शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

🌹धन्य विपश्यना 🌹

🌹धन्य विपश्यना 🌹
तथागत की शिक्षा के दो भाग हैं -
1. परियत्ति, संपूर्ण पालि (धम्म) वाङ्मय यानी, तिपिटक, अट्ठकथा एवं टीकाओं का अध्ययन।
2. पटिपत्ति, शिक्षा का प्रयोगात्मक पक्ष - विपश्यना, यानी शील, समाधि, प्रज्ञा के आर्य आष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन। इस प्रयोगात्मक पक्ष से ही मेरा कल्याण आरंभ हुआ तथा पिछले 41 वर्षों में भारत तथा विश्व भर में अनेकों का कल्याण हुआ है।
मेरा अनुभव –
बुद्ध की शिक्षा के प्रति अनेक भ्रांत मान्यताओं से भ्रमित मैं विपश्यना का शिविर लेने के लिए तैयार नहीं था। परंतु मेरे परम मित्र और स्वतंत्र म्यंमा के प्रथम अटार्नी जनरल ऊ छान ठुन के आग्रह पर मैं विपश्यना के आचार्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मिलने गया । वे स्वतंत्र बर्मा के प्रथम अकाउंटेंट जनरल थे। मिलने पर मेरी झिझक का सही अंदाज लगाते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, क्या तुम्हारे हिंदू धर्म में सदाचार का विरोध है ? मैंने कहा, हमारे हिंदू धर्म में ही नहीं, बल्कि विश्व के सभी धर्मों में सदाचार की स्वीकृति है। इसमें विरोध हो ही कैसे सकता है! फिर उन्होंने कहा कि वे शिविर में मूलतः शील, सदाचार का ही अभ्यास कराते हैं, परंतु इसके लिए मन को वश में करना सिखाते हैं, जिसे समाधि कहते हैं। इसका भी मुझे क्या विरोध होता! मैंने सोचा कि हमारे धर्मग्रंथों में अनेक ऋषि-मुनियों द्वारा वन में जाकर समाधि लगाने का वर्णन भरा पड़ा है। अतः मुझ जैसे गृहस्थ को समाधि लगानी सिखायी जाय तो इसमें क्या विरोध हो भला?
इस पर उन्होंने कहा- केवल समाधि पर्याप्त नहीं है। इससे केवल मानस के ऊपरी-ऊपरी हिस्से के विकारों की सफाई होती है। और कुछ समय के लिए शांति अनुभव होती है। जबकि अंतर्मन की गहराइयों में विकारों की जड़ें समायी रहती हैं। इन्हें निकालने के लिए हम प्रज्ञा सिखाते हैं। इससे तुम्हें कोई एतराज है? मैं क्या एतराज करता! काम, क्रोध और अहंकार के दुखदायी विकारों से छुटकारा पाने के लिए ही मैं अपने ईष्टदेव श्रीकृष्ण से वर्षों तक प्रतिदिन अश्रुपूर्ण प्रार्थनाएं करता रहा हूं। परंतु ऐसी प्रार्थना के बाद एकाध घंटे तो लगता है कि मेरा मन स्वच्छ और शांत हुआ, परंतु फिर वैसे-का-वैसा। यदि मुझे इन विकारों से नितांत मुक्ति पाने के लिए प्रज्ञा का अभ्यास कराया जाय, तो इसका कैसे विरोध करता!
वैसे भी प्रज्ञा के प्रति मेरे मन में सदा गहरा आकर्षण रहा। रंगून के भारतीय समाज में समय-समय पर हिंदू धर्म पर जब कभी मेरे प्रवचन होते थे तब मैं गीता की स्थितप्रज्ञता का ही विशद वर्णन किया करता था। स्थितप्रज्ञता पर विश्लेष्णात्मक प्रवचन देकर बहुत संतोष होता था। परंतु जब घर लौटता तब बहुधा मन में उदासी छा जाती कि मैं स्थितप्रज्ञता पर प्रवचन देता ही क्यों हूं? जबकि मेरे भीतर प्रज्ञा का नामोनिशान नहीं है। अतः अब जब यह सुना कि गुरुदेव केवल शील, समाधि ही नहीं, बल्कि प्रज्ञा की साधना भी सिखायेंगे। साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि शील, समाधि, प्रज्ञा को छोड़ कर वे कुछ और नहीं सिखाते । केवल समाधि पर्याप्त नहीं है। इससे केवल मानस के ऊपरी-ऊपरी हिस्से के विकारों की सफाई होती है और कुछ समय के लिए शांति अनुभव होती है। जबकि अंतर्मन की गहराइयों में विकारों की जड़े समायी रहती हैं। इन्हें निकालने के लिए हम प्रज्ञा सिखाते हैं।...
उन्होने बताया कि भगवान बुद्ध ने भी केवल यही सिखाया और कुछ नहीं। उन्होंने कहा कि इस साधना द्वारा मन में जैसे-जैसे निर्मलता आती जायगी, वैसे-वैसे मैत्री, करुणा और सद्भावना के गुण स्वतः जाग्रत होते जायँगे। यह सुन कर मैं आश्वस्त हुआ कि भगवान बुद्ध की शिक्षा के बारे में जो अनेक अप्रिय बातें सुन रखी थीं, उनकी यहां कोई चर्चा ही नहीं होगी । दस दिनों तक केवल शील, समाधि, प्रज्ञा का व्यावहारिक पक्ष ही सिखाया जायगा। यह आश्वासन प्राप्त कर मैंने शिविर में सम्मिलित होने का निर्णय किया। । शिविर में सम्मिलित होने के बाद ही बात समझ में आयी कि अपने यहां प्रज्ञा की चर्चा तो बहुत है, जो कि सुनने और पढ़ने में बहुत प्रिय लगती है, परंतु सक्रिय साधना के अभाव में इसका कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलता। बुद्धिरंजन भले हो जाय।
मुझे विपश्यना से लाभान्वित हुआ देख कर मेरे अनेक सनातनी और आर्यसमाजी मित्रों ने भी शिविरों में भाग लिया। उनकी भी समझ में आया कि केवल श्रवण और चिंतन-मनन से प्रज्ञा के प्रति आकर्षण तो अवश्य होता है परंतु -
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ गीता २-५६.
वीतराग, वीतभय और वीतक्रोध की अवस्था प्राप्त न हो तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ ?
शील, समाधि, प्रज्ञा अनेक परंपराओं में स्वीकृत है, परंतु अभ्यास के बिना निष्फल रहती है। मैंने देखा कि गुरुजी के यहां केवल बुद्ध की परंपरा के लोग ही नहीं, बल्कि अन्य परंपराओं के लोग भी सम्मिलित होकर संतुष्ट प्रसन्न हुए हैं।
मुझे याद है कि अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक और पादरी डॉ. किंग शिविर लेने बैठा तब बुद्ध, धम्म और सङ्घ की शरण लेने से उसने मना कर दिया और कहा कि इससे तो मैं बौद्ध बन जाऊंगा। इसके बजाय मैं जीसस क्राइस्ट की शरण लूंगा। गुरुदेव हँसे और उन्होंने कहा – ठीक है, जीसस क्राइस्ट की ही शरण ली लेकिन उनके गुणों को याद करके उन्हें अपने जीवन में धारण करने का व्रत लो। त्रिरत्नों की शरण भी इसी उद्देश्य से ली जाती है। उसने बड़े मनोयोग से काम किया तो लाभ होना ही था। शिविर पूरा होने पर उसने गुरुदेव से क्षमायाचना की कि आरंभ में नासमझी के कारण उसने जो गुस्ताखी की थी, वह सचमुच बेमाने थी। आपने मुझे विपश्यना द्वारा बौद्ध संप्रदाय में दीक्षित नहीं किया, परंतु बुद्ध की महान शिक्षा सिख़ा कर सच्चा धार्मिक बनने का मार्ग दिखाया। मैं धन्य हुआ। मैं आपका आभारी हूँ!
इसी प्रकार रंगून यूनिवर्सिटी का एक मुस्लिम प्रो० ऊ सां म्यि भी विपश्यना द्वारा इतना प्रभावित हुआ कि उसने बुद्धवाणी का गहन अध्ययन किया और माता विशाखा के जीवन पर एक वृहत पुस्तक लिखी जो बहुत प्रसिद्ध हुई। मेरा एक व्यापारी मुस्लिम मित्र भी विपश्यना में सम्मिलित होकर अत्यंत लाभान्वित हुआ।
गुरुजी बार-बार दुहराते थे कि शील, समाधि और प्रज्ञा का अभ्यास करना ही बुद्ध की सही शिक्षा है। अतः इसका पालन करने वाला जो भी हो, वह सच्चे अर्थों में बुद्धानुयायी ही है। दूसरी ओर जिन्होंने इसका रंचमात्र भी अभ्यास नहीं किया, वे अपने आपको भले बौद्ध कहते रहें और किसी बुद्ध-मंदिर में जाकर पूजा-पाठ करते रहें, परंतु सही माने में वे बुद्धानुयायी कहलाये जाने योग्य नहीं हैं। वे भ्रांत हैं, दया के पात्र है।
भारत आने पर मैंने गुरुदेव से जो सीखा था, वही यहां सिखाना आरंभ किया और धीरे-धीरे सभी संप्रदायों के लोग शिविरों में सम्मिलित होने लगे। इसका एकमात्र कारण यही रहा कि वीतराग का लक्ष्य रखने वाले जैन समाज के लोगों को स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि वीतराग होना बहुत उत्तम है, परंतु इसे वास्तव में प्राप्त करने की सक्रिय साधना हमारे यहां नहीं है। उन्हें यह भी स्पष्ट हुआ कि वीतराग होने का उद्देश्य विपश्यना के अभ्यास से ही पूरा हो सकता है। इसी कारण हजारों की संख्या में जैन मुनि, साध्वियां और गृहस्थ शिविरों में सम्मिलित होने लगे।
इसी प्रकार ईसाइयों की मान्यता में मैत्री, करुणा और सद्भावना का उद्देश्य सर्वोत्तम है। परंतु केवल मान्यताओं से और प्रार्थनाओं से यह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। जबकि विपश्यना के अभ्यास से यह सहज संभव होने लगा तब हजारों की संख्या में ईसाई पादरी, साध्वियां और उनसे भी अधिक गृहस्थों ने शिविरों में भाग लिया और अन्य अनेक भी निरंतर बड़ी संख्या में भाग लेते जा रहे हैं।
अनेक खालसा पंथ के लोगों ने देखा कि आदि सचु, जुगादि सचु, है भी सचु, नानक होसी भी सचु।... तथा किव सचिआरा होईए किव कूड़े तुटै पालि ।... तथा थापिया न जाइ, कीता न होइ, आपे
आपि निरंजनु सोई।... जैसी गुरुवाणी का प्रत्यक्ष अनुभव ही विपश्यना द्वारा होता है। इसी कारण इतनी बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग भी विपश्यना में सम्मिलित होने लगे।
मुस्लिम समाज की यह मान्यता कि --- मन अरफ़ नफ़स हूँ। फकत अरफ रब्ब हू। यानी जो अपनी सांस को देख लेता है, अपने शरीर को और अपने आप को देख लेता है, वह रब्ब को यानी अल्लाह को देख लेता है। “हाशिम तिण्हा रब्ब पछाता, जिण्हा अपणा आप पछाता ।” - जिसने अपने आपको जान लिया, उसने रब्ब को जान लिया, यानी अल्लाह को जान लिया। इनका यह वास्तविक अर्थ विपश्यना के शिविर में कायानुपश्यना करते हुए ही समझ में आता है। इसी कारण बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग भी शिविरों में आने लगे और लाभान्वित होने लगे।
इसी प्रकार भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अनेक अनुयायियों ने भी विपश्यना में सम्मिलित होकर यह समझ लिया कि शील, समाधि, प्रज्ञारूपी आर्य अष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन करके ही कोई भगवान बुद्ध का कुशल अनुगामी बन सकता है। बाबासाहेब का भी यही स्वप्न था कि भारत तथा विश्व के सभी लोगों के बुद्धानुयायी होने पर ही उनका सही माने में कल्याण होगा। उनके इस महत्त्वपूर्ण स्वप्न के पूरा होने की प्रारंभिक अवस्था देख कर ही। उनके अनेक बुद्धिमान भक्त विपश्यना के शिविरों में आने लगे।
इसी प्रकार संसार के जितने संप्रदाय हैं उनके प्रमुख लोगों ने विपश्यना के अभ्यास से यह समझा कि धर्म का वास्तविक अभ्यास किये बिना सही लाभ नहीं होगा। विपश्यना में यही अभ्यास समाया हुआ है। इसीलिए विश्व का ऐसा कोई संप्रदाय नहीं है जिसके अनुयायी विपश्यना से लाभान्वित न हो रहे हों।
विश्व के लाखों साधक विपश्यना पाकर धन्य हुए और विपश्यना इन्हें पाकर धन्य हुई। भगवान बुद्ध की यह व्यावहारिक शिक्षा ‘विपश्यना' सारे विश्व में फैले और सब का मंगल हो! सब का कल्याण हो! सबकी स्वस्ति-मुक्ति हो!
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयनका
विपश्यना श‍िव‍िर में सम्मि‍ल‍ित होने के देखें साइट www.dhamma.org


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🌹उत्तराधिकारी कौन ?🌹

🌹उत्तराधिकारी कौन ?🌹
🌷Who is a successor?🌷
किसी पिता के एक या अधिक संतान हों तो वे सब उसके उत्तराधिकारी होते हैं। उसकी धन-दौलत, जायदाद के मालिक होते हैं। उसे बढ़ाते हैं या गॅवाते हैं।
लेकिन धर्म के क्षेत्र में ऐसा कदापि नहीं होता। भगवान बुद्ध से जिन्होंने विपश्यना सीखी और उसे फैलाया, वे सब उनके उत्तराधिकारी बने। उन उत्तराधिकारी शिक्षकों ने औरों को विपश्यना सिखा कर, उसमें प्रवीण करके, उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर इन सभी उत्ताधिकारियों ने धर्म सिखाया। सम्राट अशोक के समय भिक्षु सोण और उत्तर हुए। वे भगवान का धर्म सीख कर उनके उत्तराधिकारी हुए और इसी रूप में धर्म सिखाने के लिए म्यंमा गये। वहां सामान्य लोगों को धर्म सिखाने के साथ-साथ उन्होंने कुछ ऐसे शिष्य तैयार किये जिन्होंने भगवान के उत्तराधिकारी के रूप में इस गुरु-शिष्य परंपरा को कायम रखा।
भगवान बुद्ध ने कभी अपने पुत्र राहुल को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। आगे जाकर गुरु नानकदेवजी ने अपने शिष्य अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बनाया, न कि अपने पुत्र को। धर्म के क्षेत्र में उत्तराधिकारी वही होता है जो अपने गुरु से धर्म सिखाने की विद्या प्राप्त करके उसे सिखाने लगता है। यह गुरु-शिष्य परंपरा पिछले ढाई हजार वर्षों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहेगी।
गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मैंने विपश्यना साधना, यानी, शुद्ध धर्म सीखा और उनकी उत्कट अभिलाषा को पूरी करते हुए भारत आकर लोगों को धर्म सिखाने लगा। रंगून रहते हुए 14 वर्षों तक मैं उनके संपर्क में रहा और देखा कि न जाने कितनी बार उन्होंने इन शब्दों का उच्चारण किया होगा, 'भारत से हमें विपश्यना के रूप में अनमोल रत्न मिला। परंतु आज भारत इस रत्न को खोकर कंगाल हो गया है। इसे पुनः भारत ले जाकर हमें भारत का कर्ज चुकाना है। यह कर्ज और कौन चुका पायेगा भला! मैं ही चुकाऊंगा।" उन्हें ही भारत आकर अनमोल कर्ज चुकाना था।
वे स्वयं भारत आकर यहां विपश्यना का पुनर्जागरण करना चाहते थे, परंतु उन दिनों बर्मी नागरिकों को दो कारणों से ही पासपोर्ट दिया जाता था -- या तो वे बर्मा छोड़ कर सदा के लिए चले जायें या उन्हें कहीं बाहर नौकरी मिल रही हो । सयाजी ऊ बा खिन न तो सदा के लिए बर्मा छोड़ना चाहते थे और न ही भारत आने के लिए किसी झूठी नौकरी का सहारा लेना चाहते थे। अतः सरकार ने उन्हें पासपोर्ट नहीं दिया और वे भारत नहीं आ सके। परंतु एक अत्यंत विशिष्ट कारण से सौभाग्यवश मुझे बर्मा का पासपोर्ट मिला। मेरी माता बम्बई (मुंबई) में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी और मैं जानता था कि यदि वह विपश्यना कर लेगी तो स्वस्थ हो जायगी। बर्मी केबिनेट में मेरे दो घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने मेरा पुरजोर समर्थन किया और इस विशेष कारण से मुझे पासपोर्ट मिल गया।
गुरुदेव इस घटना से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं स्वयं भारत का कर्जा नहीं चुका सकता, परंतु अब यह काम मेरी ओर से तुम्हें करना होगा। उनसे विपश्यना विद्या में पारंगत होकर मैं भारत आया और गुरुदेव के इस उद्देश्य की पूर्ति में लग गया। अतः धर्म के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार मैं गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन का उत्तराधिकारी हुआ । मैंने भारत में अनेकों को विपश्यना की शिक्षा दी और कुछ को आचार्य पद पर स्थापित किया। जो आचार्यपद पर स्थापित हुए वे विपश्यना सिखाते हुए मेरे उत्तराधिकारी हुए। यों गुरुदेव के सपनों को साकार होते देख कर मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। बर्मा पर भारत का जो कर्जा था, उसे चुकाने का काम आरंभ हुआ।
आगे जाकर विपश्यना के अनेक केंद्र बने और शनैः शनैः भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में केंद्र बनते गये। जहां-जहां ये केंद्र स्थापित हुए, वहां उन सभी केंद्रों में प्रशिक्षण देने वाले आचार्य मेरे उत्तराधिकारी ही हैं। क्योंकि मैंने उन्हें जो विपश्यना सिखायी, उसे वे फैलाने का ही काम कर रहे हैं।
जब दूर-दराज के अनेक स्थानों पर विपश्यना के अनेक केंद्र बन गये और बनते ही जा रहे हैं तब मैंने निश्चय किया कि प्रत्येक स्थानीय केंद्र पर प्रशिक्षक के रूप में एक-एक अलग-अलग उत्तराधिकारी हो, परंतु जहां कहीं आवश्यक हो, वहां उन्हें परामर्श देने के लिए अनेक प्रादेशिक आचार्य भी नियुक्त हों। जहां अनेक प्रादेशिक आचार्य काम कर रहे हों, वहां आवश्यक होने पर एक-एक बड़े क्षेत्र के लिए एक भौगोलिक आचार्य हो। केंद्रीय आचार्य, प्रादेशिक आचार्य तथा भौगोलिक आचार्यों की नियुक्ति होने पर वे सभी मेरे उत्तराधिकारी माने जायेंगे। इनके नाम मैं शीघ्र प्रकाशित करूंगा।
किसी केंद्र का अथवा प्रादेशिक या भौगोलिक क्षेत्र का उत्तराधिकारी हो जाने का अर्थ यह नहीं हुआ कि वह उस-उस केंद्र या क्षेत्र का मालिक हो गया। सभी आचार्य मात्र प्रशिक्षण क्षेत्र के उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे ही केंद्र का संचालन करने वाले ट्रस्टियों का भी कोई उत्तराधिकार नहीं होता। किसी केंद्र में कोई मान-सम्मान या पद-प्रतिष्ठा पाने का अधिकार भी नहीं होता। वे सभी धर्मसेवक हैं। और केंद्र की यथावश्यक सेवा करते हैं। जिस किसी व्यक्ति ने धर्मस्थल के लिए जमीन दान दी अथवा किसी ने उस पर कोई इमारत बनवा दी, तब दान दी गयी जमीन पर, अथवा उस पर बनायी गयी इमारत पर, उसकी कोई मल्कियत नहीं हो सकती। मल्कियत धर्म की होती है, दानी की नहीं । उनको अपने-अपने दान का और सेवा का अमूल्य पुण्यलाभ प्राप्त हो जाता है, बस इतना ही।
उदाहरण स्वरूप भगवान बुद्ध के समय अनाथपिडिक ने सोने के सिक्के बिछा कर भगवान को भूमि का दान दिया। उस भूमि पर बहुत-सा धन लगा कर आवासीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति की। इतना होने पर भी अनाथपिंडिक धर्म की परंपरा को खूब समझता था कि दान दी गयी भूमि और उस पर बनाई गयी इमारतों पर उसका रंचमात्र भी अधिकार नहीं है। जो दान दे दिया सो दे दिया। बदले में कुछ प्राप्त करने की भावना अत्यंत दोषपूर्ण है। यद्यपि उसने देखा कि वर्षावास के बाद जब भगवान अपने भिक्षुओं के साथ अन्य प्रदेशों में विहार करने चले जाते हैं तब यह विहार बिल्कुल सूना पड़ जाता है। भगवान के प्रवास के समय यहां जो भीड़ लगती, वह अब नहीं आती। उसकी बहुत इच्छा थी कि भगवान की अनुपस्थिति में भी लोगों की भीड़ सतत बनी रहे। इस निमित्त उस भूमि पर वह भगवान का एक मंदिर जैसा स्थान बनाना चाहता था। परंतु बहुत चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सका। क्योंकि जो भूमि दान दे दी, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं था। अतः अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह भगवान से प्रार्थना करने गया कि उसे वहां एक मंदिर बनवाने की अनुमति दें। यदि दान दी गयी भूमि पर उसकी मल्कियत होती तो उसे भगवान से अनुमति लेने की क्या आवश्यकता थी? भगवान ने अनुमति नहीं दी। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि धर्म का स्थान पूजन-अर्चन और भीड़-भाड़ आदि के लिए हो। वह तो ध्यान के लिए होता है। अतः भगवान ने बोधिवृक्ष की शाखा मॅगवा कर वहां लगवायी और कहा, 'इसके बढ़ जाने पर लोग इसके नीचे बैठ कर ध्यान करेंगे। इस प्रकार इस धरती का लोगों को सही लाभ मिलेगा।
इसी प्रकार आज भी जमीन का, या उस पर केंद्र बनाने का, दान देने वाले व्यक्ति इस पुरातन परंपरा को खूब समझते रहें कि दिये हुए दान पर उनका रंचमात्र भी अधिकार नहीं हो सकता। धर्म की यह शुद्ध परंपरा कायम रहेगी तभी धर्म की सही अभिवृद्धि होती रहेगी। यहां सदैव पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म का ही प्रशिक्षण दिया जाता रहेगा। केंद्र के आचार्य समय-समय पर बदलते रहेंगे, परंतु धर्म प्रशिक्षण का कार्य सतत चलता रहेगा।
विपश्यना के अनेक केंद्रों की स्थापना हो जाने पर मेरे मन में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विचार उठे, जिनका विपश्यना के प्रशिक्षण से कोई संबंध नहीं था। एक महत्त्वपूर्ण विचार तो यह आया कि भगवान बुद्ध की पावन शिक्षा भारत से कैसे पूर्णतया लुप्त हुई ? इसका अनुसंधान हो और भारत तथा विश्व में अब पुनः जाग्रत हुई। इस विद्या की समग्र प्रशिक्षण सामग्री सदियों तक सुरक्षित रहे। साथ ही भगवान की शिक्षा का प्रमुख साहित्य 'तिपिटक' यानी, इसका परियत्ति-पक्ष (Theoretical aspect) जो भारत से लुप्त हो चुका था, वह भी पुनः प्रकाशित हो। इसके लिए 'विपश्यना विशोधन विन्यास' के नाम से एक शोध संस्थान गठित हो। आने वाले युगों में बुद्ध की शिक्षा के पुनर्जागरण से संबंधित सारा साहित्य इसके पास सुरक्षित ही नहीं रहे, बल्कि आज और आगे भी सदियों तक इसका उपयोग और अनुसंधान भी होता रहे। इस विशोधन के लिए शोध करने वाले भिन्न-भिन्न मर्मज्ञ समय-समय पर सेवा में लगते रहेंगे। यानी, इस विशोधन-कार्य में गुरु-शिष्य परंपरा बिल्कुल नहीं रहेगी। इसीलिए जब इसका ट्रस्ट-डीड बने तब इस विशोधन संस्था के लिए मेरे द्वारा एक योग्य उत्तराधिकारी बनाने का प्रावधान रखा जाय।
मेरे मन में दूसरा विचार यह उठा कि भगवान बुद्ध की पावन धातुओं का सही सम्मान तभी होगा जब कि वे भगवान के मार्गदर्शन के अनुसार किसी भव्य स्तूप में सन्निधानित की जायेंगी। यह भव्य स्तूप भी ब्रह्मदेश की स्थापत्यकला के आधार पर ही बने। यह इसलिए कि ब्रह्मदेश ने सम्राट अशोक से प्राप्त हुई परियत्ति, यानी, बुद्ध-वाणी और पटिपत्ति, यानी, विपश्यना को गुरु-शिष्य परंपरा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दो हजार वर्षों तक शुद्ध रूप में कायम रखा। तभी ये दोनों हमें प्राप्त हुईं। जैसे बर्मा के लोगों ने भारत का उपकार माना, क्योंकि यहीं से उन्हें शुद्ध धर्म प्राप्त हुआ; साथ-साथ सम्राट अशोक का भी उपकार माना, जिसके प्रयास से उन्हें धर्म प्राप्त हुआ। इसी प्रकार आज भारत के लोग भी बर्मा का उपकार मानें, और साथ-साथ सयाजी ऊ बा खिन का भी उपकार मानें, जिन्होंने कि बर्मा का कर्ज चुकाने के लिए मुझे पूरी तरह से प्रशिक्षित करके भारत भेजा। इन दोनों के उपकारों की पावन स्मृतियां दीर्घकाल तक बनी रहें, इस निमित्त मेरे मन में एक भव्य स्तूप - विश्व विपश्यना पगोडा के निर्माण की योजना जागी। यह विश्वभर के बुद्धानुयायियों, विशेष करके विपश्यी साधकों को आह्वान करने के लिए एक आकर्षक प्रकाश स्तंभ होगा। इसके लिए 'ग्लोबल विपश्यना फाउंडेशन' का गठन किया जायगा और यह ध्यान रखा जायगा कि इस पगोडा की बनावट बर्मी स्थापत्य एवं वास्तुकला के अनुसार हो ताकि आज ही नहीं, भविष्य में भी लोगों को बर्मा तथा सयाजी ऊ बा खिन के उपकारों की याद आती रहे।
मेरी इस कल्पना के अनुसार पगोडा का निर्माण हुआ जिसमें भारत तथा पड़ोसी देशों के विपश्यी साधकों तथा अन्यान्य बुद्धभक्तों ने श्रद्धापूर्वक दान दिया। किसी ने भी यह सोच कर दान नहीं दिया कि मैं पगोडा का ट्रस्टी बन जाऊंगा अथवा इसका अध्यक्ष बन जाऊंगा अथवा गुरुजी के न रहने पर मालिक बन जाऊंगा। इन दानियों में मुझे एक सर्वश्रेष्ठ दान की याद आती रहती है जिसने मेरी आंखों को सजल बनाया। पगोडा के उद्घाटन समारोह में इसके मुख्य कक्ष (डोम) में दान के लिए एक छोटा-सा कलश रखा गया था। मैंने देखा कि सिर पर उठाकर घर-घर साग-सब्जी बेच कर गुजारा करने वाली डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अनुयायिनी एक महिला ने जब देखा कि भगवान बुद्ध के नाम पर इतना विशाल पगोडा बन रहा है, तब उसने अपनी साड़ी के पल्ले से खोल कर कुछ सिक्के निकाल कर श्रद्धापूर्वक दान-पात्र में डाले, जिनकी खनकती
आवाज ने मुझे भावविभोर बना दिया। उस गरीब महिला का दान कितना सात्त्विक और मूल्यवान था! करोड़ों का दान देने वालों के सामने अधिक सुफलदायी था । वह कुछ ऐसे दान देने वालों की भांति कैसे सोचती कि मैं कभी इस पगोडा की ट्रस्टी या अध्यक्ष बन जाऊंगी या आगे जाकर इसकी मालकिन बन जाऊंगी? बिना कुछ पाने की भावना के साथ दिया गया उस गरीब महिला का यह शुद्ध दान सचमुच इतिहास में याद रखने योग्य होगा। बिना बदले में कुछ पाने की भावना से दिया गया दान ही दान है, नहीं तो व्यवसाय है।
इस पगोडा के परिसर में भगवान बुद्ध के जीवनकाल की एक चित्र-प्रदर्शनी बनी, जिसे बनाने में बर्मा के प्रमुख कलाकार बुलाये गये। ऐसा हो जाने पर इस चित्रकला, वास्तुकला तथा पगोडा की भव्य विशेषता को कायम रखने के लिए जो ट्रस्ट-डीड बना उसमें मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा। इस उत्तराधिकार का एक व्यक्ति विशेष रूप से बर्मी कला तथा पगोडा की बर्मी स्थापत्यकला की देखभाल के लिए जिम्मेदार होगा और दूसरे चार विपश्यना के आचार्य होंगे जो कि विशाल ध्यानकक्ष तथा पगोडा-परिसर में कहीं कोई धर्मविरुद्ध कार्य न हो जाय, इसकी देखभाल करेंगे। अतः इस ट्रस्ट में एक की जगह पांच उत्तराधिकारी नियुक्त करके मैंने ट्रस्ट के मूल प्रावधान को आवश्यकतानुसार निभाया।
तीसरी आवश्यकता यह महसूस हुई कि इस पगोडा के रख-रखाव, अन्यान्य स्मृति-चिह्न और बर्मी वास्तुकला की मरम्मत आदि के लिए के लिए आवश्यक धन की पूर्ति हेतु 'सम्यक वाणिज्य चैरिटेबल ट्रस्ट' का गठन किया जाय। यहां भी गुरु-शिष्य परंपरा का कोई नियम नहीं होने के कारण मेरे द्वारा एक उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया। यानी, विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्रों से अलग केवल इन तीन उपरोक्त प्रतिष्ठानों में ही मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान है।
ये तीनों संस्थाएं मेरे अपने स्वप्नों की उपज हैं। इन तीनों संस्थानों का गठन भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से हुआ है। इन तीनों संस्थाओं को मेरे बाद भी चिर-काल तक स्थायी रखना आवश्यक मानता हूं। इसीलिए इन तीनों में उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया है। अतः इनमें अब जो उत्तराधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, वे अपने बाद अन्य योग्य व्यक्तियों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के कार्यों को करते रहने के लिए नियुक्त करेंगे; ताकि ये तीनों कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुचारुरूप से चलते रहें।
जहां तक गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन द्वारा भारत का कर्ज चुकाने का प्रश्न था, उसके लिए विपश्यना केंद्रों का गठन इसी प्रकार से हुआ, जिनमें पुरातन काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा को ही आधार बनाया गया है। क्योंकि जो लोगों को धर्म सिखाता है और उनमें धर्म जगाता है वही विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्र का उत्तराधिकारी होता है। यहां जो भी आचार्य आज सुनिश्चित हैं या भविष्य में होंगे, वे सब उत्तराधिकारी का ही कार्य करेंगे। इसी कारण इन विपश्यना केंद्रों के गठन में किसी प्रशिक्षित आचार्य को छोड़ कर अन्य किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि जितने भी विपश्यना केंद्र हैं उनके लिए तो प्रशिक्षक आचार्य उत्तराधिकारी होंगे ही, उनके बाद भी जो-जो आचार्य होंगे, वे सब गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर उत्तराधिकारी ही होंगे। इसी कारण इनके ट्रस्ट-डीडों में मेरे द्वारा किसी उत्तराधिकारी की नियुक्ति का वर्णन आवश्यक नहीं समझा गया। परंतु उपरोक्त तीन संस्थान जो कि विपश्यना के प्रशिक्षण के लिए नहीं हैं, उनमें मेरे द्वारा विशेष रूप से उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान अवश्य रखा गया।
यह बात फिर दुहरा दूं और सब को खूब समझ लेनी चाहिए कि धर्म के क्षेत्र पर किसी की मल्कियत नहीं होती -- न उत्तराधिकारियों की, न ट्रस्टियों की, न दान-दाताओं की, न शासनाधिकारियों की। सबको मात्र अपने-अपने जिम्मे का काम करने का अधिकार है। धर्म का सारा कार्य बहुत शांतिपूर्वक चलना चाहिए। किसी के मन में कोई मिथ्या संदेह हो अथवा भ्रांति हो तो मुझसे मिल कर उसे दूर कर ले । मंगल भावनाओं के साथ धर्म का कार्य चलता रहे, इसी में सबका कल्याण है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का
जून 2012 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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🌷 राजकुमार सिद्धार्थ का गृह-त्याग🌷

🌷 राजकुमार सिद्धार्थ का गृह-त्याग🌷
सिद्धार्थ गौतम ने घरद्वार इसलिए नहीं त्यागा की “नारी हुई धन-संपत्ति नासी, मुड़ मुड़ाय हुए सन्यासी”. घर में सारा ऐश-ओ-आराम था, शाक्य वंश का राजकुमार था.
“कालं आग्मेय्य” : दरअसल समय पक गया था और एक लाख कल्प और चार असंख्य कल्प का “संकल्प” पूर्ण होने को आया था.
ये बालक शरीर में बत्तीस लक्षणों को लेकर पैदा हुआ था. ऋषि काल देवल जब इस बालक को देखने आया तो ऋषि की जटाओं में इस अद्भुद बालक का पाँव अटक गया जब ऋषि ने बालक के पाँव को देखा तो पहले प्रसन्न हुआ फिर रोने लग गया. प्रसन्न इसलिए हुआ की उसने देखा की यह बालक निश्चित ही “सम्यक-सम्बुद्ध” बनेगा, लेकिन जब ये सम्यक सम्बुद्ध बनेगा तब तक मै जीवित नहीं रहूँगा इसलिए उदास भी हुआ.
खैर... सोलह (१६) वर्ष की आयु में इस बालक का विवाह हुआ और उनतीस (२९) वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने गृह-त्याग किया, पैंतिस (३५) वर्ष की आयु में वह “सम्यक-सम्बुद्ध” बना और अस्सी (८०) वर्ष की पकी हुयी अवस्था में अंतिम श्वास छोड़ा.
इस व्यक्ति ने तेरह (१३) वर्ष तक बहुत ही संतुष्ट वैवाहिक जीवन का आनंद लिया और गृहस्थी के कर्तव्य-कर्म पूर्ण किये. छः (६) वर्ष मुक्ति के मार्ग की खोज में लगाये और पैतालीस (४५) वर्ष तक मुक्त (Enlightened) जीवन जीया. इन पैतालीस वर्षों तक बस सम्बोधि (विपस्सना) के मार्ग पर खुद भी चला और औरों को भी चलना सिखाया.
🌷 क्या हुआ था उस दिन?
ये बात बिलकुल सही है कि सिद्धार्थ ने उस दिन चार-निमित्त देखे थे. नदी के बटवारे के कारण सिद्धार्थ ने स्वयं जनपद (देश नहीं) छोड़ने का प्रण किया था. लेकिन केवल ये चार निमित्त ही गृह-त्याग के कारण नहीं थे. गृह-त्यागने के समय वह स्वयं एवं यशोधरा दोनों उनतीस वर्ष के थे. आपस में गहरी समझ स्वाभिक थी. उस समय तक उसके पिता और मौसी महाप्रजापति की उम्र अस्सी वर्ष से अधिक हो गयी थी. ऐसी अवस्था में सिद्धार्थ ने घर में अपने पिता और मौसी को तो श्वेतकेशी वृद्धो के रूप में देखा ही. इस उम्र तक उनमे से कोई कभी बीमार भी हुआ होगा. कोई अवश्य मरा भी होगा. अन्य नहीं तो भी शैशव अवस्था में अपनी जननी महामाया की मृत्यु के बारे में सुना ही होगा. किसी श्रमण को देखना भी नितांत नया अनुभव नहीं माना जा सकता क्योंकि वह श्रमण परंपरा का राजपरिवार था. श्रमणों को भिक्षा दान देना उनका सहज गृहस्थ धर्म था.
उस रात इन्हीं चिंतन से, वह - पहले से अधिक उद्दिग्न और संविग्न अवश्य हो उठा होगा वैराग्य का गहन संवेग-आवेग जागा. इसलिए इनको “संवेग-निमित्त” कह सकते है.
गृह-त्यागने के निर्णय वाले दिन ही यशोधरा ने पुत्र राहुल को जन्म दिया. घर लौट कर वह राजमहल के विलासकक्ष में कुछ देर मौन बैठा रहा. देर रात तक नृत्य-गान करती हुयी सभी नर्तकियां थक कर वहीँ अस्त-व्यस्त वस्त्रों में सो गयी. उनकी अवस्था देख कर मन में और अधिक क्षोभ और जुगुप्सा जागी. इससे तत्काल घर छोड़ने का निश्चय दृड़ हुआ.
जाने से पहले नवजात शिशु को एक बार देखने का सोचा, शयनकक्ष का पर्दा हटा कर देखा यशोधरा और राहुल गहरी नींद में है. यशोधरा के हाथ के कारण वह राहुल का चेहरा पूरी तरह नहीं देख पाया. इसके लिए यशोधरा को जगाना उचित नहीं समझा. यशोधरा जागेगी तो शिशु जागेगा. शिशु जागेगा तो उसके रोने की आवाज से पिता शुद्धोधन और मौसी प्रजाप्रती जागेंगे. सेवक सेविकायें जागेंगी. कोलाहल और कुहराम मच जाएगा. गृह त्यागने की योजना असफल हो जाएगी.
अतः शिशु की एक झलक देख कर ही यह निर्णय करके निकल पड़ा कि जब बोधि प्राप्त कर लूँगा, तभी इसे देखने आऊंगा.
🌷 एक बात और - बुद्धत्व (अर्हत्व) प्राप्त करने के लिए दस पारमिताओं को पूर्ण करना होता है उसमे एक “निष्क्रमण” की पारमि भी होती है. गृह-त्याग करना होता है.
राजकुमार ने भी सुन रखा था कि वह गृह-त्याग करेगा तो सम्यक सम्बुद्ध बनेगा और घर में रहेगा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा. अंत में कठिन परिश्रम कर सम्यक सम्बुद्ध बना.
और अपने किये गए निर्णय के अनुसार और पिता शुद्धोधन के निवेदन पर घर आता है यशोधरा से राहुल से मिलता है. यशोधरा सिद्धार्थ गौतम “बुद्ध” को चरण-स्पर्श करती है. राहुल प्रसन्नचित्त से तथागत से मिलता है, मिलते ही उसे इतनी सुखद शांति और शीतलता का अनुभव हुआ कि उसके मुह से निकल पड़ा : “सुखा ते , समण, छाया’ति।“ – “श्रमण, तेरी छाया सुखद है।“
(यह सब प्रकृति की सुव्यवस्थित व्यवथा के तहत ही हो रहा था, धर्म अपना काम कर रहा था.)
(स्त्रोत: पाली वांग्मय त्रिपिटक, वि. वि. वि.)

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*लक्ष्य*

जीवन जीने की कला
*लक्ष्य*
"जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है।” इस सच्चाई का अनुभव बुद्ध की शिक्षा का सारतत्त्व है। चित्त (नाम) और शरीर (रूप) उन प्रक्रियाओं का पुंज (समूह) मात्र हैं जो निरंतर उत्पन्न होती हैं और नष्ट हो जाती हैं। हमारा दुःख तब उत्पन्न होता है जब हम उन प्रक्रियाओं के प्रति, जो वस्तुतः क्षणभंगुर तथा निस्सार हैं, आसक्ति करते हैं । यदि हम इन प्रक्रियाओं की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकें और इनके प्रति तटस्थ बने रहें तब इनके प्रति हमारी आसक्ति समाप्त हो जाती है। साधक यही काम करते हैं। वे अपने अंदर की क्षण-क्षण बदलती संवेदनाओं को देखकर उनकी अनित्य प्रकृति को समझते हैं और जब कोई संवेदना प्रकट होती है तब वे प्रतिक्रिया नहीं करते अपितु समता बनाए रखते हैं। ऐसा करके वे अपने चित्त के पुराने संस्कारों को ऊपरी सतह पर आने पर नष्ट हो जाने देते हैं। जब सारे संस्कार और आसक्ति समाप्त हो जाती है, तब दुःख समाप्त हो जाता है और हम मुक्ति का अनुभव करते हैं। यह एक लंबे समय का काम है जिसमें लगातार अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधना मार्ग के
प्रत्येक चरण पर लाभ प्रकट होते हैं लेकिन उनकी प्राप्ति के लिए लगातार बार-बार प्रयास करने की आवश्यकता होती है। केवल धैर्य और दृढतापूर्वक निरंतर काम करके साधक अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है।
*परम सत्य का प्रतिवेधन*
इस मार्ग पर प्रगति के तीन चरण हैं। पहला है केवल विधि (तकनीक) के बारे में जानना कि यह क्यों और कैसे की जाती है। दूसरा है इसका अभ्यास। तीसरा है प्रतिवेधन, अपने बारे में सच्चाई का गहराई तक प्रतिवेधन करने के लिए विधि का प्रयोग करते हैं जिससे कि परम लक्ष्य निर्वाण तक पहुँचा जा सके।
बुद्ध ने प्राणियों के- अपने तथा अन्यों के आकार, रूप, रंग, स्वाद, गंध, दुःख, सुख, विचार और चित्तवृत्तियों के प्रकट संसार के अस्तित्व को इनकार नहीं किया । उन्होंने केवल इतना कहा कि ये परम सत्य नहीं हैं, बल्कि ये क्षणभंगुर हैं। सामान्य दृष्टि से हम केवल बड़े पैमाने वाळे ढांचे को समझते हैं
जिसमें अधिक सूक्ष्म प्रपंच का अपने आप आविर्भाव होता रहता है। केवल ढांचे को देखने से और उनके अंतर्निहित घटकों को न देखने से, हम प्रथमतः उनकी भिन्नताओं से परिचित होते हैं। अतः उनमें भेद करते हैं, उन पर लेबल लगाते हैं, उनके प्रति अभिरुचि और पूर्वाग्रह रखते हैं, उनको पसंद-नापसंद करना प्रारंभ करते हैं जो प्रक्रिया अंततः राग-देष में विकसित होती है।
राग-देष की आदत से उबरने के लिए न केवल एक संपूर्ण दृष्टि का होना आवश्यक है, बल्कि वस्तुस्थित को उनकी गहराई में देखना, अंतर्निहित तथ्यों को समझना भी आवश्यक है, जो प्रकट सत्य का निर्माण करते हैं। ठीक यही बात विपश्यना का अभ्यास हमे करने के लिए कहता है।
स्वभावतः आत्मनिरीक्षण स्वयं के सर्वाधिक स्पष्ट रूप- शरीर के विभिन्न भाग, विभिन्न अंग तथा अवयव से आरंभ होता है। गहरे (पैने) निरीक्षण से प्रकट होता है कि शरीर के कुछ भाग ठोस, कुछ द्रव, कुछ गतिशील अथवा स्थिर हैं। संभवतः हम शरीर के तापमान को अपने चारों ओर के वातावरण के तापमान से भिन्न समझते हैं। ये सभी निरीक्षण अधिक आत्मजागरूकता के विकास में सहायता कर सकते हैं तदपि वे सभी आत्मनिरीक्षण, भासमान सत्य को संघटित आकार अथवा रूप में देखने के परिणाम हैं। परिणामस्वरूप, भेद जैसे- अभिरुचि, पूर्वाग्रह, राग तथा द्वेष बने रहते हैं।
साधक के रूप में अपने अंदर की संवेदनाओं को देखने का अभ्यास करके हम आगे बढ़ते हैं। ये संवेदनाएं वस्तुतः एक सूक्ष्मतर सच्चाई को प्रकट करती हैं जिनके बारे में पहळे हम कुछ नहीं जानते थे । प्रथमतः हम शरीर के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाओं से परिचित होते हैं। जो उत्पन्न होतीं हैं, कुछ देर के लिए रुकती हैं और अंततः नष्ट हो जाती हैं। यद्यपि हम सतही स्तर से आगे निकल गए हैं, फिर भी अभी हम प्रकट, भासमान सत्य के सामूहिक ढांचे को ही देख रहे हैं। इस कारण हम अभी भेदभाव तथा राग, देष से मुक्‍त नहीं हुए हैं।
यदि हम परिश्रमपूर्वक अभ्यास जारी रखें, तो देर-सवेर हम एक ऐसी अवस्था पर पहुँचते हैं जहां संवेदनाओं का स्वभाव बदलता है। अब हम सारे शरीर में एक तरह की सूक्ष्म संवेदनाओं को जानते हैं जो बहुत तेज गति से उत्पन्न और नष्ट होती हैं। हमने संघटित ढांचे से परे प्रतिवेधन किया है जिससे हम उस अंतर्निहित तथ्य को, नन्हें-नन्हें परमाणु कणों को, जिनसे सभी पदार्थ बने हैं, जिनसे उनकी रचना हुई है, को समझ सकें। हम इन कणों की क्षणभंगुर प्रकृति
को, इनके निरंतर उदय-व्यय होने का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अब हम अंदर जो कुछ देखते हैं, रक्‍त अथवा अस्थि, ठोस, द्रव, गैस चाहे सुंदर अथवा असुंदर, उन सबको एक कंपन ही कंपन समझते हैं जिनमें एक दूसरे से भेद नहीं किया जा सकता। अंततोगत्वा उनके भेदीकरण और लेबल लगाने की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। हमने अपने शरीर में ही पदार्थ के परमार्थ सत्य, उसकी निरंतर गतिशीलता, तथा उदय-व्यय का अनुभव कर लिया।
इसी प्रकार मानसिक प्रक्रियाओं के भासमान सत्य का सूक्ष्मतर स्तर पर प्रतिवेधन किया जा सकता है। रुचि-अरुचि की प्रतिक्रिया होती है। दूसरे क्षण मन रुचि तथा अरुचि की प्रतिक्रिया को दुहराता है और इसे बलवती बनाता है जब तक कि ये राग-द्वेष नहीं बन जाती हैं। हमें केवल घनीभूत प्रतिक्रिया की जानकारी होती है। इस सतही समझ से हम उनकी पहचान करने लगते हैं और उनको सुखद-द्‌;खद, अच्छा-बुरा, चाही-अनचाही रूप में देखने लगते हैं। परंतु जैसा कि भासमान भौतिक शारीरिक सच्चाई के मामले में होता है, वैसे ही चित्त की ठोस वृत्तियों में भी होता है जब हम अंदर की संवेदनाओं को देखने लगते हैं,
ये विघटित हो जाते हैं। जैसे रूप उप आणविक कणों की तरंगों के सिवा और कुछ नहीं, उसी तरह प्रबल मनोवेग भी क्षणिक रुचि-अरुचि, संवेदनाओं की
क्षणिक प्रतिक्रियाओं का केवल संघटित रूप है। एक बार जब प्रबल मनोवेग भी सृक्ष्मतर रूप में विघटित हो जाता है तो अभिभूत करने की इनकी शक्ति नहीं रह जाती है।
शरीर के विभिन्न भागों में विभिन्न स्थूळ संवेदनाओं को देखने से हमें लगातार उदय-व्यय होने वाली एक तरह की संवेदनाओं की जानकारी होती है। पूरे शरीर की संवेदनाएं बड़ी तीव्र गति से उत्पन्न और नष्ट होती हैं, उनका अनुभव कंपनों के प्रवाह की तरह, पूरे शरीर में बहने वाली धारा की तरह किया जा सकता है। हम जब कभी अपना ध्यान शारीरिक संरचना के अंदर ले जाते हैं, हमें उदय-व्यय के अतिरिक्त किसी और चीज का ज्ञान नहीं होता है। जब मन में कोई विचार
प्रकट होता है तब हमें उसके सहचारी शारीरिक संवेदनाओं के उदय-व्यय की
जानकारी होती है। शरीर और मन का भासमान घनत्व पिघल जाता है और हमें
रूप, नाम और संस्कारों के परमार्थ सत्य का अनुभव होता है जो कंपन, दोलन और तीव्र वेग के साथ होने वाळे उदय-व्यय के अतिरिक्त कुछ नहीं।
इस सत्य का अनुभव करने वाले (बुद्ध) ने कहा है --
*सब्बो आदीपितो लोको, सब्बो लोको पथधूपितो।*
*सब्बो पज्जलितो लोको, सब्बो लोको पकम्पितो॥*
सारे लोक संतप्त ही संतप्त हैं, सारे ठोक संतापित ही संतापित हैं।
सारे लोक प्रज्वलित ही प्रज्वलित हैं, सारे लोक प्रकंपित ही प्रकंपित हैं |
भंग के इस सोपान पर पहुँचने के लिए साधक को जागरूकता तथा समता के विकास के अतिरिक्त और कुछ करने की आवश्यकता नहीं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अधिक सूक्ष्म तथ्यों को अपने माइक्रोस्कोप के ताल लैस को बढ़ाकर देखता है, उसी प्रकार जागरूकता और समता का विकास करके साधक अपने अंदर की सूक्ष्मतर सच्चाइयों को देखने के लिए अपनी क्षमता को बढ़ाता है।
यह अनुभव जब होता है, वस्तुतः बहुत सुखद होता है। सभी दर्द और पीड़ाएं मिट जाती हैं, संवेदना-विहीन सभी क्षेत्र लुप्त (गायब) हो जाते हैं। व्यक्ति शांति, सुख और परमानंद का अनुभव करता है। बुद्ध इसका वर्णन इस प्रकार करते हैं -
*यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं।*
*लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानतं॥*
साधक (सम्यक सावधानता के साथ) जब-जब (शरीर और चित्त) स्कंधों के उदय-व्यय रूपी अनित्यता की विपश्यना द्वारा अनुभूति करता है, तब-तब उसे प्रीति-प्रमोद (रूपी अध्यात्मक-सुख) की उपलब्धि होती है। ज्ञानियों के लिए यह अमृत है। साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने से परमसुख का उदय होना ही है, जब मन और शरीर का भासमान घनत्व (ठोसपना) पिघल जाता है। इस सुखद स्थिति के आह्लाद से हम यह सोच सकते हैं कि यह अंतिम लक्ष्य है। लेकिन यह केवल मार्ग के बीच का पड़ाव (स्टेशन) है। इस बिंदु से, हम मन और शरीर के परे परमार्थ सत्य के अनुभव के लिए, दुःख से पूर्ण मुक्ति की प्राप्ति के लिए और आगे बढ़ते हैं|
बुद्ध के इन शब्दों का अर्थ हमारी अपनी विपश्यना साधना से बहुत स्पष्ट हो जाता है। प्रकट सत्य से सूक्ष्म सत्य का प्रतिवेधन करते हुए हम सारे शरीर में कंपनों के धाराप्रवाह का रस लेना शुरू कर देते हैं। यों करते हुए जब अचानक धाराप्रवाह गायब हो जाता है तब फिर शरीर के कुछ भागों में घनीभूत, दुःखद संवेदना का अनुभव करते हैं और दूसरे भागों में संभवतः कोई संवेदना नहीं भी
होती है तब हम फिर मन में प्रबल वृत्तियों का अनुभव करते हैं। इस प्रकार यदि हम इस नयी स्थिति के प्रति देष अनुभव करने लगते हैं और धारा-प्रवाह के वापस लौटने की लालसा करते हैं, तो हमने विपश्यना को नहीं समझा। हमने इसे एक खेल बना दिया जिसमें हमारा लक्ष्य सुखद संवेदनाओं को प्राप्त करना और दुःखद को दूर करना है। यह तो वही खेल हुआ जिसे हम जिंदगी भर खेलते रहे, खींच-तान, आकर्षण-विकर्षण का कभी न खत्म होने वाला चक्कर, जो दुःख के अलावा और कुछ नहीं देता है।
फिर भी, जैसे-जैसे प्रज्ञा बढ़ती है, हम समझते हैं कि भंग के अनुभव के बाद भी स्थूल संवेदनाओं का फिर लौटना हमारे पीछे जाने का नहीं अपितु आगे बढ़ने का संकेतक है। हम विपश्यना की साधना किसी विशेष प्रकार की संवेदना के अनुभव के उद्देश्य से नहीं करते हैं अपितु चित्त को सभी संस्कारों से मुक्त बनाने के लिए करते हैं। यदि हम किसी संवेदना के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, तो हम अपना दुःख बढ़ाते हैं। यदि हम समता में रहते हैं तो कुछ संस्कार गुजर जाते
हैं, संवेदना हमारे लिए दुःखों से मुक्त करने का साधन बन जाती है। बिना किसी प्रतिक्रिया के दुखद संवेदनाओं को देखकर हम देष का उन्मूलन करते हैं। बिना किसी प्रतिक्रिया के सुखद संवेदनाओं को देखकर हम राग का उन्मूलन करते हैं। बिना किसी प्रतिक्रिया के अदुःख-असुख संवेदनाओं को देखकर हम मोह, अज्ञान का उन्मूलन करते हैं। अतः कोई भी संवेदना, कोई भी अनुभव तत्त्वतः अच्छा या बुरा नहीं है। यदि हम समता में हैं तो हर संवेदना अच्छी है, यदि हम अपनी समता खोते हैं, तो यह बुरी है।
इस समझ के साथ हम प्रत्येक संवेदना का उपयोग संस्कार-उन्मूलन के लिए एक उपकरण के रूप में करते हैं। हर अवस्था संस्कार-उपेक्षा यानी सभी संस्कारों के प्रति समता भाव की है जो विभिन्न चरणों से गुजरती हुयी क्रमशः मुक्ति के चरम सत्य निर्वाण तक पहुँचाती है।
*मुक्ति की अनुभूति*
मुक्ति संभव है। व्यक्ति सभी संस्कारों, सभी दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ने इसकी व्याख्या की है -
*“अत्थि भिक्खवे, तदायतनं, यत्थ नेव पथवी, न आपो, न तेजो, न वायो, न*
*आकासानञ्चायतनं, न विञ्ञाणञ्चायतनं, न आकिञ्चञ्ञायतनं, न*
*नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं, नायं लोको, न परलोको, न उभो चन्दिमसूरिया। तत्रापाहं,*
*भिक्खवे, नेव आगतिं वदामि, न गतिं न ठितिं, न चुतिं, न उपपत्तिं; अप्पति,*
*अप्पवत्तं, अनारम्मणमेवेतं । एसेवन्तो दुक्खस्सा”ति।”*
यह एक ऐसा अनुभव क्षेत्र है जो संपूर्ण रूप जगत, संपूर्ण नाम जगत से परे है, जो न तो इहलोक है, न परलोक है और न दोनों है। न चंद्रमा है, न सूर्य है। इसे मैं न तो उदय-व्यय, न स्थिर, न जन्म, न पुनर्जन्म कहता हूं। यह बिना आधार का, बिना विकास का, बिना नींव का है । यह दुःख-निरोध है।”
उन्होंने यह भी कहा-
*“अत्थि, भिक्खवे, अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं। नो चेतं, भिक्खवे, अभविस्स*
*अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं, नयिध जातस्स भूतस्स कतस्स सङ्घतस्स निस्सरणं*
*पञ्ञायेथ । यस्मा च खो, भिक्खवे, अत्थि अजातं अभूतं अकतं असङ्घतं, तस्मा*
*जातस्स भूतस्स कतस्स सङ्घतस्स निस्सरणं पञ्ञायती”ति।*
निर्वाण, अजात, अभूत, अकृ त, असंस्कृत है। यदि वह अजात, अभूत, अकृत, असंस्कृत नहीं होता तो जातकृत, भूतकृत, संस्कृत से मुक्ति नहीं जानी जाती | क्योंकि वह अजात.... है इसलिए जात, भूत....से मुक्ति जानी जाती है|
निर्वाण कोई ऐसी अवस्था नहीं है जहां मृत्यु के पश्चात लोग जाते हैं। इसका अनुभव हमें यहीं, अभी, हमारे अंदर होता है। निषेध के रूप में इसका समस्त वर्णन नकारात्मक शब्दों में किया जाता है इसलिए नहीं कि यह एक निषेधात्मक अनुभव है अपितु इसलिए कि इसके वर्णन के ठिए हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है। प्रत्येक भाषा के पास भौतिक और मानसिक तथ्यों के क्षेत्र को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द होते हैं परंतु जो कुछ मन और शरीर के परे है उसके वर्णन के लिए शब्द अथवा अवधारणाएं नहीं होतीं। यह (निर्वाण) सभी प्रकार की श्रेणियों, सभी प्रकार की भिन्नताओं का खुळे आम विरोध करता है। हम इसका वर्णन, जो कुछ यह नहीं है, उसके कथन द्वारा ही कर सकते हैं।
वस्तुतः निर्वाण की व्याख्या करना निरर्थक है। कोई भी वर्णन भ्रामक होगा। इसके लिए विवेचना और तर्क करने की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है इसका अनुभव करना। बुद्ध ने कहा-
*इदं दुक्खनिरोधं अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे पुब्बे अननुस्मुतेसु धम्मेसु चक्खु*
*उदपादि, णं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि ।*
कि “दुःख निरोध आर्य सत्य' का अनुभव स्वयं करना है। जब किसी ने निर्वाण का अनुभव कर लिया तभी यह उसके लिए वास्तविक है। तब उससे संबंधित सभी तर्क अप्रासंगिक हो जाते हैं।
मुक्ति के परम सत्य के अनुभव के लिए हमारे लिए पहले प्रकट सच्चाई के परे का प्रतिवेधन और शरीर तथा मन की भंगावस्था का अनुभव करना आवश्यक है। साधक प्रकट सत्य से परे जितना अधिक प्रतिवेधन करता है उतना अधिक राग, देष और आसक्ति को छोड़ता है तथा परमार्थ सत्य के अधिक निकट पहुँचता है। विभिन्न चरणों में काम करते हुए साधक स्वाभाविक रूप से
एक ऐसे सोपान पर पहुँचता है जहां अंतिम चरण निर्वाण का अनुभव है। इसके लिए लालायित होने की कोई बात नहीं, उसके आने के बारे में संदेह करने का कोई कारण नहीं। इसे उन सबके पास आना ही चाहिए जो सही ढंग से धर्म धारण करते हैं। यह कब आयगा कोई नहीं कह सकता। यह अंशतः प्रत्येक व्यक्ति में संचित संस्कार पर और अंशतः उनके उन्मूलन के लिए किए गए उसके प्रयास पर निर्भर करता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए कोई इतना ही कर सकता है और इतना ही करना आवश्यक है कि बिना प्रतिक्रिया किए प्रत्येक संवेदना को देखना जारी रखे।
हम यह तय नहीं कर सकते कि हम परम सत्य निर्वाण का अनुभव कब करेंगे। परंतु यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि हम इसकी ओर प्रगति करते जा रहे हैं। हम चित्त की वर्तमान अवस्था का नियंत्रण कर सकते हैं। हमारे बाहर या भीतर जो कुछ भी होता हो, अपनी समता बनाए रखकर हम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करते हैं। बुद्ध ने या जिसने भी इस परम सत्य को प्राप्त किया, यही कहा है-
“यो खो, आबृसो, रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो- इदं वुच्चति निब्बान”न्ति”
“राग का निरोध, देष का निरोध, मोह का निरोध, निर्वाण है।' उस सीमा पर पहुँच कर
जहां चित्त इनसे मुक्त हो जाता है, साधक मुक्ति का अनुभव करता है।
प्रत्येक क्षण जब हम ठीक प्रकार से विपश्यना का अभ्यास करते हैं, इस मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। आखिर धम्म की परिभाषा ही है कि मुक्ति का फल यहीं और अभी मिलना चाहिए, न कि भविष्य में । साधना के मार्ग के प्रत्येक चरण पर हमें इसके लाभ का अनुभव होना चाहिए । प्रत्येक चरण सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ना ही चाहिए। इस क्षण संस्कारों से मुक्त जो चित्त है, वह परम शांत होता है। ऐसा प्रत्येक क्षण हमें पूर्ण मुक्ति के निकट ले जाता है।
हम निर्वाण के विकास के लिए प्रयास नहीं कर सकते क्योंकि निर्वाण का विकास नहीं होता है, यह एक अवस्था है। लेकिन हम उस गुण के विकास की कोशिश कर सकते हैं जो हमें निर्वाण तक ले जाता है। यह गुण है समता | प्रत्येक क्षण जब हम प्रतिक्रिया किए बिना सच्चाई का निरीक्षण करते हैं, परम सत्य का प्रतिवेधन करते हैं। सच्चाई की पूर्ण जागरूकता पर आधारित समता मन का सर्वोच्च गुण है।
*वास्तविक सुख*
एक बार बुद्ध से यह समझाने के लिए कहा गया कि वास्तविक सुख क्या है? उन्होंने अनेक कुशल कर्मों के नाम गिनाये जो ऐसे सुख के उत्पादक हैं, जो वास्तविक उत्तम मंगल है। इन मंगल धर्मों की दो श्रेणियां हैं - अर्थात परिवार और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति करते हुए ऐसे कर्म करना जो दूसरों का हित संपादन करते हैं और ऐसे कर्म करना जो चित्त को निर्मल बनाते हैं। दूसरों के हित से अपना हित अलग नहीं किया जा सकता है। अंत में उहोंने कहा--
*फुस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न. कम्पति।*
*असोकं विरजं खेमं, एतं मंगल्मुत्तमं॥*
जिसका चित्त लोकधर्मों (लाभ-हानि, निंदा-प्रशंसा, यश-अपयश, सुख-दुःख) से कंपित नहीं होता, वह निःशोक, निर्मल तथा निर्भय रहता है - यह उत्तम मंगल है।
अपने शरीर-स्कंध और चित्त-स्कंध के छोटे-से-छोटे भाग में अथवा बाहरी दुनिया में कुछ भी होता हो, बिना तनाव के अथवा बिना राग, द्वेष किये, पूरी सहजता और मुस्कान के साथ व्यक्ति उसका सामना करने में समर्थ होता है। प्रत्येक स्थित में चाहे वह सुखद-दुःखद हो, इच्छित-अनिच्छित हो उसे कोई चिंता नहीं होती। अनित्यता की समझ के साथ वह पूर्ण सुरक्षित अनुभव करता है, यह
उत्तम मंगल है।
यह जानते हुए कि आप स्वयं अपना मालिक हैं और कुछ भी आपको अभिभूत नहीं कर सकता, जीवन जो कुछ आपको देता है, उसे मुस्कराते हुए आप स्वीकार कर सकते हैं- यह मन की पूर्ण समता है, यह वास्तविक मुक्ति है। विपश्यना अभ्यास के द्वारा इसे हम यहीं और अभी प्राप्त कर सकते हैं। वास्तविक समता केवल अभावात्मक अथवा निष्क्रिय अलगाव नहीं है। यह किसी ऐसे
व्यक्ति की अंध स्वीकृति अथवा भावशून्यता नहीं है जो जीवन की समस्याओं से पलायन चाहता है, अथवा जो रेत में अपना सिर छिपाने की कोशिश करता है बल्कि यह चित्त के वास्तविक संतुलन, समस्याओं के प्रति पूर्ण जागरूकता तथा सच्चाई के सभी स्तरों की जागरूकता पर आधारित है।
राग अथवा देष के अभाव का अभिप्राय निर्मम उदासीनता की मनोवृत्ति नहीं है जिसमें व्यक्ति स्वयं की मुक्ति का आनंद लेता है और दूसरों के दुःखों पर कोई ध्यान नहीं देता । इसके विपरीत वास्तविक समता को ठीक ही “पवित्र उपेक्षा" कहा गया है। यह एक गत्यात्मक गुण है, चित्त-विशुद्धि की अभिव्यक्ति है। मन जब अंध प्रतिक्रिया की आदत से मुक्‍त हो जाता है, तब सचमुच सकारात्मक कर्म कर सकता है जो रचनात्मक, उत्पादक एवं स्वयं तथा दूसरों के लिए लाभकारी ही होता है। उपेक्षा के साथ विशुद्ध मन के अन्य गुण उपजते हैं; मैत्री अर्थात बदले में कोई चीज चाहे बिना दूसरों का हित संपादन करना, दूसरों की विफलता और दुःख में उनके प्रति करुणा और उनकी सफलता और सौभाग्य में मुदिता। ये चार
गुण (ब्रह्म विहार) विपश्यना अभ्यास के अपरिहार्य परिणाम हैं।
पहले व्यक्ति हमेशा जो कुछ अपने लिए अच्छा था, उसे अपने पास रखने की कोशिश करता था और जो कुछ अनिच्छित था, उसे दूसरों के लिए छोड़ देता था। अब वह समझ गया है कि दूसरों की खुशी की कीमत पर अपनी खुशी प्राप्त नहीं की जा सकती है। दूसरों को खुशी देने में ही स्वयं को खुशी मिलती है। इसलिए व्यक्ति के पास जो कुछ अच्छा है, वह उसे दूसरों के साथ बांटना चाहता है। दुःखों से उबरने और मुक्ति का अनुभव करने पर व्यक्ति समझता है कि यही सबसे बड़ा मंगल है। इस प्रकार व्यक्ति चाहता है कि दूसरे भी इस मंगल का अनुभव करें और अपने दुःखों से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ निकालें।
विपश्यना ध्यान की तार्किक परिणति है- मेत्ता भावना अर्थात दूसरों के प्रति मैत्री का विकास | पहळे इस भावना के प्रति कोई दिखावटी प्रेम दिखाता होगा परंतु उसके अंतर्मन की गहराई में राग, देष की वही पुरानी प्रक्रिया चलती रहती थी। अब कुछ सीमा तक प्रतिक्रिया की प्रक्रिया बंद हो गई है। अहंकार की पुरानी आदत चली गई है और अंतर्मन की गहराई से सद्भावना का स्रोत स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होने लगा है। इसके पीछे लगी शुद्ध चित्त की संपूर्ण शक्ति के साथ यह सद्भावना सबके हित के लिए एक शांत, सामंजस्यपूर्ण वातावरण निर्माण करने के लिए बहुत बलशाली हो सकती है।
कुछ ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि सदा संतुलित बने रहने अर्थात समता में बने रहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति जीवन के संपूर्ण वैविध्य का आनंद नहीं उठा सकता मानो कि एक चित्रकार के पास विविध रंगों से भरी रंगपट्टिका है और वह केवल भूरे रंग का प्रयोग करना चाहे अथवा किसी के पास पियानो है और वह केवल मध्य 'सी' का स्वर बजाना चाहे। यह समता की गलत समझ है।
वास्तविकता यह है कि पिआनो बेसुरा है और हम उसे बजाना नहीं जानते।
आत्माभिव्यक्ति के नाम पर महज कुंजियों को दबाने से केवल बेसुरापन उत्पन्न होगा। लेकिन यदि हम उस वाद्ययंत्र का सुर मिलाना सीख ळें और उसे ठीक ढंग से बजाएं तो हम संगीत उत्पन्न कर सकते हैं। जब निम्नतम स्वर से उच्चतम स्वर तक कुंजी पटल की पूरी श्रेणी का हम उपयोग करते हैं तब प्रत्येक स्वर जिसे हम बजाते हैं, सौंदर्य एवं समरसता की सृष्टि करता है।
बुद्ध ने कहा कि चित्त-शुद्धि तथा पूर्ण प्रज्ञा प्राप्ति के द्वारा व्यक्ति उल्लास, परमानंद, प्रशब्थि, जागरूकता, पूरी समझ और सच्चे सुखों का अनुभव करता है।' एक संतुलित चित्त से, समताभरे चित्त से हम जीवन का और अधिक आनंद उठा सकते हैं। जब एक सुखद स्थिति प्रकट होती है, तब हम वर्तमान क्षण की पूर्ण एवं निर्विघ्न जागरूकता के साथ, इसका पूरा स्वाद ले सकते हैं। लेकिन जब यह अनुभव समाप्त हो जाता है, तब दु:खी नहीं होते हैं। यह समझते हुए कि इसका परिवर्तन होना ही था, हम मुस्कराते रहते हैं। इसी प्रकार जब कोई दुःखद स्थिति प्रकट होती है, तब परेशान नहीं होते हैं।इसकी बजाय, हम इसे समझते हैं और ऐसा करके संभवतः इसको बदलने का कोई रास्ता ढूंढते हैं। यदि यह हमारे सामर्थ्य में नहीं है तो भी यह अच्छी तरह जानते हुए कि यह अनुभव अनित्य है और इसे समाप्त होना ही है, हम शांत बने रहते हैं। इस प्रकार अपने मन को तनावमुक्त रखकर, हम अधिक आनंददायक और रचनात्मक जीवन जी सकते हैं।
एक कहानी है कि बर्मा में लोग सयाजी ऊ बा खिन के शिष्यों की यह कहकर आलोचना करते थे कि उनमें विपश्यना साधना करने वाले व्यक्ति के उपयुक्त गंभीर आचरण का अभाव है। एक शिविर में आलोचकों ने स्वीकार किया कि जैसा चाहिए था वैसा उन्होंने गंभीरतापूर्वक काम किया और बाद में वे हमेशा प्रसन्नता से मुस्कराते रहे। जब यह आलोचना देश के एक सर्वाधिक आदरणीय भिक्षु बेबू सयाडो के पास पहुँची, उन्होंने उत्तर दिया, “वे मुस्कराते हैं, इसलिए कि वे मुस्करा सकते हैं।' यह मुस्कराहट आसक्ति अथवा मोह की न होकर धम्म की थी। जिसने अपने चित्त को शुद्ध कर लिया है वह अपना तेवर चढ़ाकर नहीं घूमता फिरेगा। जब दुःख का निवारण हो जाता है, तब मुस्कराना स्वाभाविक है। जब कोई मुक्ति का मार्ग सीख लेता है तब यह स्वाभाविक है कि वह सुख का अनुभव करता है।
यह हार्दिक मुस्कराहट शांति, समता और सद्भावना की अभिव्यक्ति करती है, जो मुस्कराहट प्रत्येक स्थिति में विद्यमान रहती है, वही वास्तविक प्रसन्नता है।
यही धम्म का लक्ष्य है।
- अध्याय - ९ ( जीवन जीने की कला )

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गुरुवार, 23 जनवरी 2020

कर्म-सिद्धांत और उनके फल

कर्म-सिद्धांत और उनके फल
{ यह लंबा पत्र पूज्य गुरुदेव ने बर्मा से भारत आकर बसे अपने छोटे भाई राधेश्याम को लिखा था l यह पत्र साधको के लाभर्थ प्रकाशित किया जा रहा है l }
रंगून’ 10-09-1966
प्रिय राधे आशीष!
तुम्हारा 29-08-66 का पत्र मिला । इसके पूर्व भी एक पत्र में कर्म-सिद्धांत पर उठाये गये तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना बाकी है। पहले उसी प्रश्न से निपट लूं।
‘मिलिंद प्रश्न" में राजा मिलिंद ने भिक्षु नागसेन के सन्मुख यह प्रश्न उपस्थित क्रिया था। मिलिंद के प्रश्न का नागसेन ने जो उत्तर दिया उसके मुताबिक यह सिद्ध हुआ कि जो बिना जाने पाप करता है, उसे अधिक पाप लगता है। मिलिंद के प्रश्न को और नागसेन के संक्षिप्त उत्तर को एक और रख कर हम इस जाने और अनजाने किये गये पापों के संबंध में जरा विस्तार तो समझने का प्रयत्न करें । मैं इस समस्या को तीन भागों में बांट देना चाहता हूँ ।
सर्वप्रथम हम बुद्धकालीन उस अरहंत भिक्षु की चर्चा करें जो चक्षु-विहीन है और प्रात: ब्रह्म-मुहुर्त में उठ कर अपनी कुटिया के सामने घास के मैदान में चहल-कदमी करता हुआ अपनी स्मृति कायम रखता है। उसकी इस चहल-कदमी से धरती पर चलने वाली कुछ एक बीर-बहूटिया दब कर मर जाती हैं जिसकी उस को किंचित भी जानकारी नहीं होती । आसपास के लोग इस बात देख कर भगवान के पास शिकायत लेकर जाते हैं कि अमुक भिक्षु चहल-कदमी करते हुए जीव-हिंसा के दोष का भागी बन रहा है।
भगवान उन शिकायत करने वालों को फटकारते हुए उस भिक्षु को निर्दोष सिद्ध करते है । एक तो इसलिए कि यह चक्षु-विहीन है, अत: नहीं जानता कि उसके पाँव के नीचे दब कर किसी भी जीव की हत्या हो गयी है । दूसरे यह अरहंत है, अत: उसके मन में किसी भी प्राणी की हिंसा करने की वृत्ति उत्पन्न ही नहीं हो सकती ।
हमारे लिए पहला भाग ही अधिक महत्त्व का है क्योंकि अरहंत नहीं होने के कारण यहीं हमसे अधिक संबंधित है । हम भी इसी प्रकार अनजाने में कितने ही प्राणियों की हिंसा चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते और यहाँ तक कि श्वास लेते-छोड़ते हुए करते रहते है । मैं नहीं मानता कि यह हिंसा हमें किसी प्रकार के भी पाप का भागी बनाती है ।
जब तक हिंसा करने के लिए हमारे मन में हिंसक वृति नहींउत्पन्न होती - ऐसी वृत्ति जो हमें सक्रिय हिंसा करने के लिए प्रेरित करती है और हिंसा कर लेने के बाद संतोष और प्रसन्नता का भाव प्रकट करती है - ऐसी हिंसक वृत्ति के अभाव में की गई हिंसा पापमयी हिंसा नहीं ही कही जा सकती । परंतु कुछ लोग हिंसा को खींच कर अतियों तक ले जाते है और उससे बचने के लिए कई प्रकार के उपक्रम करते है। वे नहीं समझते कि ऐसे उपक्रम सूक्षम हिंसा से बचा नहीं सकते, बल्कि बढा भी सकते है । इसीलिए भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाया। व्यक्ति यथासंभव सजग हो और मन में हिंसक वृति न हो, यहीं पर्याप्त है ।
अब हिंसा का एक उदाहरण लें। बार-बार एक मक्खी या मच्छर हमारे मुँह के पास आकर भनभना जाता है । उसकी इस क्रिया से हमारा सिर भन्ना उठता है और क्रोध में झल्लाते हुए हम दोनों हाथों से ताली पीट कर उस मच्छर या मक्खी को मसल देने का प्रयत्न करते है। बार-बार के इस प्रयत्न से भी यह मच्छर या मक्खी हमारी ताली की पकड़ में न आये तो इससे हमारी झुंझलाहट और बढती है। हम अधिक सचेष्ट होते है और किसी प्रकार प्रयत्न करके उसे आखिर पीस ही देते हैं । ऐसा कर लेने के बाद मन में एक प्रकार का आत्मसंतोष और आह्लाद उत्पन्न होता है । यह हिंसा हुई ।
अब इस हिंसा के दो भाग करें । एक व्यक्ति ऐसी हिंसा करते हुए यह नहीं जानता, मानता कि मैं पापकर्मं कर रहा हूँ । उसे इस कार्य में आह्लाद होता है और उसका मन बार-बार करने के लिए प्रेरित होता है। एक अन्य व्यक्ति भी यही कर्म करता है, परंतु वह जानता है कि यह पापकर्म कर रहा है अत: क्रोध और झुंझलाहटबश हिंसा कर तो देता है पर जरा झिझकता है और हिंसा कर देने के बाद भी जरा-सा पश्चाताप करता है । अत: जितने क्षण यह झिझक में निकालता है अथवा पश्चाताप में निकालता है, उतने क्षण तो कुशल क्षण है, अकुशल नहीं । दूसरी ओर पाप न मानता हुआ बेझिझक और बिना पश्चात्ताप के हिंसा करने वाला व्यक्ति शत-प्रतिशत पाप का भागी है । अत: पहले से अधिक दोषी हुआ ही । नागसेन ने इसी को ध्यान में रख कर मिलिंद को उत्तर दिया होगा और इसी कारण मिलिंद संतुष्ट हुआ होगा ।
बुद्ध की साधना में मन को बहुत महत्त्व दिया गया है - "मनोपुब्बड़गमा धम्मा, मनोसेठ्ठा मनोमया" । इसीलिए कायिक और वाचिक कर्मों की तुलना में मानसिक कर्म का महत्व अधिक माना गया है । हर एक कायिक और वाचिक कर्म को उस समय की हमारी मानसिक स्थिति से आंका-तोला जाता है और उसी के अनुसार पाप या पुण्य की मात्रा कम या अधिक मानी जाती है। इस परिपेक्ष्य में विभिन्न प्रकार की हिंसाओ के फल को समझा जा सकता है जैसे -
1- एक डाकू धन के लोभ में किसी राहगीर के पेट में चाकू मार बार उसकी हत्या बार देता है ।
2- ऐसे की कोई डॉक्टर ओँपरेशन थियेटर में किसी रोगी के पेट का आपरेशन करता है और ऐसा करते हुए रोगी की मृत्यु का कारण बन जाता है ।
इन दोनों की मानसिक स्थिति में कितना बडा अंतर है । प्रकृति दोनों की मनोस्थिति के अनुकूल ही उनके कर्मों का फल देगी । इसमें कोई संदेह या दो राय नहीं हो सकती ।
विश्वास है कर्म और कर्मफल की व्याख्या समझ में आ गयी होगी । यदि फिर भी कोई प्रश्न उठे तो दुबारा लिख कर पूछना चाहिए ।
साशीष स० न० गोयनका

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विपश्यना साधना - अनुशासन संह‍िता

विपश्यना (Vipassana) भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। मानव जातीसे दीर्घ कालसे खोइको आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। विपश्यना का मतलब है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। मनकी एकाग्रता के लिये अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करता है। तीक्ष्ण सजगता सेअपने ही शरीर और चित्तधारा का परिवर्तनशील स्वभाव का निरीक्षण करता है और वैश्विक सत्य जैसे नश्वरता,दुःख और अहंभाव का अनुभव करता है।यह सत्य-अनुभूती का सीधा अनुभव ही शुद्धीकी प्रक्रिया है।पूरा मार्ग(धम्म) एक वैश्विक समस्योंका वैश्विक उपाय है और इससे किसी संघठित धर्म या संप्रदाय से कोइ लेना देना नही है। इसिलिये, इसिका किसी जाति, वंश या धर्म से झगडेबिना कही भी, किसी समय कोईभी मुक्तता से अभ्यास कर सकता है, और सभी के लिए समान रूप से फायदेमंद साबित होगा। 

विपश्यना क्या नहीं है:

  • विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।
  • यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।
  • यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।
  • यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।

विपश्यना क्या है:

  • यह दुखःमुक्ति की साधना है।
  • यह मनको निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित रहकर कर सकता है।
  • यह जीवन जीने की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।
विपश्यना साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई सायकोसोमॅटीक बीमारिया अपनेआप दूर होती है। वस्तुत: विपश्यना दुखः के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं अविद्या। यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है।
विपश्यना साधना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। चूंकि रोग सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।

साधना एवं स्वयंशासन

आत्मनिरिक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना आसान नहीं है—शिविरार्थियों को गंभीर अभ्यास करना पड़ता है। अपने प्रयत्नों से स्वयं अनुभव द्वारा साधक अपनी प्रज्ञा जगाता है, कोई अन्य व्यक्ति उसके लिए यह काम नहीं कर सकता। शिविर की अनुशासन-संहिता साधना का ही अंग है।
मनकी गहराईयों मे उतरकर पुराने संस्कारोंका निर्मूलन करनेकी यह विपश्यना साधना सीखने के लिए १० दिन की अवधि वास्तव में बहुत कम है। साधना में एकांत अभ्यास की निरंतरता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। इसी बात को ध्यान में रख कर यह नियमावली और समय-सारिणी बनाई गयी है। यह आचार्य या व्यवस्थापन की सुविधा के लिए नहीं है। यह कोई परंपरा का अंधानुकरण अथवा कोई अंधश्रद्धा नहीं है। इसके पीछे अनेक साधकों के अनुभवों का वैज्ञानिक आधार है। नियमावली का पालन साधना में बहुत लाभप्रद होगा।
शिविरार्थी को पूरे ११ दिनों तक शिविर-स्थल पर ही रहना होगा। बीच में शिविर छोड़ कर नहीं जा सकेंगे। इस अनुशासन-संहिता के अन्य सभी नियमों को भी ध्यानपूर्वक पढ़े। अनुशासन-संहिता का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक कर सकते हों तभी शिविर में प्रवेश के लिए आवेदन करे। जो दृढ़ प्रयास करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे अपना समय बर्बाद कर देंगे और इसके अलावा, उन लोगों को परेशान करेंगे जो गंभीरता से काम करना चाहते हैं।आवेदक को समझना चाहिए कि शिविर के नियम कठिन पाने के कारण अगर वह शिविर छोडता है तो उसके लिए वह हानिकारक होगा। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि बार बार समझाने पर भी कोई साधक यदि नियमों का पालन नहीं करता है और इस कारण उसे शिविर से निकाला जाता है।

मानसिक रोग से पीड़ित लोगों के लिए

कभी कभी गंभीर मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति शिविर में इस आशा से आते हैं कि यह साधना उनके रोग को दूर करेगी। कई गंभीर मानसिक बीमारियों के कारण शिविरार्थी साधना से उचित लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं अथवा शिविर पूरा करने में असमर्थ रहते हैं। यह नॉन-प्रोफेशनल स्वयंसेवी संघटन होनेके वजहसे ऐसी पार्श्वभूमीके व्यक्तीके ठीक ढंग से देखभालके लिये असमर्थ है।विपश्यना साधना बहुतोंको लाभदायक है तो भी यह साधना औषधोपचार या मानसोपचारके बदलेमे नही है। वैसेही गंभीर मानसिक बीमार व्यक्तिके लिये हम इस साधनाकी शिफारिस नही करते।

अनुशासन संहिता

शील (sīla) साधना की नींव है--नैतिक आचरण। शील के आधार पर ही समाधि (samādhi) —मन की एकाग्रता प्रबंध होता है; एवं प्रज्ञा (paññā) के अभ्यास द्वारा चित्त-शुद्धि होती है--अंतर्ज्ञान।

शील

सभी शिविरार्थियों को शिविर के दौरान पांच शीलों का पालन करना अनिवार्य है:
  1. जीव-हत्या से विरत रहेंगे।
  2. चोरी से विरत रहेंगे।
  3. अब्रह्मचर्य (मैथुन) से विरत रहेंगे।
  4. असत्य-भाषण से विरत रहेंगे।
  5. नशे के सेवन से विरत रहेंगे।
पुराने साधक, अर्थात ऐसे साधक जिन्होंने आचार्य गोयन्काजी या उनके सहायक आचार्यों के साथ पहले दस-दिवसीय शिविर पूरा कर लिया है, वह अष्टशील का पालन करेंगे:
  1. वे दोपहर-बाद (विकाल) भोजन से विरत रहेंगे।
  2. शृंगार-प्रसाधन एवं मनोरंजन से विरत रहेंगे।
  3. ऊंची आरामदेह विलासी शय्या के प्रयोग से विरत रहेंगे।
पुराने साधक सायं ५ बजे केवल नींबू की शिकंजी लेंगे, जबकि नए साधक दूध चाय, फल ले सकेंगे। रोग आदि की विशिष्ट अवस्था में पुराने साधकों को फलाहार की छूट आचार्य की अनुमति से ही दी जा सकेगी।

समर्पण

साधना-शिविर की अवधि में साधक को अपने आचार्य के प्रति, विपश्यना विधि के प्रति तथा समग्र अनुशासन-संहिता के प्रति पूर्णतया समर्पण करना होगा। समर्पित भाव होने पर ही निष्ठापूर्वक काम हो पायेगा और सविवेक श्रद्धा का भाव जागेगा जो कि साधक की अपनी सुरक्षा और मार्गदर्शन हेतु नितांत आवश्यक है।

सांप्रदायिक कर्मकांड एवं अन्य साधना-विधियों का सम्मिश्रण

शिविर की अवधि में साधक किसी अन्य प्रकार की साधना-विधि व पूजा-पाठ, धूप-दीप, माला-जप, भजन-कीर्तन, व्रत-उपवास आदि कर्मकांडों के अभ्यास का अनुष्ठान न करें। इसका अर्थ और साधनाओं का एवं आध्यात्मिक विधियों का अवमुल्यन नहीं है बल्कि विपश्यना को अजमाने के प्रयोग को न्याय दे सकें।
विपश्यना के साथ जानबूझकर किसी और साधना विधि का सम्मिश्रण करना हानिप्रद हो सकता है। यदि कोई संदेह हो या प्रश्न हो तो संचालक आचार्य से मिलकर समाधान कर लेना चाहिए।

आचार्य से मिलना

साधक चाहे तो अपनी समस्याओं के लिए आचार्य से दोपहर १२ से १ के बीच अकेले में मिल सकता है। रात्रि ९ से ९.३० बजे तक साधना-कक्ष में भी सार्वजनीन प्रश्नोत्तर का अवसर उपलब्ध होगा। ध्यान रहे कि सभी प्रश्न विपश्यना विधि को स्पष्ट समझने के लिए ही हो।

आर्य मौन

शिविर आरंभ होने से दसवे दिन सुबह लगभग दस बजे तक आर्य मौन अर्थात वाणी एवं शरीर से भी मौन का पालन करेंगे। शारीरिक संकेतों से या लिख-पढ़कर विचार-विनिमय करना भी वर्जित है।
अत्यंत आवश्यक हो तब साधकोंको अन्न,निवासस्थान,शरीरस्वास्थ इत्यादि के लिये व्यवस्थापन से तथा विधि को समझने के लिए आचार्य से बोलने की छूट है। पर ऐसे समय भी कम-से-कम जितना आवश्यक समझे उतना ही बोलें। विपश्यना साधना व्यक्तिगत अभ्यास है। अत: हर एक साधक अपने आप को अकेला समझता हुआ एकांत साधना में ही रत रहे।

पुरुष और महिलाओं का पृथक-पृथक रहना

आवास, अभ्यास, अवकाश और भोजन आदि के समय सभी पुरुषों और महिलाओं को अनिवार्यत: पृथक्-पृथक् रहना होगा। शिविरके दरम्यान पती-पत्नी तथा सहयोगीसे संपर्क वर्ज्य है। यही नियम मित्र तथा कुटुंबके अन्य सदस्योंके लिये भी है।

शारीरिक स्पर्श

शिविर के दौरान सभी समय साधक एक दूसरे को स्पर्श बिल्कुल नहीं करेंगे।

योगासन एवं शारिरीक व्यायाम

विपश्यना साधना के साथ योगासन तथा अन्य शारीरिक व्यायाम का संयोग मान्य है, परन्तु केंद्र में फिलहाल इनके लिए आवश्यक एकांत की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इसलिए साधकों को चाहिए कि वे इनके स्थान पर अवकाश-काल में निर्धारित स्थानों पर टहलने का ही व्यायाम करें।

मंत्राभिषिक्त माला-कंठी, गंडा-ताबीज आदि

साधक उपरोक्त वस्तुएं अपने साथ न लाएं। यदि भूल से ले आए हों तो केंद्र पर प्रवेश करते समय इन्हें दस दिन के लिए व्यवस्थापक को सौंप दें।

नशीली वस्तुएं, धूम्रपान, जर्दा-तंबाकू व दवाएं

देश के कानून के अंतर्गत भांग, गांजा, चरस आदि सभी प्रकार की नशीली वस्तुएं रखना अपराध है। केंद्र में इनका प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। रोगी साधक अपनी सभी दवाएं साथ लाए एवं उनके बारे में आचार्य को बता दें।

तंबाकू-जर्दा, धूम्रपान

केंद्र की साधना स्थली में धूम्रपान करने अथवा जर्दा-तंबाकू खाने की सख्त मनाई है।

भोजन

विभिन्न समुदाय के लोगों को अपनी रुचि का भोजन उपलब्ध कराने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। इसलिए साधकों से प्रार्थना है कि व्यवस्थापकों द्वारा जिस सादे, सात्विक, निरामिष भोजन की व्यवस्था की जाय, उसी में समाधान पायें। यदि किसी रोगी साधक को चिकित्सक द्वारा कोई विशेष पथ्य बतलाया गया हो तो वह आवेदन-पत्र एवं शिविर में प्रवेश के समय इसकी सूचना व्यवस्थापक को अवश्य दें, जिससे यथासंभव आवश्यक व्यवस्था की जा सके।

वेश-भूषा

शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता, वेश-भूषा में सादगी एवं शिष्टाचार आवश्यक है। झीने कपड़े पहनना निषिद्ध है। सूर्यस्नान तथा अर्धनग्नता वर्ज्य है।महिलाएं कुर्ते के साथ दुपट्टे का उपयोग अवश्य करें। दुसरोंकी एकाग्रता बनाये रखनेके लिये यह आवश्यक है।

धोबी-सेवा एवं स्नान

बहुतांश केंद्रोपर धोबी-सेवा उपलब्ध नहीं होती है। साधक जिस केंद्र पर जा रहे हैं, वहां इस बारे में पूछ लें। धोबी-सेवा न हो तो साधक पर्याप्त कपड़े साथ लाए। छोटे कपड़े हात से धोये जा सकते हैं। नहाने का एवं कपड़े धोने का काम केवल विश्राम के समय ही करना चाहिए, ध्यान के समय नहीं।

बाह्य संपर्क

शिविर के पूरे काल में साधक अपने सारे बाह्य-संपर्क विच्छिन्न रखे। वह केंद्र के परिसर में ही रहे। इस अवधि में किसी से टेलिफोन अथवा पत्र द्वारा भी संपर्क न करे। कोई अतिथि आ जाय तो वह व्यवस्थापकों से ही संपर्क करेगा।

पढना, लिखना एवं संगीत

शिविर के दरम्यान संगीत या गाना सुनना, कोई वाद्य बजाना मना है। शिविर में लिखना-पढ़ना मना होने के कारण साथ कोई लिखने-पढ़ने का साहित्य न लाएं। शिविर के दौरान धार्मिक एवं विपश्यना संबंधी पुस्तकें पढ़ना भी वर्जित है। ध्यान रहे विपश्यना साधना पूर्णतया प्रायोगिक विधि है। लेखन-पठन से इसमें विघ्न ही होता है। अत: नोटस् भी नहीं लिखें।

टेप रेकॉर्डर एवं कॅमेरा

आचार्य के विशिष्ट अनुमति के बिना केंद्र पर इनका उपयोग सर्वथा वर्जित है।

शिविर का खर्च

विपश्यना जैसी अनमोल साधना की शिक्षा पूर्णतया नि:शुल्क ही दी जाती है। विपश्यना की विशुद्ध परंपरा के अनुसार शिविरों का खर्च इस साधना से लाभान्वित साधकों के कृतज्ञताभरे ऐच्छिक दान से ही चलता है। जिन्होंने आचार्य गोयंकाजी अथवा उनके सहायक आचार्यों द्वारा संचालित कमसे कम एक दस दिवसीय शिविर पूरा किया है, केवल ऐसे साधकों से ही दान स्वीकार्य है।
जिन्हें इस विधि द्वारा सुख-शांति मिली है, वे इसी मंगल चेतना से दाने देते हैं कि बहुजन के हित-सुख के लिए धर्म-सेवा का यह कार्य चिरकाल तक चलता रहे और अनेकानेक लोगों को ऐसी ही सुख-शांति मिलती रहे। केंद्र के लिए आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है। शिविर के आचार्य एवं धर्म-सेवकों को कोई वेतन अथवा मानधन नहीं दिया जाता। वे अपना समय एवं सेवा का दान देते हैं। इससे विपश्यना का प्रसार शुद्ध रूप से, व्यापारीकरण से दूर होता है।
दान चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके पिछे केवल लोक-कल्याण की चेतना होनी चाहिए। बहुजन के हित-सुख की मंगल चेतना जागे तो नाम, यश अथवा बदले में अपने लिए विशिष्ट सुविधा पाने का उद्देश्य त्याग कर अपनी श्रद्धा व शक्ति के अनुसार साधक दान दे सकते हैं।

सारांश

अनुशासन संहिता का उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए कुछ बिंदू
अन्य साधकों को बाधा न हो इसका पूरा पूरा ख्याल रखें। अन्य साधकों की ओर से बाधा हो तो उसकी ओर ध्यान न दें।
अगर उपरोक्त नियमों में से किसी भी नियम के पीछे क्या कारण है यह कोई साधक न समझ पायें तो उसे चाहिए कि वह आचार्य से मिल कर अपना संदेह दूर करें।
अनुशासन का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक करने से ही साधना विधि ठिक से समझ पायेंगे एवं उससे पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पायेंगे। शिविर में पूरा जोर प्रत्यक्ष काम पर है। इस तरह गंभीरता बनाए रखे जैसे कि आप अकेले एकांत साधना कर रहे हैं। मन भीतर की ओर हो एवं असुविधाओं की एवं बाधाओं की ओर ध्यान बिल्कुल न दें।
साधक की विपश्यना में प्रगती उनके अपने सद्गुणों पर एवं इन पांच अंगों—परिश्रम, श्रद्धा, मन की सरलता, आरोग्य एवं प्रज्ञा—पर निर्भर है।
उपरोक्त जानकारी आपकी साधना में अधिक से अधिक सफलता प्रदान करे। शिविर-व्यवस्थापक आपकी सेवा और सहयोग के लिए सदैव उपस्थित हैं एवं आप की सफलता एवं सुख-शांति की मंगल कामना करते हैं।

समय-सारिणी

यह समय-सारिणी अभ्यास की निरंतरता बनाए रखने के लिए बनाई गयी है।
प्रातः ४ बजेसुबहकी जगानेकी घंटी
प्रातः 4:30 से 6:30हॉल मे अथवा अपने निवास पर ध्यान
प्रातः 6:30 से 8:00नाश्ता ब्रेक
सुबह 8:00 से 9:00ध्यान कक्ष(हॉल))मे सामूहिक साधना
सुबह 9:00 से11:00आचार्योंकी सूचना अनुसार हॉल मे अथवा निवासस्थानमे ध्यान
11: 00-12: 00 & nbsp; दोपहरलंच ब्रेक
12 दोपहर-1:00 pmविश्रांती और आचार्योंसे प्रश्नोत्तरे
1:00 से 2:30 pmहॉलमे अथवा निवासस्थानमे ध्यान
2:30 से 3:30 pmहॉलमे सामूहिक साधना
3:30 से 5:00 pmआचार्योंकी सूचना अनुसार हॉल मे अथवा निवासस्थानमे ध्यान
5:00 से 6:00 pmचाय के विश्राम
6:00 से 7:00 pmहॉलमे सामूहिक साधना
7:00 से 8:15 pmहॉलमे आचार्यों के प्रवचन
8:15 से 9:00 pmहॉलमे सामूहिक साधना
9:00 से 9:30 pmहॉलमे प्रश्नोंतरोका समय
9:30 pmअपने कमरेमे विश्रांती और रोशनी बंद

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बुद्ध पूर्णिमा पर गोयन्का जी का लेख

🌺बुद्ध जयन्ती - वैशाख पूर्णिमा🌺 (यह लेख 28 वर्ष पूर्व पूज्य गुरुजी द्वारा म्यंमा(बर्मा) से भारत आने के पूर्व वर्ष 1968 की वैशाख पूर्णिमा ...