा आकर्षण रहा। रंगून के भारतीय समाज में समय-समय पर हिंदू धर्म पर जब कभी मेरे प्रवचन होते थे तब मैं गीता की स्थितप्रज्ञता का ही विशद वर्णन किया करता था। स्थितप्रज्ञता पर विश्लेष्णात्मक प्रवचन देकर बहुत संतोष होता था। परंतु जब घर लौटता तब बहुधा मन में उदासी छा जाती कि मैं स्थितप्रज्ञता पर प्रवचन देता ही क्यों हूं? जबकि मेरे भीतर प्रज्ञा का नामोनिशान नहीं है। अतः अब जब यह सुना कि गुरुदेव केवल शील, समाधि ही नहीं, बल्कि प्रज्ञा की साधना भी सिखायेंगे। साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि शील, समाधि, प्रज्ञा को छोड़ कर वे कुछ और नहीं सिखाते । केवल समाधि पर्याप्त नहीं है। इससे केवल मानस के ऊपरी-ऊपरी हिस्से के विकारों की सफाई होती है और कुछ समय के लिए शांति अनुभव होती है। जबकि अंतर्मन की गहराइयों में विकारों की जड़े समायी रहती हैं। इन्हें निकालने के लिए हम प्रज्ञा सिखाते हैं।...
उन्होने बताया कि भगवान बुद्ध ने भी केवल यही सिखाया और कुछ नहीं। उन्होंने कहा कि इस साधना द्वारा मन में जैसे-जैसे निर्मलता आती जायगी, वैसे-वैसे मैत्री, करुणा और सद्भावना के गुण स्वतः जाग्रत होते जायँगे। यह सुन कर मैं आश्वस्त हुआ कि भगवान बुद्ध की शिक्षा के बारे में जो अनेक अप्रिय बातें सुन रखी थीं, उनकी यहां कोई चर्चा ही नहीं होगी । दस दिनों तक केवल शील, समाधि, प्रज्ञा का व्यावहारिक पक्ष ही सिखाया जायगा। यह आश्वासन प्राप्त कर मैंने शिविर में सम्मिलित होने का निर्णय किया। । शिविर में सम्मिलित होने के बाद ही बात समझ में आयी कि अपने यहां प्रज्ञा की चर्चा तो बहुत है, जो कि सुनने और पढ़ने में बहुत प्रिय लगती है, परंतु सक्रिय साधना के अभाव में इसका कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलता। बुद्धिरंजन भले हो जाय।
मुझे विपश्यना से लाभान्वित हुआ देख कर मेरे अनेक सनातनी और आर्यसमाजी मित्रों ने भी शिविरों में भाग लिया। उनकी भी समझ में आया कि केवल श्रवण और चिंतन-मनन से प्रज्ञा के प्रति आकर्षण तो अवश्य होता है परंतु -
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ गीता २-५६.
वीतराग, वीतभय और वीतक्रोध की अवस्था प्राप्त न हो तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ ?
शील, समाधि, प्रज्ञा अनेक परंपराओं में स्वीकृत है, परंतु अभ्यास के बिना निष्फल रहती है। मैंने देखा कि गुरुजी के यहां केवल बुद्ध की परंपरा के लोग ही नहीं, बल्कि अन्य परंपराओं के लोग भी सम्मिलित होकर संतुष्ट प्रसन्न हुए हैं।
मुझे याद है कि अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक और पादरी डॉ. किंग शिविर लेने बैठा तब बुद्ध, धम्म और सङ्घ की शरण लेने से उसने मना कर दिया और कहा कि इससे तो मैं बौद्ध बन जाऊंगा। इसके बजाय मैं जीसस क्राइस्ट की शरण लूंगा। गुरुदेव हँसे और उन्होंने कहा – ठीक है, जीसस क्राइस्ट की ही शरण ली लेकिन उनके गुणों को याद करके उन्हें अपने जीवन में धारण करने का व्रत लो। त्रिरत्नों की शरण भी इसी उद्देश्य से ली जाती है। उसने बड़े मनोयोग से काम किया तो लाभ होना ही था। शिविर पूरा होने पर उसने गुरुदेव से क्षमायाचना की कि आरंभ में नासमझी के कारण उसने जो गुस्ताखी की थी, वह सचमुच बेमाने थी। आपने मुझे विपश्यना द्वारा बौद्ध संप्रदाय में दीक्षित नहीं किया, परंतु बुद्ध की महान शिक्षा सिख़ा कर सच्चा धार्मिक बनने का मार्ग दिखाया। मैं धन्य हुआ। मैं आपका आभारी हूँ!
इसी प्रकार रंगून यूनिवर्सिटी का एक मुस्लिम प्रो० ऊ सां म्यि भी विपश्यना द्वारा इतना प्रभावित हुआ कि उसने बुद्धवाणी का गहन अध्ययन किया और माता विशाखा के जीवन पर एक वृहत पुस्तक लिखी जो बहुत प्रसिद्ध हुई। मेरा एक व्यापारी मुस्लिम मित्र भी विपश्यना में सम्मिलित होकर अत्यंत लाभान्वित हुआ।
गुरुजी बार-बार दुहराते थे कि शील, समाधि और प्रज्ञा का अभ्यास करना ही बुद्ध की सही शिक्षा है। अतः इसका पालन करने वाला जो भी हो, वह सच्चे अर्थों में बुद्धानुयायी ही है। दूसरी ओर जिन्होंने इसका रंचमात्र भी अभ्यास नहीं किया, वे अपने आपको भले बौद्ध कहते रहें और किसी बुद्ध-मंदिर में जाकर पूजा-पाठ करते रहें, परंतु सही माने में वे बुद्धानुयायी कहलाये जाने योग्य नहीं हैं। वे भ्रांत हैं, दया के पात्र है।
भारत आने पर मैंने गुरुदेव से जो सीखा था, वही यहां सिखाना आरंभ किया और धीरे-धीरे सभी संप्रदायों के लोग शिविरों में सम्मिलित होने लगे। इसका एकमात्र कारण यही रहा कि वीतराग का लक्ष्य रखने वाले जैन समाज के लोगों को स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि वीतराग होना बहुत उत्तम है, परंतु इसे वास्तव में प्राप्त करने की सक्रिय साधना हमारे यहां नहीं है। उन्हें यह भी स्पष्ट हुआ कि वीतराग होने का उद्देश्य विपश्यना के अभ्यास से ही पूरा हो सकता है। इसी कारण हजारों की संख्या में जैन मुनि, साध्वियां और गृहस्थ शिविरों में सम्मिलित होने लगे।
इसी प्रकार ईसाइयों की मान्यता में मैत्री, करुणा और सद्भावना का उद्देश्य सर्वोत्तम है। परंतु केवल मान्यताओं से और प्रार्थनाओं से यह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। जबकि विपश्यना के अभ्यास से यह सहज संभव होने लगा तब हजारों की संख्या में ईसाई पादरी, साध्वियां और उनसे भी अधिक गृहस्थों ने शिविरों में भाग लिया और अन्य अनेक भी निरंतर बड़ी संख्या में भाग लेते जा रहे हैं।
अनेक खालसा पंथ के लोगों ने देखा कि आदि सचु, जुगादि सचु, है भी सचु, नानक होसी भी सचु।... तथा किव सचिआरा होईए किव कूड़े तुटै पालि ।... तथा थापिया न जाइ, कीता न होइ, आपे
आपि निरंजनु सोई।... जैसी गुरुवाणी का प्रत्यक्ष अनुभव ही विपश्यना द्वारा होता है। इसी कारण इतनी बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग भी विपश्यना में सम्मिलित होने लगे।
मुस्लिम समाज की यह मान्यता कि --- मन अरफ़ नफ़स हूँ। फकत अरफ रब्ब हू। यानी जो अपनी सांस को देख लेता है, अपने शरीर को और अपने आप को देख लेता है, वह रब्ब को यानी अल्लाह को देख लेता है। “हाशिम तिण्हा रब्ब पछाता, जिण्हा अपणा आप पछाता ।” - जिसने अपने आपको जान लिया, उसने रब्ब को जान लिया, यानी अल्लाह को जान लिया। इनका यह वास्तविक अर्थ विपश्यना के शिविर में कायानुपश्यना करते हुए ही समझ में आता है। इसी कारण बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग भी शिविरों में आने लगे और लाभान्वित होने लगे।
इसी प्रकार भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अनेक अनुयायियों ने भी विपश्यना में सम्मिलित होकर यह समझ लिया कि शील, समाधि, प्रज्ञारूपी आर्य अष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन करके ही कोई भगवान बुद्ध का कुशल अनुगामी बन सकता है। बाबासाहेब का भी यही स्वप्न था कि भारत तथा विश्व के सभी लोगों के बुद्धानुयायी होने पर ही उनका सही माने में कल्याण होगा। उनके इस महत्त्वपूर्ण स्वप्न के पूरा होने की प्रारंभिक अवस्था देख कर ही। उनके अनेक बुद्धिमान भक्त विपश्यना के शिविरों में आने लगे।
इसी प्रकार संसार के जितने संप्रदाय हैं उनके प्रमुख लोगों ने विपश्यना के अभ्यास से यह समझा कि धर्म का वास्तविक अभ्यास किये बिना सही लाभ नहीं होगा। विपश्यना में यही अभ्यास समाया हुआ है। इसीलिए विश्व का ऐसा कोई संप्रदाय नहीं है जिसके अनुयायी विपश्यना से लाभान्वित न हो रहे हों।
विश्व के लाखों साधक विपश्यना पाकर धन्य हुए और विपश्यना इन्हें पाकर धन्य हुई। भगवान बुद्ध की यह व्यावहारिक शिक्षा ‘विपश्यना' सारे विश्व में फैले और सब का मंगल हो! सब का कल्याण हो! सबकी स्वस्ति-मुक्ति हो!
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयनका
विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org


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