शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

🌹उत्तराधिकारी कौन ?🌹

🌹उत्तराधिकारी कौन ?🌹
🌷Who is a successor?🌷
किसी पिता के एक या अधिक संतान हों तो वे सब उसके उत्तराधिकारी होते हैं। उसकी धन-दौलत, जायदाद के मालिक होते हैं। उसे बढ़ाते हैं या गॅवाते हैं।
लेकिन धर्म के क्षेत्र में ऐसा कदापि नहीं होता। भगवान बुद्ध से जिन्होंने विपश्यना सीखी और उसे फैलाया, वे सब उनके उत्तराधिकारी बने। उन उत्तराधिकारी शिक्षकों ने औरों को विपश्यना सिखा कर, उसमें प्रवीण करके, उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर इन सभी उत्ताधिकारियों ने धर्म सिखाया। सम्राट अशोक के समय भिक्षु सोण और उत्तर हुए। वे भगवान का धर्म सीख कर उनके उत्तराधिकारी हुए और इसी रूप में धर्म सिखाने के लिए म्यंमा गये। वहां सामान्य लोगों को धर्म सिखाने के साथ-साथ उन्होंने कुछ ऐसे शिष्य तैयार किये जिन्होंने भगवान के उत्तराधिकारी के रूप में इस गुरु-शिष्य परंपरा को कायम रखा।
भगवान बुद्ध ने कभी अपने पुत्र राहुल को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। आगे जाकर गुरु नानकदेवजी ने अपने शिष्य अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बनाया, न कि अपने पुत्र को। धर्म के क्षेत्र में उत्तराधिकारी वही होता है जो अपने गुरु से धर्म सिखाने की विद्या प्राप्त करके उसे सिखाने लगता है। यह गुरु-शिष्य परंपरा पिछले ढाई हजार वर्षों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहेगी।
गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मैंने विपश्यना साधना, यानी, शुद्ध धर्म सीखा और उनकी उत्कट अभिलाषा को पूरी करते हुए भारत आकर लोगों को धर्म सिखाने लगा। रंगून रहते हुए 14 वर्षों तक मैं उनके संपर्क में रहा और देखा कि न जाने कितनी बार उन्होंने इन शब्दों का उच्चारण किया होगा, 'भारत से हमें विपश्यना के रूप में अनमोल रत्न मिला। परंतु आज भारत इस रत्न को खोकर कंगाल हो गया है। इसे पुनः भारत ले जाकर हमें भारत का कर्ज चुकाना है। यह कर्ज और कौन चुका पायेगा भला! मैं ही चुकाऊंगा।" उन्हें ही भारत आकर अनमोल कर्ज चुकाना था।
वे स्वयं भारत आकर यहां विपश्यना का पुनर्जागरण करना चाहते थे, परंतु उन दिनों बर्मी नागरिकों को दो कारणों से ही पासपोर्ट दिया जाता था -- या तो वे बर्मा छोड़ कर सदा के लिए चले जायें या उन्हें कहीं बाहर नौकरी मिल रही हो । सयाजी ऊ बा खिन न तो सदा के लिए बर्मा छोड़ना चाहते थे और न ही भारत आने के लिए किसी झूठी नौकरी का सहारा लेना चाहते थे। अतः सरकार ने उन्हें पासपोर्ट नहीं दिया और वे भारत नहीं आ सके। परंतु एक अत्यंत विशिष्ट कारण से सौभाग्यवश मुझे बर्मा का पासपोर्ट मिला। मेरी माता बम्बई (मुंबई) में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी और मैं जानता था कि यदि वह विपश्यना कर लेगी तो स्वस्थ हो जायगी। बर्मी केबिनेट में मेरे दो घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने मेरा पुरजोर समर्थन किया और इस विशेष कारण से मुझे पासपोर्ट मिल गया।
गुरुदेव इस घटना से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं स्वयं भारत का कर्जा नहीं चुका सकता, परंतु अब यह काम मेरी ओर से तुम्हें करना होगा। उनसे विपश्यना विद्या में पारंगत होकर मैं भारत आया और गुरुदेव के इस उद्देश्य की पूर्ति में लग गया। अतः धर्म के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार मैं गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन का उत्तराधिकारी हुआ । मैंने भारत में अनेकों को विपश्यना की शिक्षा दी और कुछ को आचार्य पद पर स्थापित किया। जो आचार्यपद पर स्थापित हुए वे विपश्यना सिखाते हुए मेरे उत्तराधिकारी हुए। यों गुरुदेव के सपनों को साकार होते देख कर मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। बर्मा पर भारत का जो कर्जा था, उसे चुकाने का काम आरंभ हुआ।
आगे जाकर विपश्यना के अनेक केंद्र बने और शनैः शनैः भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में केंद्र बनते गये। जहां-जहां ये केंद्र स्थापित हुए, वहां उन सभी केंद्रों में प्रशिक्षण देने वाले आचार्य मेरे उत्तराधिकारी ही हैं। क्योंकि मैंने उन्हें जो विपश्यना सिखायी, उसे वे फैलाने का ही काम कर रहे हैं।
जब दूर-दराज के अनेक स्थानों पर विपश्यना के अनेक केंद्र बन गये और बनते ही जा रहे हैं तब मैंने निश्चय किया कि प्रत्येक स्थानीय केंद्र पर प्रशिक्षक के रूप में एक-एक अलग-अलग उत्तराधिकारी हो, परंतु जहां कहीं आवश्यक हो, वहां उन्हें परामर्श देने के लिए अनेक प्रादेशिक आचार्य भी नियुक्त हों। जहां अनेक प्रादेशिक आचार्य काम कर रहे हों, वहां आवश्यक होने पर एक-एक बड़े क्षेत्र के लिए एक भौगोलिक आचार्य हो। केंद्रीय आचार्य, प्रादेशिक आचार्य तथा भौगोलिक आचार्यों की नियुक्ति होने पर वे सभी मेरे उत्तराधिकारी माने जायेंगे। इनके नाम मैं शीघ्र प्रकाशित करूंगा।
किसी केंद्र का अथवा प्रादेशिक या भौगोलिक क्षेत्र का उत्तराधिकारी हो जाने का अर्थ यह नहीं हुआ कि वह उस-उस केंद्र या क्षेत्र का मालिक हो गया। सभी आचार्य मात्र प्रशिक्षण क्षेत्र के उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे ही केंद्र का संचालन करने वाले ट्रस्टियों का भी कोई उत्तराधिकार नहीं होता। किसी केंद्र में कोई मान-सम्मान या पद-प्रतिष्ठा पाने का अधिकार भी नहीं होता। वे सभी धर्मसेवक हैं। और केंद्र की यथावश्यक सेवा करते हैं। जिस किसी व्यक्ति ने धर्मस्थल के लिए जमीन दान दी अथवा किसी ने उस पर कोई इमारत बनवा दी, तब दान दी गयी जमीन पर, अथवा उस पर बनायी गयी इमारत पर, उसकी कोई मल्कियत नहीं हो सकती। मल्कियत धर्म की होती है, दानी की नहीं । उनको अपने-अपने दान का और सेवा का अमूल्य पुण्यलाभ प्राप्त हो जाता है, बस इतना ही।
उदाहरण स्वरूप भगवान बुद्ध के समय अनाथपिडिक ने सोने के सिक्के बिछा कर भगवान को भूमि का दान दिया। उस भूमि पर बहुत-सा धन लगा कर आवासीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति की। इतना होने पर भी अनाथपिंडिक धर्म की परंपरा को खूब समझता था कि दान दी गयी भूमि और उस पर बनाई गयी इमारतों पर उसका रंचमात्र भी अधिकार नहीं है। जो दान दे दिया सो दे दिया। बदले में कुछ प्राप्त करने की भावना अत्यंत दोषपूर्ण है। यद्यपि उसने देखा कि वर्षावास के बाद जब भगवान अपने भिक्षुओं के साथ अन्य प्रदेशों में विहार करने चले जाते हैं तब यह विहार बिल्कुल सूना पड़ जाता है। भगवान के प्रवास के समय यहां जो भीड़ लगती, वह अब नहीं आती। उसकी बहुत इच्छा थी कि भगवान की अनुपस्थिति में भी लोगों की भीड़ सतत बनी रहे। इस निमित्त उस भूमि पर वह भगवान का एक मंदिर जैसा स्थान बनाना चाहता था। परंतु बहुत चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सका। क्योंकि जो भूमि दान दे दी, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं था। अतः अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह भगवान से प्रार्थना करने गया कि उसे वहां एक मंदिर बनवाने की अनुमति दें। यदि दान दी गयी भूमि पर उसकी मल्कियत होती तो उसे भगवान से अनुमति लेने की क्या आवश्यकता थी? भगवान ने अनुमति नहीं दी। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि धर्म का स्थान पूजन-अर्चन और भीड़-भाड़ आदि के लिए हो। वह तो ध्यान के लिए होता है। अतः भगवान ने बोधिवृक्ष की शाखा मॅगवा कर वहां लगवायी और कहा, 'इसके बढ़ जाने पर लोग इसके नीचे बैठ कर ध्यान करेंगे। इस प्रकार इस धरती का लोगों को सही लाभ मिलेगा।
इसी प्रकार आज भी जमीन का, या उस पर केंद्र बनाने का, दान देने वाले व्यक्ति इस पुरातन परंपरा को खूब समझते रहें कि दिये हुए दान पर उनका रंचमात्र भी अधिकार नहीं हो सकता। धर्म की यह शुद्ध परंपरा कायम रहेगी तभी धर्म की सही अभिवृद्धि होती रहेगी। यहां सदैव पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म का ही प्रशिक्षण दिया जाता रहेगा। केंद्र के आचार्य समय-समय पर बदलते रहेंगे, परंतु धर्म प्रशिक्षण का कार्य सतत चलता रहेगा।
विपश्यना के अनेक केंद्रों की स्थापना हो जाने पर मेरे मन में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विचार उठे, जिनका विपश्यना के प्रशिक्षण से कोई संबंध नहीं था। एक महत्त्वपूर्ण विचार तो यह आया कि भगवान बुद्ध की पावन शिक्षा भारत से कैसे पूर्णतया लुप्त हुई ? इसका अनुसंधान हो और भारत तथा विश्व में अब पुनः जाग्रत हुई। इस विद्या की समग्र प्रशिक्षण सामग्री सदियों तक सुरक्षित रहे। साथ ही भगवान की शिक्षा का प्रमुख साहित्य 'तिपिटक' यानी, इसका परियत्ति-पक्ष (Theoretical aspect) जो भारत से लुप्त हो चुका था, वह भी पुनः प्रकाशित हो। इसके लिए 'विपश्यना विशोधन विन्यास' के नाम से एक शोध संस्थान गठित हो। आने वाले युगों में बुद्ध की शिक्षा के पुनर्जागरण से संबंधित सारा साहित्य इसके पास सुरक्षित ही नहीं रहे, बल्कि आज और आगे भी सदियों तक इसका उपयोग और अनुसंधान भी होता रहे। इस विशोधन के लिए शोध करने वाले भिन्न-भिन्न मर्मज्ञ समय-समय पर सेवा में लगते रहेंगे। यानी, इस विशोधन-कार्य में गुरु-शिष्य परंपरा बिल्कुल नहीं रहेगी। इसीलिए जब इसका ट्रस्ट-डीड बने तब इस विशोधन संस्था के लिए मेरे द्वारा एक योग्य उत्तराधिकारी बनाने का प्रावधान रखा जाय।
मेरे मन में दूसरा विचार यह उठा कि भगवान बुद्ध की पावन धातुओं का सही सम्मान तभी होगा जब कि वे भगवान के मार्गदर्शन के अनुसार किसी भव्य स्तूप में सन्निधानित की जायेंगी। यह भव्य स्तूप भी ब्रह्मदेश की स्थापत्यकला के आधार पर ही बने। यह इसलिए कि ब्रह्मदेश ने सम्राट अशोक से प्राप्त हुई परियत्ति, यानी, बुद्ध-वाणी और पटिपत्ति, यानी, विपश्यना को गुरु-शिष्य परंपरा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दो हजार वर्षों तक शुद्ध रूप में कायम रखा। तभी ये दोनों हमें प्राप्त हुईं। जैसे बर्मा के लोगों ने भारत का उपकार माना, क्योंकि यहीं से उन्हें शुद्ध धर्म प्राप्त हुआ; साथ-साथ सम्राट अशोक का भी उपकार माना, जिसके प्रयास से उन्हें धर्म प्राप्त हुआ। इसी प्रकार आज भारत के लोग भी बर्मा का उपकार मानें, और साथ-साथ सयाजी ऊ बा खिन का भी उपकार मानें, जिन्होंने कि बर्मा का कर्ज चुकाने के लिए मुझे पूरी तरह से प्रशिक्षित करके भारत भेजा। इन दोनों के उपकारों की पावन स्मृतियां दीर्घकाल तक बनी रहें, इस निमित्त मेरे मन में एक भव्य स्तूप - विश्व विपश्यना पगोडा के निर्माण की योजना जागी। यह विश्वभर के बुद्धानुयायियों, विशेष करके विपश्यी साधकों को आह्वान करने के लिए एक आकर्षक प्रकाश स्तंभ होगा। इसके लिए 'ग्लोबल विपश्यना फाउंडेशन' का गठन किया जायगा और यह ध्यान रखा जायगा कि इस पगोडा की बनावट बर्मी स्थापत्य एवं वास्तुकला के अनुसार हो ताकि आज ही नहीं, भविष्य में भी लोगों को बर्मा तथा सयाजी ऊ बा खिन के उपकारों की याद आती रहे।
मेरी इस कल्पना के अनुसार पगोडा का निर्माण हुआ जिसमें भारत तथा पड़ोसी देशों के विपश्यी साधकों तथा अन्यान्य बुद्धभक्तों ने श्रद्धापूर्वक दान दिया। किसी ने भी यह सोच कर दान नहीं दिया कि मैं पगोडा का ट्रस्टी बन जाऊंगा अथवा इसका अध्यक्ष बन जाऊंगा अथवा गुरुजी के न रहने पर मालिक बन जाऊंगा। इन दानियों में मुझे एक सर्वश्रेष्ठ दान की याद आती रहती है जिसने मेरी आंखों को सजल बनाया। पगोडा के उद्घाटन समारोह में इसके मुख्य कक्ष (डोम) में दान के लिए एक छोटा-सा कलश रखा गया था। मैंने देखा कि सिर पर उठाकर घर-घर साग-सब्जी बेच कर गुजारा करने वाली डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अनुयायिनी एक महिला ने जब देखा कि भगवान बुद्ध के नाम पर इतना विशाल पगोडा बन रहा है, तब उसने अपनी साड़ी के पल्ले से खोल कर कुछ सिक्के निकाल कर श्रद्धापूर्वक दान-पात्र में डाले, जिनकी खनकती
आवाज ने मुझे भावविभोर बना दिया। उस गरीब महिला का दान कितना सात्त्विक और मूल्यवान था! करोड़ों का दान देने वालों के सामने अधिक सुफलदायी था । वह कुछ ऐसे दान देने वालों की भांति कैसे सोचती कि मैं कभी इस पगोडा की ट्रस्टी या अध्यक्ष बन जाऊंगी या आगे जाकर इसकी मालकिन बन जाऊंगी? बिना कुछ पाने की भावना के साथ दिया गया उस गरीब महिला का यह शुद्ध दान सचमुच इतिहास में याद रखने योग्य होगा। बिना बदले में कुछ पाने की भावना से दिया गया दान ही दान है, नहीं तो व्यवसाय है।
इस पगोडा के परिसर में भगवान बुद्ध के जीवनकाल की एक चित्र-प्रदर्शनी बनी, जिसे बनाने में बर्मा के प्रमुख कलाकार बुलाये गये। ऐसा हो जाने पर इस चित्रकला, वास्तुकला तथा पगोडा की भव्य विशेषता को कायम रखने के लिए जो ट्रस्ट-डीड बना उसमें मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा। इस उत्तराधिकार का एक व्यक्ति विशेष रूप से बर्मी कला तथा पगोडा की बर्मी स्थापत्यकला की देखभाल के लिए जिम्मेदार होगा और दूसरे चार विपश्यना के आचार्य होंगे जो कि विशाल ध्यानकक्ष तथा पगोडा-परिसर में कहीं कोई धर्मविरुद्ध कार्य न हो जाय, इसकी देखभाल करेंगे। अतः इस ट्रस्ट में एक की जगह पांच उत्तराधिकारी नियुक्त करके मैंने ट्रस्ट के मूल प्रावधान को आवश्यकतानुसार निभाया।
तीसरी आवश्यकता यह महसूस हुई कि इस पगोडा के रख-रखाव, अन्यान्य स्मृति-चिह्न और बर्मी वास्तुकला की मरम्मत आदि के लिए के लिए आवश्यक धन की पूर्ति हेतु 'सम्यक वाणिज्य चैरिटेबल ट्रस्ट' का गठन किया जाय। यहां भी गुरु-शिष्य परंपरा का कोई नियम नहीं होने के कारण मेरे द्वारा एक उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया। यानी, विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्रों से अलग केवल इन तीन उपरोक्त प्रतिष्ठानों में ही मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान है।
ये तीनों संस्थाएं मेरे अपने स्वप्नों की उपज हैं। इन तीनों संस्थानों का गठन भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से हुआ है। इन तीनों संस्थाओं को मेरे बाद भी चिर-काल तक स्थायी रखना आवश्यक मानता हूं। इसीलिए इन तीनों में उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया है। अतः इनमें अब जो उत्तराधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, वे अपने बाद अन्य योग्य व्यक्तियों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के कार्यों को करते रहने के लिए नियुक्त करेंगे; ताकि ये तीनों कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुचारुरूप से चलते रहें।
जहां तक गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन द्वारा भारत का कर्ज चुकाने का प्रश्न था, उसके लिए विपश्यना केंद्रों का गठन इसी प्रकार से हुआ, जिनमें पुरातन काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा को ही आधार बनाया गया है। क्योंकि जो लोगों को धर्म सिखाता है और उनमें धर्म जगाता है वही विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्र का उत्तराधिकारी होता है। यहां जो भी आचार्य आज सुनिश्चित हैं या भविष्य में होंगे, वे सब उत्तराधिकारी का ही कार्य करेंगे। इसी कारण इन विपश्यना केंद्रों के गठन में किसी प्रशिक्षित आचार्य को छोड़ कर अन्य किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि जितने भी विपश्यना केंद्र हैं उनके लिए तो प्रशिक्षक आचार्य उत्तराधिकारी होंगे ही, उनके बाद भी जो-जो आचार्य होंगे, वे सब गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर उत्तराधिकारी ही होंगे। इसी कारण इनके ट्रस्ट-डीडों में मेरे द्वारा किसी उत्तराधिकारी की नियुक्ति का वर्णन आवश्यक नहीं समझा गया। परंतु उपरोक्त तीन संस्थान जो कि विपश्यना के प्रशिक्षण के लिए नहीं हैं, उनमें मेरे द्वारा विशेष रूप से उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान अवश्य रखा गया।
यह बात फिर दुहरा दूं और सब को खूब समझ लेनी चाहिए कि धर्म के क्षेत्र पर किसी की मल्कियत नहीं होती -- न उत्तराधिकारियों की, न ट्रस्टियों की, न दान-दाताओं की, न शासनाधिकारियों की। सबको मात्र अपने-अपने जिम्मे का काम करने का अधिकार है। धर्म का सारा कार्य बहुत शांतिपूर्वक चलना चाहिए। किसी के मन में कोई मिथ्या संदेह हो अथवा भ्रांति हो तो मुझसे मिल कर उसे दूर कर ले । मंगल भावनाओं के साथ धर्म का कार्य चलता रहे, इसी में सबका कल्याण है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का
जून 2012 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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