शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

आज के धर्मों में से विज्ञान के सबसे ज्यादा करीबी धर्म कौन सा है?

आधुनिक भारत में पालि तथा बौद्ध साहित्य की पुनः प्रतिष्ठा करने का श्रेय मुख्यतः भिक्षुत्रय अर्थात् राहुल सांकृत्यायन, जगदीश काश्यप तथा भदन्त आनन्द कौशल्यायन को जाता है। ऐसे समय में जबकि भारत से बौद्ध धम्म तथा पालि साहित्य का लोप हो चुका था, इन्होंने ही ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद करके प्रकाशन कराया तथा प्रचार किया। इनके जीवन-चरित्रों को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर ज्ञात होता है कि ये तीनों ही धर्मधुरन्धर अंगुत्तर निकाय में विद्यमान केसमुत्ति-सुत्त से अत्यधिक प्रभावित रहें। कालामों को सम्बोधित करते हुए उन्हें दिया गया यह केसमुत्ति-सुत्त समस्त वाङ्मय प्रपञ्च में विवेकवाद तथा स्वतन्त्र चिन्तन के लिए एक प्रकार का घोषणा-पत्र ही है। कालामों को दिया गया यह सुत्त वास्तव में मानवता के लिए एक वरदान है ।
इस केसमुत्ति सुत्त ने इन विद्वान भिक्षुओं को अत्यन्त प्रभावित किया। भगवान बुद्ध और बौद्ध-दर्शन के प्रति आकर्षण होने की बात को राहुल सांवृफत्यायन अपनी आत्मकथा 3 में इस तरह से प्रकट करते हैं -
ढाई हजार वर्ष पहले के समाज और समय में बुद्ध के युक्तिपूर्ण सरल और चुभने वाले वाक्यों का मैं तन्मयता के साथ आस्वाद लेने लगा। त्रिपिटक में आये चमत्कार अपनी असम्भवता के लिए मेरी घृणा के पात्र नहीं, बल्कि मनोरंजन की सामग्री थे। मैं समझता था, पच्चीस सौ वर्षों का प्रभाव उन ग्रन्थों पर न हो यह हो नहीं सकता। असम्भव बातों में कितनी बुद्ध ने वस्तुतः कहीं, इसका निर्णय आज किया नहीं जा सकता, फ‍िर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये बुद्ध के उपदेश- ‘किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो’ को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहाँ है एक आदमी जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्त्व को समझता है। जब मैनें मज्झिम-निकाय में पढ़ा- ‘बड़े की भाँति मैनें तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं, तो मालूम हुआ, जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता फिर रहा था, वह मिल गई।
राहुलजी भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट मानव कल्याण सम्बद्ध बातों से तथा तर्कसंगत विषयों के प्रतिपादन के कारण उनसे अत्यन्त प्रभावित रहें। वस्तुतः भगवान बुद्ध के द्वारा कहीं गई शिक्षाओं में एक भी मानव कल्याण तथा तर्क के परे नहीं है। केसमुत्ति सुत्त में बुद्ध भगवान द्वारा कालामों को दी गई शिक्षाप्रद-पंक्तियाँ राहुलजी के हृदय में उतर सी गई थी।
भदन्त आनन्द कौशल्यायन भी अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में इसी प्रकार की बात को स्वीकार करके इस सुत्त के प्रति अपनी कृतज्ञता निवेदित करते हैं। वे लिखते हैं कि केसमुत्ति-सुत्त को पढ़कर ही वे बौद्ध-धम्म तथा साहित्य की ओर आकर्षित हुए। अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में वे इस प्रकार लिखते हैं -
जिस कालाम-सूक्त की बौद्ध-वाङ्मय में ही नहीं, विश्वभर के वाङ्मय में इतनी धाक है, जो एक प्रकार से मानव-समाज के स्वतन्त्र-चिन्तन तथा स्वतन्त्र-आचरण का घोषणा-पत्र माना जाता है, वह कालाम-सुत्त इसी अंगुत्तर-निकाय के तिक-निपात के अन्तर्गत है। भगवान ने उस सुत्त में कालामों को आश्वस्त किया है-
‘हे कालामों! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि वह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कहीं गई है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रन्थ (पिटक) के अनुकूल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह तर्क-सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह न्याय (शास्त्र) सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि आकार-प्रकार सुन्दर है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुकूल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निन्दित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है- तो हे कालामों! तुम उन बातों को छोड़ दो।’
वैश्विक इतिहास में भगवान बुद्ध ने यह नई बात कहीं है। किसी भी धर्मगुरु ने इतना बड़ा साहस नहीं किया। सभी अपनी अपनी भगवत्ता को स्थापित करने या उसे बचाने के प्रयास में ही लगे दिख पड़ते हैं। किन्तु भगवान बुद्ध की बात ही निराली है। वे स्वयं के द्वारा कही गई बात को भी आँख बन्द करके न मानने की शिक्षा को इस प्रकार उपस्थापित करते हैं-
तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।। 5
भावार्थ - ‘हे पण्डित! जिस तरह उच्च ताप से पककर कोई सुवर्ण (सोना) परखा जाता है, उसी तरह मेरे भी वचनों को (वैज्ञानिक कसौटी पर कसते हुए) परखकर ग्रहण करना चाहिए, न कि मेरे प्रति गौरव (श्रद्धा) के कारण।
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बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

ऐ मेरे मन!



कितना समय बीत गया पर अब तक भी तेरा कुलबुलाना नहीं मिटा। तेरे
भीतर क्रोध के अंगारे अब तक भी सुलग रहे हैं। अरे अबोध! इन अंगारों में तू
किस कदर जल रहा है? कितना संतापित है तू इस जलन से ? फिर भी, कितना
दुर्बोध है रे तू? अपने भीतर धीरे-धीरे इस आग को सुलगाए ही जा रहा है। जब
तक इसे शांत करने का कोई उपाय नहीं करेगा, तब तक तो यह आग अपने
स्वभाव से शनैः शनैः बढ़ती ही जायगी। किसी ने ठीक ही तो कहा है: -
सिने सिप्पं सिने धनं, सिने पब्बतमाहं।
सिने कामस्स कोधस्स, इमे पञ्च सिने सिने॥
(लोकनीति गाथा १)

शनैः शनैः ही शिल्पज्ञान बढ़ता है। शनैः शनैः ही धन बढ़ता है। शनेः शनैः
ही पर्वतारोहण होता है। शनै: शनेः ही काम और क्रोध बढ़ता है। ये पांचों शनेः
शनैः ही बढ़ते हैं।
जैसे आग स्वयं अपने लिए नया-नया जलावन लेकर शनैः शनैः बढ़ती ही
रहती है, वैसे ही स्वयमेव बढ़ते रहना इस क्रोध का सहज स्वभाव है।
अप्पो हुत्वा बहु होति, वड्ठते सो अखन्तिजो।
वह जो अशांति से उत्पन्न होने वाला क्रोध है, वह थोड़े से बढ़ता हुआ बहुत
ही होते रहता है।
आसङ्गी बहुपायासो, तस्मा कोधं न रोचये।

(जातक गाथा १६)

इसका संग बहुत दुःखदायी है। ऐसा अनर्थकारी, पापी क्रोध किस समझदार

को रुचिकर हो सकता है भला? परंतु तेरे जैसे नासमझ इसे बढ़ाने में ही लगे रहते
हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि इसका कितना बड़ा दुष्परिणाम होने वाला है।

बाणिजान॑ यथा नावा, अप्पमाणभरा गरु।
अतिभारं समादाय, अण्णवे अवसीदति॥

एवमेव नरो पापं, थोक थोकम्पि आचिनं।
अतिभारं समादाय, निरये अवसीदति॥
(जातक २. गाथा १२४५-४६)

जैसे किसी बनिए की थोड़े भार वाली नाव में अत्यधिक भार भर दिये जाने
पर वह समुद्र में डूब जाती है वैसे ही थोड़ा-थोड़ा पाप-भार बढ़ाता हुआ नासमझ
व्यक्ति अतिभार के कारण दुर्गतियों में डूब जाता है
चाहिए तो यह कि जिस प्रकार कोई सुनार धीरे-धीरे चांदी का थोड़ा- थोड़ा
मैल दूर करता है, वैसे ही समझदार आदमी सत्प्रयत्न द्वारा क्षण प्रतिक्षण अपने
मन का थोड़ा-थोड़ा मैल दूर करे। उसे देषहीन बनाए, क्रोधहीन बनाए, पापहीन
बनाए ।
अनुपुब्बेन मेधावी, थोकं थोकं खणे खणे।
कम्मारो रजतस्सेब, निद्धमे मलमत्तनो॥
(धम्मपद गाथा २३९)
परंतु तू तो इतना नासमझ है कि अपने मैल को शनैः शनैः कम करने के
बजाय उसे शनैः शनैः बढ़ाए ही जा रहा है और परिणाम स्वरूप इस आग से
अपने आपको संतप्त ही किए जा रहा है। यह जो आग तेरे भीतर उत्पन्न हुई है,
वह अन्य किसी को जलाए या न जलाए, तुझे तो अवश्य जलाएगी ही।
कट्ठस्मिं मत्थमानस्मिं, पावको नाम जायति।
तमेब कटं डहति, यस्मा सो जायते गिनि॥
(जातक १. गाथा ५८)
जिस प्रकार किसी काठ में पारस्परिक रगड़ द्वारा उत्पन्न हुई आग उसी काठ
को जलाती है, वैसे ही तेरे भीतर किसी के भी रगड़ से उत्पन्न हुई यह क्रोधाग्नि
तुझे ही जला रही है।
किसी मूर्ख, अजान, अबोध से तेरी ऐसी रगड़-झगड़ हो गई कि उसके
परिणाम स्वरूप तेरे भीतर यह क्रोध की अग्नि जागृत हो गई। पर तू भी तो कम
अबोध नहीं कि इस आग में अब तक जले ही जा रहा है।
एवं मन्दस्स पोसस्स, बालस्स अविजानतो।
सारम्भा जायते कोधो, सोपि तेनेव डय्हति॥
(जातक ४४१. गाथा ५९)
चाहे जिस मंद-बुद्धि अबोध व्यक्ति की रगड़ से तेरे भीतर आग जल उठी
हो, परंतु आग तो आग है और उसका स्वभाव है कि जहां उत्पन्न होती है, उसी
को जलाती है। जिसकी रगड़ से यह आग लगी, वह जळे या न जले, परंतु तू तो
इस आग से जळे ही जा रहा है।

जिसकी रगड़ से तेरे भीतर यह आग लगी है वह दुर्बोध हो, अज्ञानी हो
अथवा कोई श्रमण हो, ज्ञानी हो, इससे क्या अंतर पड़ता है? यदि इस आग से तू
जल उठा है तो तुझे तो यह आग संतापित करेगी ही। नीम की लकड़ी की रगड़
लगी हो अथवा चंदन की लकड़ी की, यदि उस रगड़ से किसी काठ में आग उत्पन्न
हो गई तो वह आग उस काठ को जलायेगी ही। जलाना ही उसका धर्म है। आग
चाहे कोयळे की हो अथवा पेट्रोल की हो, विद्युत की हो अथवा गैस की हो, आग
तो आग है। जलायेगी ही। अतः समझदार आदमी सदैव इस बात से सतर्क रहता
है कि आग चाहे जिस स्रोत से उत्पन्न हुई हो उसे बढ़ने न दे।
सुत्वान दुसितो बहुं वाचं, समणानं वा पुथुजनानं।
फरुसेन हि न पटिवज्जा, न हि सन्तो पटिसेनि करोन्ति ॥
(वतुरारक्खदीपनी निस ३, गाथा १७)

समझदार शांत-चित्त व्यक्ति किसी श्रमण से अथवा किसी मूढ़ अज्ञानी
व्यक्ति से अनेक दूषित वचन सुनकर भी बदढ़े में स्वयं कभी कटु-कठोर वचन का
प्रयोग नहीं करता। स्वयं क्रुद्ध होकर उसका प्रतिकार नहीं करता। क्योंकि वह
जानता है कि ऐसा करते ही वह स्वयं अपने भीतर आग जला लेगा। और उस
दुर्भाषी व्यक्ति की क्रोध की आग में नया पेट्रोल छिड़क देगा। अपने और पराए
भढे को समझने वाला, न स्वयं अपनी ओर से कड़वे वचन बोलकर नयी आग
लगाता है, और न ही किसी और के कड़वे वचन सुनकर उसे कड़वा प्रत्युतर देता
है और उसकी आग को भड़काता है।

मा वोच फसुसं किञ्चि, वृत्ता पटिवदेय्युं तं।
दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्युं तं ॥
(नरदक्खदीपनी चारित्त निद्देस गाथा १३७)

इसीलिए समझदार आदमी कभी कोई कड़वी वाणी न बोले। क्योंकि सुनने
वाला क्रुद्ध होकर बदले में कड़वी वाणी ही बोलेगा। क्रोधभरा हर वचन दुःख ही
पैदा करेगा। ऐसे वचनों का प्रयोग करने वाले हमेशा दुःखी होंगे।

यो कोपनेय्ये न करोति कोपं,
न कुज्झति सप्पुरिसो कदाचि।
कुद्धोपि सो नाविकरोति कोपं,
ततं बे नरं समणमाहु लोके ॥
(जातक १. गाथा २४)

सत्पुरुष कभी किसी पर क्रोध नहीं करता । वह तो किसी कोपभाजन पर भी
क्रोध नहीं करता। क्रुद्ध हो जाय तो भी क्रोध प्रकट नहीं करता। ऐसा संयमित
सत्पुरुष ही तो दुनिया में सच्चा संत कहलाता है। सचमुच समझदार के लिए क्रोध
किसी भी अवस्था में उचित नहीं है।

अलसो गिही कामभोगी न साधु,
असञ्जतो पब्बजितो न साधु।
राजा अनिसम्मकारी न साधु,
पण्डितो कोधनो तं पि नं साधु॥
(लिकनीति राजक ९३१. गाथा १२१)

आलसी कामभोगी गृहस्थ अच्छा नहीं होता, न ही संयमविहीन गृहत्यागी
प्रव्रजित, बिना सोचे समझे निर्णय करने वाला शासक अच्छा नहीं होता, और न
ही क्रोधयुक्त ज्ञानी पंडित व्यक्ति। कोई सचमुच ज्ञानी होगा तो वह क्रोध का
गुलाम होगा ही नहीं।

समझदार व्यक्ति सदा अपनी सही सुरक्षा करता है। वह अपनी सुरक्षा में ही
औरों की भी सुरक्षा देखता है। समझदार व्यक्ति सदा औरों की सही सुरक्षा करता
है। वह औरों की सुरक्षा में ही अपनी भी सुरक्षा देखता है।

अत्तानं रक्खन्तो परं रक्खति,
परं रक्खन्तो अत्तानं रक्खति॥
(नरदक्खदीपनी वारित्त निहेस गाथा १४५)
वह अपनी रक्षा करता हुआ औरों की रक्षा करता है। औरों की रक्षा करता
हुआ अपनी रक्षा करता है। सचमुच, जो स्वयं क्रोध की पहल नहीं करता और
किसी क्रोधी के पहर कर लेने पर प्रतिक्रिया स्वरूप भी क्रोध नहीं करता, ऐसा
व्यक्ति ही तो अपनी और परायी सब की सही सुरक्षा करता है। ऐसा व्यक्ति ही

तो सही माने में सत्पुरुष है।

उभिन्नमत्थं चरति, अत्तनोच परस्सच।
परं संकुप्पितं ञत्वा, यो सतो उपसम्मति॥
(नरदक्खदीपनी चारित्त निदेस गाथा १४५)

अपने और पराये भले के लिए ही सत्पुरुष दूसरे को कुपित हुआ देखकर
स्वयं शांति धारण करता है। सचमुच इसी में तो दोनों की भलाई है। कुपित हुए पर
कुपित हो जायँ तो अपनी और उसकी दोनों की ही हानि हो।

ऐ मेरे भोळे मन! तू जिस धर्म-पथ का पथिक है वह तो क्षांति का पथ है।
शांति का पथ है, सहिष्णुता का पथ है, धीरज का पथ है। इस पथ पर चलने वाळे
सभी पथिक शांति का ही अभ्यास करते आए हैं। मैं जानता हूं कि यह तो अभी
संभव नहीं है कि तुझे उन धर्मराज भगवान तथागत की तरह कभी, किसी भी
अवस्था में, क्रोध आए ही नहीं, उनकी तरह तेरी भी भृकुटी कभी टेढ़ी हो ही नहीं ।
परंतु इतना तो अवश्य हो ही सकता है कि जब कभी तुझे क्रोध आए तब तू शीघ्र
से शीघ्र उसका शमन कर ले। उसे बढ़ने न दे | बुद्ध बनने के पूर्व उस नर-श्रेष्ठ ने
भी तो जन्म जन्मान्तरों में यही अभ्यास किया था। भावी-बुद्ध बोधिकुमार ने
सर्वथा उकसाने वाली स्थिति में भी इस दुष्ट क्रोध को अपने सिर पर सवार नहीं ही
होने दिया। इसका सामना ही किया।

उष्पज्जे मे न मुच्चेय्य, न मे जीवतो।
रजंब॒ विपुला बुडि, खिप्पमेय निवारये॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५०)

उठते हुए क्रोध को देखते-देखते भावी बुद्ध को यह होश था कि यह उत्पन्न
होगा तो मुझे नहीं छोड़ेगा, जीवन भर बांधे रखेगा जिस तरह उठती हुई धूल को
विपुल वृष्टि द्वारा दबा दिया जाता है, वैसे ही इसका निवारण कर देना चाहिए।
और यही तो उसने किया भी।

उप्पज्जि मे न मुच्चित्थ, न मे मुच्चित्थ जीवतो।
रजं ब विपुला बुदि खिप्पमेव निवारयिन्ति॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५२)

यह क्रोध जैसे ही उत्पन्न हुआ, मैं उसके अधीन नहीं हुआ। अतः यह मुझे
जीवन भर अपना गुलाम बनाए न रख सका। (परन्तु अब) जिस प्रकार उठती हुई
धूल का निवारण विपुल वर्षा द्वारा हो जाया करता है, वैसे ही मैंने इसका निवारण
कर लिया।

_यम्हि जाते न पस्सति, अजाते साधु पस्सति।
सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो ॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५४)_

कैसा अनिष्टकारक है यह क्रोध! सज्जन इसके उत्पन्न होने के पहले ही
भली-भांति देख समझ सकते हैं। इसके उत्पन्न होने पर तो सारी सूझ-बूझ नष्ट हो
जाती है। ऐसे अनर्थकारी क्रोध के उत्पन्न होने पर मैं इसके अधीन नहीं हुआ।
सचमुच क्रोध तो मूर्खों की ही गोचर भूमि है।

_यस्मिञ्च जायमानम्हि, सदत्थं नावबुज्झति।
सो मे उप्पज्नि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५६)_

जिसके उत्पन्न होने पर आदमी की सारी सद्बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह
स्वयं अपना भला बुरा भी नहीं समझ सकता, ऐसा दुष्ट क्रोध मुझमें उत्पन्न हुआ,
परंतु मैं उसके वशीभूत नहीं हुआ। अहो, क्रोध तो मूर्खो की ही गोचरभूमि है।

_येन जातेन नन्दन्ति, अमित्ता दुक्खमेसिनो।
सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५५)_

जब मुझमें क्रोध जागता है तो मेरे वे दुश्मन जो मेरा अनिष्ट चाहते हैं, जी
मुझे दुःखी देखना चाहते हैं, उनकी इच्छा पूरी होती है, वे ऐसा देखकर प्रसन्न ही
होते हैं । क्योंकि क्रोध को जन्म देकर मैं अपने दुःखों को ही जन्म देता हूं। इसीलिए
मुझे क्रोधान्वित देखकर वे प्रसन्न ही होते हैं। ऐसा दुःखदायी क्रोध मुझमें उत्पन्न
हुआ, परंतु मैंने उसका तुरंत शमन कर दिया। मैं उसका गुलाम न बन सका।
अहो, क्रोध तो मूर्खों की ही गोचर भूमि है।

_येनाभिभूतो कुसलं जहाति,
परक्करे विपुलञ्चापि अत्थं।
स भीमसेनो बल्वा पमद्दी,
कोधो महाराज न मे अमुच्चथ॥
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५७)_

जिसके वशीभूत होकर आदमी अपना कुशल खो देता है। बड़े से बड़ा लाभ
गंवा देता है। हे महाराज! बड़े बड़ों का मर्दन कर देने वाला ऐसा भयावह बलशाली
वह क्रोध मुझे अपने बंधन में न बांध सका। अहो, महा अनर्थकारी क्रोध का
गुलाम होने से मैं बच गया। इस विजय की खुशी में भावी-बुद्ध बोधिकुमार प्रसन्न
हो उठा।

ऐ मेरे बावरे मन! तू भी उसी संत के पावन पथ का अनुगामी बन। जीत,
अपने उठते हुए क्रोध को जीत । इसे बढ़ने न दे, इसके वशीभूत न हो, नहीं तो यह
तेरे भीतर ऐसा द्वेष-दौर्मनस्य भर देगा जो कि जीवन भर तुझ पर छाया रहेगा।
जीवन भर तुझे दुःखी बनाता रहेगा। इसके पहले कि यह तुझे पछाड़ दे और
सदा-सदा के ठिए तुझे अपने वश में कर ले, शीघ्र इसके चंगुल से निकल, इसका
गुलाम होने से बच। दौर्मनस्य के इस उठते हुए गर्द-गुब्बार पर प्रीति-प्यार की
माधुरी वर्षा कर, मंगल-मैत्री की विपुल बौछार कर। और इसका शमन कर। शमन
कर! शमन कर! ताकि तू भी प्रसन्नतापूर्वक कह सके -

_सो मे उप्पज्जि नो मुच्चि, कोधो दुम्मेधगोचरो।
(जातक १. चूलबीधि जातक गाथा ५६)_

वह दुष्ट क्रोध मुझमें उत्पन्न तो हुआ, पर मुझे अपने वशीभूत न कर सका।
वशीभूत न कर सका। क्रोध तो मूर्खों की ही गोचरभूमि है।

(वर्ष ३ बृद्धवर्ष २५९७ आश्विन पूर्णिया दि. १२-१०-७३ अंक ४)

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भीतर का मेल कैसे उतरे !


(पुराने साधको के लिए प्रवचन- १९८६) में  से कुछ अंश  :

मेरी प्यारी धर्म-पुत्रियों !
 मेरे प्यारे धर्म-पुत्रों !

मन की पुरानी आदत = राग द्वेष और मोह में रहने की , उसे तोड़ कर, अच्छी आदत = सजगता  और समता में रहने की  इसे पुष्ट करने के लिए  . . .
रोज-रोज  १घंटा सुबह & १ घंटा शाम /या रात साधना का नियमित अभ्यास करना ही होगा  !
=
घंटे भर यही करना है कि राग-द्वेष वाली तरंगें कैसे बंद करें और वीतरागता- वीतद्वेषता की तरंगें कैसे जगायें !
आगे का काम कुदरत पे , धरम पे छोडें  ।

जब-जब हम ये वीतरागता - वीतद्वेषता की तरंगें जगाते हैं , तब सारे विश्व में जहां भी कोई संत, सदगुरु, सम्यक देव
सम्यक ब्रह्म ऐसी पवित्र तरंगें जगाने का काम कर रहे हैं, उनके साथ समरस हुए जा रहे हैं, ट्यूनअप होते  जा रहे हैं।

हम जो कहते हैं - तब, मंगल मैत्री अपने आप खिंची चली आती है !
यह चमत्कार की बात नहीं, कुदरतका बँधा-बँधाया नियम है।

धर्म का रास्ता ऐसा है कि इस पर जरा-सा भी सही  परिश्रम करें तो,  वह निष्फल नहीं जाता ।

फिर भी  . .. .. ..
हम जानते हैं, बडी कठिनाई होती है यह सब करने में !!  ध्यान में बैठते ही कितनी सारी  बातें याद आने लगेगी :
उसने ऐसा कह दिया रे ! उसने ऐसा कर दिया रे ! यह बहू देखो कैसी गयी-गुजरी रे ! यह सास देखो कैसी गयी-गुजरी रे !यह बेटा... ! यह फला ... वह फलां_ !!
दिन भर जिन उपद्रवों को लेकर के हमने राग-द्वेष जगाया; ध्यान में बैठे तो वही जागेंगे ।
भले जागे, जागने दो, घबराओ मत, दबाओ मत। जो कूड़ा-करकट इकट्ठा किया है, वह फूट कर बाहर आना ही
चाहिए ।
यह सब भी जाग रहा है और साथ-साथ हम सांस को भी जान रहे है । तो सफाई का काम शुरू हो गया।
जब-जब देखो कि इस तरह की कठिनाईयाँ ज्यादा आने लगी = मन संवेदना में नहीं लग रहा; तो इसीलिए साधना के दो हिस्से सिखाए- एक सांस की साधना, एक संवेदना की साधना । संवेदना को जानते हुए अगर हमने समता का अभ्यास किया तो अंतर्मन की गहराइयों तक हमने सुधारने का काम कर दिया।
मानस हमारा इतना उथल-पुथल कर
रहा है कि संवेदना को नहीं जान पाये तो सांस का ही काम करें।
सांस का भी मन से बड़ा गहरा सबंध है।
शुद्ध सांस को देखते चले
जायँ। उसको भी नहीं देख पाते तो सांस को जरा-सा तेज कर लें।
संवेदना को तो हम चाहे तो भी तेज नहीं कर सकते, अपने स्वभाव
से न जाने कहां, क्या संवेदना होगी, कैसी होगी? लेकिन सांस को
तो हम प्रयत्न पूर्वक तेज कर सकते हैं। जरा प्रयत्न पूर्वक सांस लेना
शुरू कर दिया। विचार भी उठ रहे हैं, तूफान भी उठ रहे हैं; भीतर ही भीतर सब जंजाल चल रहे हैं, फिर भी सांस को जाने जा रहे हैं।
तूफान भी उठता है, सांस को भी जानते हैं; तूफान भी उठ रहा है तो भी सफाई का काम चल रहा है, मत घबरायें।
इस बात से कभी मत घबरायें कि हमारे मन में ये विचार क्यों उठ रहे हैं? पहले विचार शांत होंगे, उसके बाद सफाई होगी;  ऐसा बिल्कुल नहीं । अगर सांस या संवेदना को साथ-साथ जान रहे हैं
और उनके प्रति समता का भाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, भले
थोड़ी-थोड़ी देर ही समता रहती है, बाकी समय उसी तरह प्रतिक्रिया
करते हैं, तो भी कुछ नहीं खोया; लाभ ही हुआ।

युं  समझदारी से सही तरह परिश्रम करेते रहेंगे, तो अच्छे फल मिलेंगे ही।

उत्साह के साथ, उमंग के साथ काम करते रहें ।

जिन-जिन के भीतर धर्म
का बीज पड़ा है, उन सबका धर्म विकसित हो!
जिन-जिन के भीतर प्रज्ञा जागी है, उन सब की प्रज्ञा विकसित हो ! पुष्ट हो !

सबका मंगल हो ! सबका कल्याण हो !
:
कल्याण मित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

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ब्रह्म-विहार


मनुष्य एक अद्भुत प्राणी है। उसके स्वभाव में अच्छे, बुरे, शुभ और अशुभ दोनों का ही सम्मिश्रण है। उसमें संत की सी सात्विक निर्मलता भी है और साथ ही दानव की सी दूषित प्रवृत्ति भी। कब, कैसे, कौन सी प्रवृत्ति उभर कर उस पर हावी हो जाय - यह कहा नहीं जा सकता । इन दोनों विरोधी शक्तियों के कारण मानव एक ओर सद्गुणों का आगार हो सकता है, तो दूसरी ओर अशुभ, अकुशल और दुष्ट कार्यों को संपन्न करने में समर्थ भी। जो व्यक्ति संत बन कर जन-जन के हितकारी कार्य करके आर्य बनना चाहते हैं, वे प्रयत्नपूर्वक इन आसुरी प्रवृत्तियों से बच कर दैवी गुणों को धारण कर लेते हैं। मनुष्य पृथ्वी के अंदर गड़े हुए कीमती हीरे आदि को खोद कर निकालने में अथक शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाता है, यहां तक कि कभी अपनी जान भी गवां बैठता है परंतु अपने ही भीतर सुसुप्त दैवी शक्ति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना नहीं चाहता, जबकि इसके लिए केवल संकल्प, वीर्य और धैर्य की ही आवश्यकता है। प्रयत्नशील हो तो निर्धन से निर्धन और नितांत अपढ़ व्यक्ति तक आध्यात्मिक उंचाइयां प्राप्त कर सकता है।
मानव में उसे अधोगति की ओर ले जाने वाले जो दोष हैं, उनमें से क्रोध (दोस -पालि) का निरोध (उपशमन) मैत्री से होता है, हिंसा का उपशमन करुणा से, ईष्र्या का मुदिता से तथा राग और द्वेष जो मन का संतुलन बिगाड़ कर उसके सुखी जीवन को नष्ट कर देने के मुख्य कारण हैं, इनका उपशमन उपेक्षा द्वारा होता है। यों मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा - ये चार ब्रह्म-विहार हैं, जो विपश्यी साधक को उसके चरम लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं।
ये चारों गुण ब्रह्म-विहार के नाम से जाने जाते हैं। इन चारों ब्राह्मी गुणों को धारण करने पर व्यक्ति सही माने में धर्मशील और प्रयत्नशील बन जाता है। वह इसी जीवन में ब्रह्मातुल्य बन जाने के योग्य हो जाता है। आइए, इन विशेष गुणों पर कुछ विचार-विमर्श करने का प्रयत्न करें। |

मैत्री - (संस्कृत शब्द) पालि धर्म-शास्त्रों में ‘मेत्ता' नाम से जाना जाता है। यह शब्द अपने आप में बहुत व्यापक है। अंग्रेजी अनुवाद -(Loving kindness) प्रेममयी दया, (Goodwill) सदेच्छा, (Benevolence) परोपकारिता, (Universal love) सार्वजनिक प्यार, आदि विभिन्न शब्दों में इसे व्यक्त किया जाता है। परंतु इनमें से कोई भी शब्द उस गंभीरता और गरिमा तक नहीं पहुँच पाता, जो वस्तुतः मैत्री भावना में निहित है। | मैत्री और मित्रता (दोस्ती) में बहुत भेद है। दोस्ती या साधारण मित्रता का आरंभ जान पहिचान या परिचय से होता है। धीरे-धीरे यह परिचय कुछ घनिष्ट हो जाता है। एक दूसरे के यहां आना-जाना होने लगता है। दूर हों तो पत्राचार अथवा फोनपर भी बातचीत करके आपसी हालचाल पूछ लिया जाता है। एक दूसरे के सुख-दुख में शरीक भी होना संभव होता है। यह दोस्ती यानि मित्रता मैत्री जैसी पवित्र नहीं है। संत तुलसी ने कहा है -
जो न मित्र दुख होहि दुखारी, तिनहिं विलोक त पातक भारी।”
तुलसी जी की यह मित्रता थोड़े अशों तक मैत्री के निकट तो है, फिर भी उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाती ! यह तो केवल मित्र के दुख में भागी होने की भावना है यानि उस जाने-पहचाने व्यक्ति (अपने मित्र) तक ही सीमित है, जब कि मैत्री-भावना प्राणीमात्र के लिये है - जाने, अनजाने, मित्र और अमित्र सब के लिए है। यह केवल सामान्य प्रेम नहीं है। यह तो अति पवित्र, निश्छल, नि:स्वार्थ प्रेम है। साधारणतया प्यार या प्रेम में जो भावना जागृत होती है, उससे अंतत: दुख ही उत्पन्न होता है, क्योंकि उसके मूल में अपना स्वार्थ निहित होता है। अत: दुख ही होता है जब कि वह व्यक्ति या अवस्था नहीं रहती। मैत्री में ऐसा नहीं होता। जो सही मैत्री-भावना रखता है उसकी मैत्री सद्गुणी या दुर्गुणी, अपने या पराए, सब के लिए समान रूप से होती है। वह बदले में कुछ भी वांछना नहीं रखता । मैत्री-भावना वाला व्यक्ति सुख की नींद सोता है, क्योंकि वह तो अजातशत्रु हो गया है; वह सब से प्यार करता है और सब उससे प्यार ही करते हैं। वह प्राणीमात्र से, जीव-जंतु आदि सभी से प्रेम पाता है। सभी उसकी मैत्री के घेरे में आ जाते हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियों के आश्रमों में सिंह और हिरण आदि के साथ-साथ विचरने की बात इसी मैत्रीमय वातावरण के कारण ही तो थी। भगवान गौतम बुद्ध ने भी ऐसा ही अनुभव किया कि जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास के समय न तो जंगली पशु उनसे डरते थे और न ही वे उनसे डरते थे।
 इतना ही नहीं मैत्री-भावना वाले व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक विशेष प्रकार की शक्ति और सुख का अनुभव होता है। उसके संपर्क से रोगियों के दुख का शमन हो जाता है। यह तथ्य है। मैत्री-भावना युक्त व्यक्ति के चेहरे पर एक विशेष आभा झलक ती रहती है और वह सदा प्रसन्न-चित्त रहता है। मृत्यु के समय भी तथा उसके बाद भी उसका चेहरा शांत ही रहता है। क्योंकि वह सुख से शरीर त्यागता है। अतः यदि उसका पुनर्जन्म हो तो वह सुखमय ही होता है।

करुणा - ब्रह्मविहारी की दूसरी उपलब्धि ‘करुणा है। किसी को कष्ट में देखक रजो भावना मन में जागृत होती है या जो संवेदना होती है वह करुणा की भावना है। किसी को दुखी देखकर मन द्रवीभूत हो जाता है और विचार उठता है कि इस बेचारे की बड़ी दयनीय दशा है; इसका यह दुख दूर हो जाय ! कैसे हो जाय ? क्या उपाय है ? उसके बाद ऐसी दया की भावना जागती है कि क्या मैं इसके दुख-निवारण में सहायक हो सकता हूं ? तब वह उसे कुछ देना चाहता है। तन, मन, धन से; जो भी बन पड़ता है वह करता है। दया करुणा का प्रतिफल है। दोनों में अन्योन्याश्रित संबंध है। दोनों ही गुण श्लाघ्य हैं; अनुकरणीय हैं। दोनों में पवित्रता इसलिए है कि इस दया के बदले कुछ अपेक्षा, मांग या शर्त नहीं लगी रहती । केवल मात्र उपकार करने का ही ध्येय रहता है।

मुदिता - ब्रह्मविहारी की तीसरी उपलब्धि ‘मुदिता' है। यह मन की उस स्थिति का अत्यंत पवित्र भाव है जिसमें किसी को सुखी देख कर मोद जागता है, ठीक वैसे ही जैसे कि किसी को दुखी देख कर करुणा जागे। यह ईष्र्या का प्रतिलोम है। किसी की उन्नति देखकर मन में जलन, ईष्र्या या द्वेष न होकर मुदित मन या प्रसन्न होना, एक विशिष्ट गुण है। साधारणतया लोग दूसरे की हानि या अवनति देखकर खुशी या संतुष्टि अनुभव करते हैं अथवा उस हानि को उसके पूर्व कर्म का फल या गल्ती का फल बता कर, हानि का होना ठीक मानते हैं। विरले ही हैं जो किसी की दुर्दशा पर दुखी या सहानुभूति अनुभव करते हैं और सुदशा पर वास्तव में प्रसन्न होते हैं। मुदितामय व्यक्ति अपने शत्रु की भी उन्नति और सुदशा पर संतोष और प्रसन्नता अनुभव करता है।

उपेक्खा (उपेक्षा) - यह ब्रह्म-विहार की सबसे कठिन उपलब्धि है। यह है समता। इसका मौलिक अर्थ अनासक्ति है, तटस्थता है। बिना राग-द्वेष, बिना लाग-लपेट के निष्पक्ष रूप से देखना है। वर्तमान हिंदी में उपेक्षा शब्द का प्रयोग इस उपेक्षा काद्योतक नहीं रहा, बल्कि उसमें परित्यक्तता का भाव छिपा हुआ है। वहां उसे उदासीनता, तिरस्कार, अनादर या ध्यान न देने के अर्थ में ही लिया गया है। वस्तुतः उपेक्खा - अन्यमनस्कता या उदासीनता नहीं है।

विपश्यना-आचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का जी के शब्दों में -
समता (उपेक्खा) चट्टानी जड़ता नहीं है, मरघट की शांति नहीं है। समता नकारात्मक नहीं है; मूढ़ता, मूर्छा, कुंठा नहीं है। सामान्यतः उपेक्षा में आप अलग रहते हैं। तटस्थ रह कर जो कुछ हो रहा है। उसके प्रति अन्यमनस्क रहते हैं। उसमें आपको कोई मतलब या सरोकार नहीं है। आप उस घटना, अवस्था या स्थिति की ओर ध्यान भी नहीं देते। परंतु ‘उपेक्खा' में यह बात नहीं है। विपश्यी व्यक्ति, होने वाली स्थिति, घटना को सम्यक दृष्टि से देखता है, उसका यथाभूत अध्ययन करता है, पर केवल साक्षीभाव से ही। उसमें लपेटा जा कर नहीं देखता। “समता से देखना ही विशेष रूप से देखना है, प्रज्ञापूर्वक देखना है, सम्यक दृष्टि से देखना है।" -(स. ना. गोयन्का ) |

जैसे कमल कीचड़ में से उत्पन्न होकर भी पानी या कीचड़ से अछूता ही रहता है - उपेक्खा वाला व्यक्ति उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ व्यक्ति उपेक्खा वाला ही है। संसार की उथल-पुथल, हानि-लाभ, सुख-दुख, मान-अपमान जीवन में आते उतार-चढ़ाव, जवार-भाटे, वर्षा-आतप आदि द्वंद्वों से समता-प्राप्त विपश्यी मानव का मन विचलित नहीं होता। वह सारी स्थितियों में समरस बना रहता है। इन सभी अवस्थाओं में जो व्यक्ति एक चट्टान की तरह दृढ़ और अडिग रहता है। वही उपेक्खा (समता) में रहता है। पृथ्वी माता जैसे अच्छी-बुरी, स्वच्छ और गंदी वस्तुओं को बिना भेदभाव या चूं-चप्पड़ कि ये आत्मसात कर लेती है, उसी प्रकार उपेक्खा की शक्ति प्राप्त होने पर व्यक्ति वैसा ही परम धीर और सहिष्णु हो जाता है। उसे परस्थितियों की बदलती हुई लहरों पर सहजभाव से तैरना आ जाता है। उसके मन, वाणी, शरीर के कर्मों की समता में भी तन्मयता आती है। परम सुख प्राप्त होता है। “उपेक्खा (समता) का सुख संसार के सारे सुखों से परे है, श्रेष्ठ है।"
-(स० न० गोयन्का )

सभी साधक ब्रह्म-विहारी बनें, यही मैत्रीमय मंगल कामना है!

डॉ० ओमप्रकाश जी (वरिष्ट सहायक आचार्य )

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आत्मकथन सत्तर वर्ष पुरे हुये - व‍िपश्यनाचार्य सत्यनारायण गोयन्का


Seventy Years Have Been Completed

जीवन ने सत्तर शरद देख लिये । और न जाने कितने बचे हैं। जो बचे हैं, उनका कैसे सदुपयोग हो? यही सजगता बनी रहे।
इस अवसर पर कल्याणी भगवद्-वाणी के कुछ बोल मानस में उभरते हैं। प्रसंग है श्रावस्ती के, अनाथपिंडक के जेतवनाराम का। समय है रात्रि का। कोई देवपुत्र भगवान से मिलने आया है। वह भगवान के सामने चार चरण की एक गाथा में अपने विचार प्रगट करता है -
अच्चेन्ति काला, तरयन्ति रत्तियो - समय बीतता जा रहा है, राते संरकती जा रही हैं।
वयोगुणा अनुपुब्बं जहन्ति - उम्र क्रमश: खत्म होती जा रही है।
एतं भयं मरणे पेक्खमानो- [आने वाली] मृत्यु के उस भय को देखते हुए,
पुञानि कयिराथ सुखावहानि - सुखद फल देने वाले पुण्यों का संपादन करो।

कहने वाले ने ठीक ही कहा। सचमुच - सुबह होती है, शाम होती है। उम्र यों ही तमाम होती है ॥
कहीं यह अनमोल मानवी जीवन यों ही व्यर्थ खत्म न हो जाय। भले आने वाली मृत्यु के भय से ही सही, पर सुखद फलदायी पुण्यकर्मों में ही लगे । पाप कर्मों का संपादन करेंगे, तो फलस्वरूप दुःखों का सामना करना होगा। पुण्य कर्मों का संपादन करेंगे, तो फलस्वरूप सुखों का सामना करेंगे । प्रकृति का यह अटूट नियम है। अतः पापकर्मों की अपेक्षा पुण्यकर्मों का संपादन उचित है। अकुशल की अपेक्षा कुशल का संपादन समीचीन है। दु:खों से बचने के लिए, सुख भोगने के लिए। परंतु इस सदा बदलते रहने वाले सुख-दु:ख, दुःख-सुख के लोक चक्र में न जाने कब से पिसते चले आ रहे हैं और यह सांसारिक सुख-दुःख का भव-भ्रमण आगे न जाने कब तक यों ही चलता रहेगा? भगवान ने इस भव-संसरण से सर्वथा विमुक्त हो जाने का सहज, सरल मार्ग ढूंढ निकाला। उसे सब के लिए सुलभ बनाया। लोगों को मुक्तिदायिनी विपश्यना विद्या सिखाई, जिसके अभ्यास से भव-मुक्त होकर इन अनित्यधर्मा, लोकियसुखों से कहीं श्रेष्ठ, नित्य, शाश्वत निब्बानं परमं सुखं यानि निर्वाण का परम सुख प्राप्त कर सकें , परम शांति उपलब्ध कर सकें । परंतु यह तभी संभव है, जबकि लोकिय सुख-भोग के पीछे बेतहाशा दौड़ लगाने वाली अभीप्सा का स्वभाव टूटे। और विपश्यना यही कराती है। अंतर्मन की गहराइयों में राग-द्वेष के संस्कारों को प्रजनन करते रहने का स्वभाव तोड़ती है। सुख के प्रति राग और दु:ख के प्रति द्वेष के संस्कारों का उत्खनन करती है। अंध-प्रतिक्रिया के दीर्घकालीन स्वभाव का उन्मूलन करती है। जब तक लोकिय सुखों के प्रति राग रहेगा, तब तक लोकिय दु:खों के प्रति द्वेष भी जागता ही रहेगा और इन दोनों के कारण लोक चक्र चलायमान ही चलायमान रहेगा। लोक चक्र टूटेगा तो ही लोकातीत, भवातीत, इंद्रियातीत परम शांति की उपलब्धि होगी। इसी हेतु भगवान ने विपश्यना की कल्याणकारिणी साधना सिखाई।

इसी ओर इंगित करते हुए भगवान ने चार चरण की उपरोक्त गाथा सुन कर उसके चौथे चरण को बदलते हुए कहा -
लोक मिसं पजहे सन्तिपेक्खो- परम शांति की अपेक्षा रखने वाले को चाहिए कि वह  लोकिय सुख की अभीप्सा त्यागे।।
विपश्यना साधना के गहन अभ्यास से ही यह अभीप्सा छूटती है। यह अभ्यास करते हुए साधक को सामने आ रही मृत्यु के प्रति सजगता अवश्य बनाये रखनी चाहिए, परंतु मृत्यु का भय रंचमात्र भी न रहे। मृत्यु चाहे जब आये, हमें प्रसन्न चित्त से उसके लिए सतत तैयार रहना चाहिए।
विपश्यी साधक को जीवन के किसी भी जन्म-दिवस के पड़ाव पर एक दृष्टि अतीत पर डाल कर अवश्य देख लेना चाहिए। अब तक के जीवन में जो भूलें हुई हैं, वह भविष्य में न हों, इसका पुनः दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए। जो सत्कर्म अब तक किये हैं, उन्हें शेष जीवन में भी करते रहने के लिए कृतसंकल्प हो जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण सत्कर्म तो मुक्तिदायिनी भगवती विपश्यना का अभ्यास ही है। वह छूटने न पाये । सतत चलता रहे।
आज के अभ्यास को कल पर न टालें। भगवान के यह बोल कानों में सदा चेतावनी की तरह गूंजते रहें -
अज्जेव किच्चमातप्पं -तपने का काम आज ही करो।[उसे कल पर मत टालो ।]
कोज मरणं सुवे - कौन जाने कल सुबह ही मरना हो ।

मृत्यु को आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है, परंतु वह आती है तो उससे भयभीत होने की भी आवश्यकता नहीं है। हम उसके लिए हर समय तैयार रहें। हमें समय-समय पर मरणानुसति का अभ्यास करते रहना चाहिए। मैंने अपने अनुभव से देखा है कि यह अत्यंत लाभदायी होता है। ऐसा करते हुए कभी-कभी अपने मानस की जांच कर देख लेना चाहिए कि यदि कल सुबह ही मृत्यु होगी, तो इस जीवन के अंतिम क्षण की कैसी अवस्था होगी? क्या कोई अभीप्सा तो साथ नहीं लगी रहेगी, भले ही वह धर्म-कार्य पूरा करने की ही अभीप्सा क्यों न हो ? अथवा जब कभी कोई भावावेश का संस्कार मन में जागे, तो तुरंत मरणानुसति करते हुए देखना चाहिए कि यदि अगले ही क्षण मेरी मृत्यु हो जाय, तो यह भावावेश इस भव-धारा को कैसा भयावह मोड़ दे देगा? यह होश जागते ही भावावेश से छुटकारा पाना आसान हो जाता है।

समय-समय पर मृत्यु का रिहर्सल करने का एक लाभ यह भी होता है। मानस यह सोचता है, न जाने कितने जन्मों से भव-संसरण करते आ रहा हूं। इस बार किसी पुण्य के कारण मानव क अनमोल जीवन मिला है। शुद्ध धर्म से संसर्ग हुआ है। थोथे कर्मकांडों और निकम्मी, निरर्थक दार्शनिक मान्यताओं से तथा सांप्रदायिक बाड़े-बंदी से मुक्त, शुद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा जागी है। तो इससे मैंने क्या लाभ उठाया है? इसका लेखा-जोखा सामने आता है, तो जो कमी रह गई, उसे पूरा करने का उत्साह जागता है। मृत्यु कल सुबह ही आयेगी या सौ शरद पूरे करके आयेगी, मैं नहीं जानता। परंतु जितने दिन जीना है, बड़े प्रसन्न चित्त से अपनी पुण्य-पारमिताओं को पूरा करने में लगा रहूं और मानवी जीवन को सार्थक बना लें। परिणाम जो आये सो आये, जब आये तब आये। उसे धर्म पर छोडूं। अपनी ओर से यथाशक्ति इस महत्वपूर्ण जीवन के बचे हुए समय का अच्छे से अच्छा सदुपयोग करता रहूं। इस निमित्त प्रेरणामयी भगवद्-वाणी का यह उद्बोधन सदा साथ रहे -

उत्तिट्टे नप्पमज्जेय्य धम्मं सुचरितं चरे ॥ -उठो, बिना प्रमाद के भली प्रकार धर्माचरण में लग जाओ।
और लगा ही रहूं धर्माचरण में। परिणाम स्वतः मंगलमय आयेंगे।
मंगलमित्र,
सत्य नारायण गोयन्का

फ़रवरी 1994 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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विपश्यनाचार्य गोयन्का जी को आधासीसी के दर्द से कैसे मुक्ति‍ म‍िली

आत्मकथन
एक नया मोड़..

सितम्बर, 1955 में विपश्यना का पहला शिविर पूरा करने के बाद से जीवन में एक नया मोड़ आना शुरू हो गया। विपश्यना का व्यावहारिक पक्ष बड़ा सबल था। काम, क्रोध और अहंकार के गहरे विकारों से सतत विकृत रहने वाला मन अब प्रत्यक्षतः सुधरने लगा। था। मैंने गुरुदेव के सामने अपने इन त्रि-दोषों की व्यथा व्यक्त की थी। उन्होंने बड़े वात्सल्य भाव से इनसे मुक्त होने का उपाय बताया। पहले ही शिविर में शरीर का अणु-अणु जाग्रत हो चुका था। शरीर का कोई भी भाग मूर्छित व अर्द्ध-मूर्छित नहीं रह गया था। सर्वत्र उदय-व्यय का बोध जगाने वाला चैतन्य अनुभव होने लगा था। गुरुदेव ने समझाया कि काम, क्रोध या अहं में से कोई सा भी विकार जागे तो तुरन्त होश जगा कर एक ओर विकार की विद्यमानता स्वीकार करते हुए उसे साक्षी भाव से देखने का प्रयत्न करो, दूसरी ओर उस समय शरीर पर जो भी संवेदना महसूस हो रही हो, उसे तटस्थ भाव से देखते रहो और दोनों के अनित्य और परिवर्तनशील स्वभाव को समझते रहो। संबंधित विकार की जड़ों पर प्रहार होना शुरू हो जाएगा; उसका उत्खनन और निष्कासन होना शुरू हो जाएगा।

उन्होंने समझाया कि जीवित अवस्था में मन और शरीर का परस्पर अटूट संबंध रहता है। मन के विकारों का शरीर पर होने वाली संवेदनाओं से गहरा संबंध होता है। नये-नये साधक के लिए अमूर्त काम, क्रोध या अहंकार को साक्षी भाव से देख सक ना सहज नहीं होता। परन्तु यदि सारा शरीर खुल गया हो, कही मूच्र्छा नहीं हो तो शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को तटस्थ भाव से देखना सरल हो जाता है। अमुक विकार जागा है, बस केवल इसी तथ्य को स्वीकार कर संवेदनाओं को देखना शुरू कर दें तो विकार बलहीन होकर निष्कासित होने लगता है। केवल बुद्धि के स्तर पर विकार दूर करने का कोई भी प्रयत्न करें तो मानस के ऊपरी-ऊपरी हिस्से पर से विकार भले दूर हो जाय, परन्तु शारीरिक संवेदनाओं के आधार पर उसे देखने लगे तो विकार की जड़े उखड़ने लगती हैं, क्योंकि विकार की जड़े शरीर की संवेदनाओं से जुड़ी रहती है। इसीलिए अन्य सभी पद्धतियों के मुकाबले विपश्यना विकार निष्कासन के प्रयोग में अधिक सफल होती है। गुरुदेव का दिया हुआ यह आदेश प्रयोग में लाने लगा। शरीर की संवेदनाओं को यथाभूत देखना बड़ा सरल हो गया था। इसी कारण विकारों से छुटकारा पाना भी बड़ा सरल हुआ। स्वभाव में बदलाव आना शुरू हुआ। यही विपश्यना विधि की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण था। सन्देह के लिए कहीं कोई स्थान नहीं रह गया था। विकारों से छुटकारा पाते हुए स्वभाव में जो परिवर्तन आने लगा, वह स्वयं अपने आपको तो स्पष्ट महसूस होता ही था, घरवालों को और कार्यालय तथा कारखानों के कर्मचारियों को भी स्पष्ट दीखने लगा। बड़ा आत्म-संतोष हुआ।

माइग्रेन के सिर-दर्द के लिए भी शरीर पर होने वाली संवेदनाओं का यथाभूत दर्शन करना बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। पहले जब कभी माइग्रेन का आक्रमण होता था तो तुरंत सिर में एक प्रकार का तनाव सा महसूस होने लगता था। जरा सा तनाव आते ही तीव्र माइग्रेन आएगी, यह सोच कर मन अपना संतुलन खो बैठता था । आध घंटा बीतते-बीतते तो माइग्रेन इतनी तीव्र हो जाती थी कि डॉक्टर को बुला कर मॉफिया [अफीम] की इंजेक्शन लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता था। लगभग हर पन्द्रहवें दिन माइग्रेन का आक्रमण होता और उसकी चिकित्सा स्वरूप मॉफिया की सूई लेने का क्र म लगभग पांच-सात वर्षों से चल रहा था। अतः मॉफिया की सूई लेने से शरीर के भीतर क्या असर होता है, इसका अनुभव बड़ा स्पष्ट होने लगा था। मॉफिया जैसे ही शरीर में प्रवेश करती, सारे शरीर में और विशेष कर शरीर के कोमल अंगों पर एक प्रकार की झुनझुनी महसूस होने लगती थी । सिर का दबाव कम होने लगता था। सारा शरीर शिथिल होता जाता था और धीरे-धीरे नींद आ जाती थी। नींद से जब उठता तो माइग्रेन तो खत्म हो गया होता, परन्तु बड़ा जी मिचलाता, उल्टियां होतीं और परिणामस्वरूप शरीर और मन लगभग चौबीस घंटे तक काम करने लायक नहीं रहते। रोगी की तरह बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता । यह माफिया का पश्चात्-प्रभाव था। विपश्यना के पहले शिबिर के पश्चात् जब जब माइग्रेन की घंटी बजती तो लेट कर शरीर की संवेदना देखने लगता। तब यह देख कर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ कि माफिया लेने से सारे शरीर में और विशेषकर शरीर के कोमल अंगों में जो एक प्रकार की झुनझुनी हुआ करती थी, ठीक वैसी ही झुनझुनी उन्हीं अंगों पर बड़ी स्पष्ट मालूम होने लगती, वैसे ही सिर का तनाव निकलने लगता और थोड़ी ही देर लेटे रहने पर भला-चंगा होकर उठ खड़ा होता और अपने काम में लग जाता । माफिया के पश्चात्-प्रभाव से जो पीड़ाएं होती थी, उनसे छुटकारा मिला । माफिया का व्यसन लग जाने का जो भय था, वह दूर हुआ। रोग पर काबू पाना आसान हो गया। मुझे विपश्यना की दवा मिल गई। अब मॉफिया की सूई की आवश्यकता नहीं रही। यह विपश्यना की दवा बड़ी कल्याणकारिणी साबित हुई। मॉफिया लेने के बाद दूसरे दिन शरीर बड़ा दुर्बल और शिथिल हो जाया करता था। अब विपश्यना से मॉफिया के सारे लाभ तो मिले ही, साथ-साथ उसके दुष्प्रभावों से भी मुक्ति मिली। विपश्यना द्वारा माइग्रेन के दूर होते ही शरीर और मानस में बड़ी सजगता और स्फूर्ति महसूस होती और मैं तुरंत अपने काम में लग जाता। विपश्यना माफिया का काम करने लगी; मॉफिया से कहीं बेहतर काम करने लगी। मॉफिया का पश्चात्-प्रभाव जितना दु:खदायी हुआ करता था, उसके मुकाबले विपश्यना का पश्चात्-प्रभाव उतना ही सुखदायी साबित होने लगा!

लेकिन यह तो विपश्यना का केवल एक उपफल मात्र था। मुख्य लाभ तो विकारों से मुक्ति पाने का था। गीता की स्थितप्रज्ञता की स्थिति का हजार चिंतन मनन करने पर भी विकार टस से मस नहीं हुए थे। जीवन के लगभग 20-25 वर्ष गहन भक्ति के दौर में से गुजरे थे। उसने केवल थोड़ा-थोड़ा ऊपरी-ऊपरी लाभ पहुंचाया था। वह भी अल्प-काल के लिए ही और फिर वैसा का वैसा अथवा कभी-कभी तो उससे भी बदतर ।

मुझे याद है, रोज सुबह-सुबह मैं अपने आपको एक कमरे में बन्द कर लिया करता था ताकि घर वाले जान न पायें कि मैं कैसी भक्ति करता हूं। उस बंद कमरे में अपने उपास्य देव के चित्र को कुछ देर निर्मिमेष देखता हुआ धीरे-धीरे भजन गाने लगता था -
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।।
कामक्रोध को पहन चोलनो गल विषयन की माल ॥ ...आदि-आदि।
अथवा - मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जो तन दियो ताहि बिसरायो कैसो नमक हरामी ॥...आदि-आदि।
अथवा - प्रभुजी मैं तो पतितन को सिरमौर ।...आदि-आदि।
अथवा - प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो । ...आदि-आदि।
अथवा - प्रभुजी मैं तो थारो जी थारो ।।
भंडो बुरो कुटिल अर कामी जो भी हूँ सो थारो।
आंगलियां नू परे न होवै या तो आप बिचारो ॥...आदि-आदि।

और इसी प्रकार के भजन गाते-गाते कंठ अवरुद्ध हो जाता और आध घंटे तक अश्रु-धारा बहती रहती। आंखें लाल हो जाती। यही मेरी नित्य की नियमित भक्ति थी। इससे मन बड़ा हल्का हो जाता। लगता, अब मैं विकारों से मुक्ति पा रहा हूं।
जब कभी नरसी मेहता का यह भजन गाता –
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे।
पर दुःखे उपकर करे तोए मन अभिमान न आने रे ॥ ...आदि-आदि।।
तो लगता, मैं परम वैष्णव बनता जा रहा हूं। वैष्णव जन कें जो सद्गुण गिनाये हैं, वे सब मुझमें उतर रहे हैं। मेरे मानस का बड़ा सुधार हो रहा है।

इस भावावेशमयी भक्ति का अच्छा प्रभाव रहता। प्रतिदिन पूर्वाह्न के कुछ घंटे अच्छे बीतते । परन्तु फिर दैनिक भाग-दौड़ में लग जाने पर सारा होश खो बैठता। वही क्रोध का तूफान, वही काम-वासना का ज्वार और वही अहं-भाव की अकड़न । विकारों के इस घिनौने दौर में से निकल कर फिर वही पश्चाताप, फिर वही आत्म-ग्लानि, फिर वही आत्म-धिक्कार और दूसरे दिन प्रातः फिर वही भजन, गायन और रोना-धोना; यही नित्य का क्रम । इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता था। विपश्यना ने रास्ता सुझाया। प्रत्यक्ष परिणाम आने लगे, स्वभाव बदलने लगा। विकारों का आक्रमण अब भी होता पर इतना तीव्र नहीं होता था । होता तो भी शीघ्र होश आ जाता और संवेदनाओं को देखते-देखते उससे तुरन्त छुटकारा पा लेता। यही तो अपेक्षा थी, यही आकांक्षा थी। यही मन की एक मात्र मुराद थी जो पूरी हुए जा रही थी।

भक्ति के दौरान मैं अपने मन में सोचा करता था कि मैं सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर मुड़ गया क्योंकि धन-दौलत, ऐश्वर्य-वैभव, यश-प्रसिद्धि अथवा अन्य किसी प्रकार की लोकीय कामनाओं की पूर्ति की मांग नहीं करता था। यहां तक कि अपने उपास्य के दर्शनों के लिए भी लालायित नहीं होता था। एक मात्र कामना यही थी कि मेरे मनोविकारों का खात्मा कैसे हो ? मैं विकार-विमुक्त कैसे बनें ? बार-बार विकार जगा कर जिस अपराध-ग्रंथि को जटिल से जटिलतर बनाये जा रहा हूं, उससे छुटकारा कैसे पाऊं? लेकिन फिर बात समझ में आई, यह भी । सकाम भक्ति ही है। अब मांगनी विकार-विमुक्ति की हो गयी। मांगना तो मांगना ही रहा। परन्तु मांगने से तो भीख भी नहीं मिलती। विकार विमुक्ति की यह ऊंची अवस्था मांगने से कहां मिलेगी भला!
वर्षों की प्रार्थनाएं, करुण-कातर कंठ के अनुनय-विनय, रुदन-क्रन्दन जो परिणाम नहीं ला सके; विपश्यना उसे सहज भाव से प्रत्यक्ष लाने लगी क्योंकि वह किसी से गिड़गिड़ा कर मांगने की साधना नहीं थी। स्वयं पुरुषार्थ करना था। विकारों को जगाने का काम स्वयं अपने अंधेपन में किया करता था। अब बात समझ में आई कि उसको दूर करने का काम भी स्वयं अपनी ज्ञान की आंखें खोल कर करना होगा। किसी दूसरे के भरोसे नहीं होगा। विपश्यना ने यही सिखाया।

अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें, वही प्राप्त हो गई -प्रज्ञा की आंखें, ज्ञान की आंखें । प्यासे को क्या चाहिए, दो बूंद पानी और वही प्राप्त हुआ। जन्म-जन्म की प्यास बुझाने के लिए अमृत की घूंट मिल गई। मन की सारी मुरादें पूरी हुईं। परिश्रम फलदायी हुआ। पुरुषार्थ मुक्तिदायी हुआ। जीवन धन्यता से भर गया। जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया - बड़ा सुखद, बड़ा सार्थक , बड़ा कल्याणप्रद ।

कल्याणमित्र,
सत्य नारायण गोयन्का

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रोग के समय क्या करें?

🌹गुरूजी--
मेरे प्यारे साधक, साधिकाओं!
स्थान स्थान से विश्व भर के साधक साधिकाओं की मंगल मैत्री मिल रही है।मंगल मैत्री अमित कल्याणी है।

🍁परंतु किसी किसी साधक ने चिंता भी प्रकट की है।चिंता, भय, आशंका, निराशा, व्याकुलता धर्म विरोधी तरंगे हैं, कल्याण विरोधी तरंगे हैं।
अतः विपश्यी साधको के लिये ऐसी तरंगो का प्रजनन अत्यंत अशोभनीय है, त्याज्य है।
समता भरी मंगल मैत्री ही ग्राह्य है।

🌻यदि रोग आये तो चिंता किस बात की?
रोग तो मंगल का सूचक है।
शरीर में संचित हुए अनेक प्रकार के विष जब अन्य किसी राह से नही निकल पाते तब रोग से ही उनका रेचन होता है।
इसी प्रकार कई अकुशल संस्कार ऐसे होते हैं जो विपश्यना द्वारा दुर्बल तो हो जाते हैं परंतु वह निर्मूल नही हो पाता, तो उनका रेचन(expulsion) भी कभी कभी शारीरिक रोग द्वारा ही होता है।
दोनों ही अवस्था में महामंगलदायक है रोग का आगमन।

🌸हां यदि रोग को भोगने लगे तो अवश्य चिंता की बात शुरू हो जाती है।
जब कोई व्यक्ति रोग का दुःख भोगता है तो कराहता है, तड़पता है, व्याकुल होता है, दुर्मन होता है और परिणामतः रोग-निवारण की उपचार अवधि को लंबा बनाता है।
दूसरी और जितनी देर भोगता है, उतनी देर नये-नये दूषित कर्म संस्कारो का ढेर प्रजनन किये जाता है।
यानि अपने ही दुःखो का संवर्धन किये जाता है।

🌷परंतु कोई व्यक्ति जब जब अपने रोग को देखता है, उसका साक्षिकरण करता है तो समता भरे शांत चित्त से दुःख दर्शन करता हुआ रोग निवारण की उपचार अवधि को छोटा करता है।
जीवनधारा पर उदीर्ण हुए पूर्व कर्म संसकारों के कर्म विपाको का साक्षी बनकर नए संस्कारो के प्रजनन का संवर करता है, और इस प्रकार पुरानों के विघटन और क्षय होने का कारण बनता है।

💐रोग का दर्शन दुःख का दर्शन है।
रोग इस परिवर्तनशील शरीर का स्वभाविक धर्म है।अतः रोग का दर्शन धर्म का दर्शन है।रोग से जरा-जीर्ण होना जीवन जगत की सच्चाई है।
अतः रोग का दर्शन सत्य का दर्शन है।
रोग दर्शन यानी सत्य दर्शन यानी प्रथम आर्य सत्य-दर्शन, ऐसी सच्चाई का दर्शन जो हमे आर्य बना देता है, मुक्त बना देता है।
इसलिये रोग का दर्शन महामंगलकारी है।

🌺परंतु दुर्बल मन कभी कभी रोग दर्शन से यानी सत्य दर्शन से मुह मोड़ लेता है। अपने पुराने कर्म संस्कारो का ऋण हँसते हँसते नही चुकाना चाहता तो कुछ देर के लिये रोग में लोट- पलोट लगाने लगता है, रोग भोगने लगता है।यानि दुःख भोगने लगता है।

🍁ऐसे समय किसी के द्वारा प्रजनन की गयी चिंता की तरंगे मन को और अधिक दुर्बल बनाने में सहायक होती हैं।
परंतु ऐसे समय किसी साधक द्वारा समता भरे चित्त से अनित्य बोध की प्रज्ञा से प्रजनन की मंगल मैत्री की तरंगे रोगी के मन को सबल बनाने में सहायक होती हैं।
भोक्ता से दृष्टा बनाने में सहायक होती हैं। दोनों और कल्याण का कारण बनती है।

🌻अतः साधक भूलकर भी चिंता की तरंगो का प्रजनन न करे।
प्रज्ञाभरी मंगल मैत्री का ही प्रजनन करे।
असीम कल्याणी है मंगल मैत्री।

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🌺बढ़े पारमी क्षंंति की 🌺




पारमी अथवा पारमिता कहते हैं परिपूर्णता को। उन सद्गुणों की परिपूर्णता जो कि किसी भी बोधिसत्त्व को संबोधि प्राप्त करने के लिए सामर्थ्य प्रदान करती है, जो कि किसी भी मनुष्य को भव-सागर के पार जाने में सहायिका सिद्ध होती है। दस पारमिताओं में से क्षांति (खन्ति) का, यानी तितिक्षा, सहिष्णुता, सहनशीलता का विशिष्ट महत्त्व है। भव-सागर की उत्ताल तरंगों को धर्म-धैर्य के साथ सहन कर लेना, अप्रिय से अप्रिय हृदय-विदारक घटना के संयोग से भी चित्त को विचलित न होने देना, प्रिय से प्रिय के वियोग पर भी अंतर्तम की समता कायम रखना - यही क्षति पारमी को परिपुष्ट करना है।

जो बोधिसत्त्व अपनी सभी पारमियों को पराकाष्ठा तक परिपूर्ण करके भगवान गौतम के नाम से सम्यक संबुद्ध बने, उन्होंने अनेकानेक पूर्व जन्मों में अपनी क्षांति पारमी परिपूर्ण करने का भी सफल प्रयत्न किया।

🌺पुत्र-वियोग
भव-संसरण के एक जीवन में बोधिसत्त्व वाराणसी के एक ब्राह्मण कुल में जन्मे। बड़े हुए, अपने परिवार के प्रमुख बने । उनके साथ उनकी पत्नी, एक युवा पुत्र, एक युवा पुत्र-वधू, एक युवा पुत्री और एक दासी थी; यों छ: जनों का सुखी परिवार था। परिवार के भरण-पोषण के लिए बोधिसत्त्व नगर के बाहर खेती-बाड़ी करते थे और युवा पुत्र उनका साथ देता था।

सदा की भांति एक दिन वह अपने खेत पर काम कर रहे थे। स्वयं हल चलाने में निमग्न थे, युवा पुत्र खेत का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करके उसे जलाने के काम में लगा था। इतने में कूड़े-कर्कट के ढेर में से एक क्रुद्ध नाग निकला और उसने पुत्र को डस लिया। कुछ ही देर में नाग-विष सारे शरीर में समा गया और किसान का पुत्र बेहोश होकर वहीं गिर पड़ा। बोधिसत्त्व ने दूर से अपने पुत्र को गिरते हुए देखा तो समीप चले आये। परंतु तब तक पुत्र के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। बोधिसत्त्व ने मृत शरीर को उठा कर समीप के एक पेड़ की छांह में लेटा दिया और उसे कपड़े से ढक दिया। बिना व्याकुल हुए वह पुनः हल चलाने के काम में लग गये।

कुछ देर बाद देखा कि खेत के समीप की पगडंडी पर से एक अन्य किसान नगर की ओर जा रहा है। बोधिसत्त्व ने उससे प्रार्थना की कि वह उनकी घरवाली को एक सूचना पहुँचा दे। सूचना यही थी कि घर की जो दासी नित्य दोपहर को पिता-पुत्र का भोजन लेकर खेत पर आया करती थी वह आज केवल एक का ही भोजन लेकर आये । पहले भोजन लेकर अकेली दासी आया करती थी, आज परिवार के सभी लोग स्वच्छ वस्त्र पहन कर, अपने साथ कुछ सुगंधित फूल लेकर आये।

यह सूचना जब राहगीर ने ब्राह्मणी को दी तो वह तत्काल समझ गई कि उसका पुत्र नहीं रहा। परंतु यह दु:खद सूचना पाकर ब्राह्मणी विचलित नहीं हुई। परिवार के अन्य चार जने भी अविचलित रहे और बोधिसत्त्व के आदेशानुसार खेत की ओर चल दिये। उनमें से न तो किसी ने रुदन-क्रंदन किया, न विलाप-प्रलाप ।
बोधिसत्त्व अपने हर जीवन में धर्म का जीवन जीते हुए किसी न किसी पारमी को परिपुष्ट करने का काम करते हैं। वह केवल स्वयं धर्म का जीवन जीकर नहीं रह जाते बल्कि अपने स्वजन-परिजन, मित्र-बंधुओं को भी धर्ममय जीवन जीने की शिक्षा देते हैं। आगे जाकर स्वयं सम्यक संबुद्ध बनने पर उन्हें अनेकों को शुद्ध धर्म के मार्ग पर आरूढ़ करके भव-मुक्ति की ओर बढ़ने का उचित निर्देशन करना होगा, इसलिए हर जीवन में अत्यंत मैत्री चित्त से धर्म-देशना दे सकने का सामर्थ्य भी बढ़ाते हैं। अतः बोधिसत्त्व अपने सारे परिवार को गृहस्थ की जिम्मेदारियां कुशलतापूर्वक निभाते हुए शुद्ध धर्म में प्रतिष्ठित होने का नित्य उपदेश देते थे और स्वयं भी धर्म का जीवन जीकर सबके लिए प्रेरणादायक आदर्श उपस्थित करते थे। उन्होंने अपने परिवार वालों को यही शिक्षा दी थी कि वे शील का पालन करें। प्रसन्न चित्त से यथाशक्ति दान दें। साधना करते हुए चित्त को वश में करके उदय-व्यय का बोध जगा कर चित्त को निर्मल करते रहें। समय समय पर मरणानुस्मृति की भावना सबल करते रहें और निसर्ग के नियमों की यह सच्चाई समझते रहें कि जो जन्मा है, वह देर-सबेर मृत्यु को प्राप्त होगा ही। मृत्यु के चंगुल से एक भी प्राणी नहीं बच सकता। बोधिसत्त्व स्वयं मरणानुस्मृति की साधना में पक गये थे और उन्होंने अपने परिवार वालों को भी पकाया था।

जब परिवार के चारों लोग घर से खेत पर आये तब जिस बात की आशंका थी, वहीं सामने देखी। परंतु युवा पुत्र का मृत शव देख कर न कोई रोया, न किसी ने छाती पीट कर विलाप किया। सब चिता के लिए आसपास लकड़ियां चुनने लगे। थोड़ी देर में चिता तैयार हो गई। सबने मिल कर शव को चिता पर लेटाया। अपने साथ लाये हुए सुगंधित पुष्प उस पर चढ़ाये और चिता आवलित (प्रज्वलित) करके सब उसके समीप बैठ गये।

एक व्यक्ति ये सारी घटनाएं देख रहा था । सब कुछ देख कर वह विस्मय-विभोर हो उठा। समीप आकर उसने किसान से वार्तालाप आरंभ किया। उसने पूछा - - “क्या किसी पशु को जला रहे हो?”
“नहीं, यह पशु नहीं है, मृत मनुष्य का शरीर है जिसे हम जला रहे हैं।” बोधिसत्त्व ने उत्तर दिया।
 “तो यह तुम्हारा कोई दुश्मन रहा होगा ?”
“दुश्मन नहीं, यह मेरा इकलौता पुत्र था।”
तो क्या पुत्र के साथ तुम्हारे संबंध बिगड़े हुए थे?”
“नहीं भाई, नहीं। यह मेरा अत्यंत प्रिय पुत्र था।"
 “तो इस इकलौते प्रिय पुत्र को खोकर तुम रोते क्यों नहीं? विलाप क्यों नहीं करते?"
“जो गया सो गया। जैसे सांप अपनी कंचुली छोड़ कर चल देता है वैसे ही यह भी अपना शरीर छोड़ कर चला गया। अब विलाप करने से क्या मिलेगा? विलाप करने से तो वह वापिस आने वाला नहीं है।”

आगंतुक ने यही प्रश्न मृत युवा की माता से किया। उसने कहा – “पिता का हृदय कठोर हो सकता है, पर तुम तो नौ महीने पेट में पाल कर जन्म देने वाली, स्तन-पान करा कर उसका पोषण करने वाली मां हो। मां का हृदय तो बड़ा कोमल होता है। इकलौता पुत्र खोकर भी तुम क्यों नहीं रोती ?"
इसी प्रकार मृतक की भार्या से भी उसने प्रश्न किया – “तुम्हारा तो सर्वस्व लुट गया। इस कम उम्र में तुमने अपना सुहाग खो दिया। फिर भी तुम रोती क्यों नहीं?”
ऐसा ही प्रश्न उसने मृतक की बहन से किया - “बहन को अपना भाई अत्यंत प्यारा होता है। तुम कैसी बहन हो जो ऐसे भाई को खोकर भी क्रंदन नहीं कर रही ?"
तदनंतर उसने घर की दासी से पूछा- “मृतक व्यक्ति अवश्य तुम्हारे साथ अत्यंत कटुताभरा कठोर व्यवहार करता रहा होगा। इसीलिए तुम उसके मरने पर व्यथित नहीं हो।”
दासी ने कहा- “वह घर का दुलारा अत्यंत मृदुभाषी था। सबके साथ उसका व्यवहार अत्यंत मधुर था। वह सबका प्यारा था। बड़ा होनहार था।”
 “फिर भी कोई नहीं रोया?”

सबका यही उत्तर था- “रोने से किसी को क्या मिलेगा भला? वह बिना बुलाये आया था और बिना आज्ञा लिए चला गया। संसार में जीवन ही (कर्मानुसार) अनिश्चित होता है, मृत्यु तो सबकी निश्चित ही है। अपने कर्मों के अनुसार प्राणी आते हैं और अपने कर्मों के अनुसार चले जाते हैं।
यथागतो तथा गतो, तत्थ का परिदेवना?
- जैसे आया वैसे चला गया, इसके लिए रोना-पीटना क्या ?

जाने वाला चला गया। यह जो निष्प्राण शरीर चिता पर जल रहा है, वह क्या जाने कि हम उसके लिए रो रहे हैं? रोकर हम न अपना भला करते हैं, न किसी और का । रोकर स्वयं भी दुःखी होंगे, औरों को भी दु:खी बनायेगे।
तस्मा एतं न सोचामि, गतो सो तस्स या गति।
- उरगजातकं ३५४/२१-२२...
- जाने वाला अपने कर्मानुसार उसकी जैसी गति है वहां चला गया। इसके लिए हम शोक नहीं करते।"
इस प्रकार बोधिसत्त्व ने इस जीवन में स्वयं अपनी क्षति पारमी बढ़ाई तथा अपनी-अपनी क्षति पारमी बढ़ा सकने में परिजनों के भी सहायक हुए।

🌺पत्नी-वियोग
बोधिसत्त्व के किसी एक जीवन में उनकी अत्यंत रूपवती युवा भार्या रोगग्रस्त होकर काल के गाल में समा गई। लोग उस सुंदर युवती को मृत देख कर व्याकुल हो रहे थे, परंतु बोधिसत्त्व अपनी प्रिय पत्नी के मरण से जरा भी विचलित नहीं थे। ऐसी अवस्था में सामान्य लोग पत्नी-शोक में इतने व्याकुल हो जाते कि न खाते, न पीते, न नहाते, न धोते, न अपने काम-धंधे में लगते, बल्कि श्मसान भूमि का चक्कर लगाते हुए रोते-बिलखते विलाप ही करते रहते।
परंतु बोधिसत्त्व ने ऐसा कुछ नहीं किया। जब लोगों ने कारण पूछा तो उनका यही उत्तर था -

“जिसका स्वभाव टूटने का है वह देर सबेर टूटता ही है। हर प्राणी मरणधर्मा है। यही उसका स्वभाव है। वह मरता ही है। निसर्ग के नियमों के अनुसार यह भी मृत्यु को प्राप्त हुई। इसमें रोना क्या ? जब तक जीवित थी तब तक मेरी कुछ लगती थी। वह मेरी सेवा करती थी और मैं उसकी देखभाल करता था। मरने के बाद वह अपने कर्मानुसार किसी अन्य लोक में जन्मी है। अब वह मेरी क्या लगती है? मैं उसका क्या लगता हूं? रोने से न मेरा लाभ होगा, न उसका ।” यों बोधिसत्त्व ने इस जीवन में भी क्षति पारमी की पुष्टि की।

🌺अग्रज-वियोग
किसी एक जीवन में बोधिसत्त्व एक धनवान गृहस्थ के घर जन्मे । समय पाकर माता-पिता का देहांत हुआ। उनका बड़ा भाई सारा काम-धंधा देखता था। बोधिसत्त्व सहित सारा परिवार बड़े भाई पर आश्रित था। उसी के सहारे सब जीते थे। परंतु शीघ्र ही किसी रोग का शिकार होकर वह भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। बोधिसत्त्व ने धर्म-धैर्यपूर्वक इस आघात को सहन किया। रो-रोकर विलाप करते तो अपनी भी हानि करते और परिवार के अन्य लोगों की भी। अपने मृत भाई को भी कोई लाभ नहीं पहुँचा पाते। अतः क्षांति पारमी का संवर्धन करते हुए वे रुदन-क्रंदन से सर्वथा विमुख रहे। लोगों ने प्रश्न किया तो उन्होंने सबको धर्म समझाकर सांत्वना दी - “सारे प्राणी मरणधर्मा हैं। समय आने पर शरीर खंडित होता ही है। उसके लिए विलाप करना बेमाने है, निरर्थक है।”

🌺पितामह-वियोग
किसी जीवन में बोधिसत्त्व एक धनी गृहस्थ के घर जन्मे । बड़े होने पर उनका दादा काल-कवलित हुआ। बोधिसत्त्व दादा के बिछोह से विचलित नहीं हुए, परंतु उनका पिता अपना धीरज खो बैठा। उसका रुदन-क्रंदन रोके नहीं रुक रहा था। उसने अपने पिता के मृत शरीर का दाहकर्म करके उसके अस्थि-अवशेषों पर एक छतरी बनाई और वहां जाकर नित्य विलाप करता था। बोधिसत्त्व ने अपने पिता को समझाने की बहुत कोशिश की, पर असफल रहे। तब उन्हें एक युक्ति सूझी। वह कहीं से एक मरा हुआ बैल उठवा लाये और उसके सामने हरी-हरी घास और शीतल जल रख कर रुदन करने लगे कि वह फिर से जी उठे और यह आहार ग्रहण कर ले । लोगों ने बहुत समझाया पर वह रुदन ही करते रहे। लोगों ने समझा कि युवक सचमुच पागल हो गया है जो इस मुर्दै बैल को जिंदा करके, आहार खिलाना चाहता है।

पिता ने यह सब सुना तो बहुत घबराया । पितृ-वियोग के शोक को भूल कर अब वह पुत्र के लिए चितित हो उठा कि ऐसा समझदार युवक पागल कैसे हो गया? उसने अपने पुत्र को समझाना चाहा कि रोना निरर्थक है। यह मरा हुआ बैल पुनः जी नहीं सकता। यह सुन कर बोधिसत्त्व ने कहा- “पिताजी, देखिये इस बैल के तो सिर, मुँह, पेट, पांव आदि सारे अंग कायम हैं और प्रत्यक्ष दीख रहे हैं। मेरे रोने से यह अवश्य जी उठेगा। आप पितामह के लिए रोते हो जिनका सारा शरीर जल चुका, कुछ हड्डियां मात्र बची हैं। यदि आपके रोने से ये हड्डियां जी उठेगी तो मेरे रोने से यह मरा बैल क्यों नहीं जी उठेगा?" यह सुन कर पिता का होश जागा । इस प्रकार बोधिसत्त्व ने अपनी क्षति पारमी बढ़ाई और पिता को भी धर्म का बल प्रदान किया।

🌺पिता-वियोग
अनगिनत भव-संसरण की एक भव-श्रृंखला में बोधिसत्त्व दशरथ-पुत्र राम बन कर जन्मे। पिता के आदेश पर उन्होंने राज्य त्याग कर सीता और लक्ष्मण सहित वन-गमन किया। कुछ समय के बाद पिता की मृत्यु हो गई और भरत उन्हें आग्रहपूर्वक वापिस राजधानी ले आने के लिए वन में पहुँचा। बोधिसत्त्व राम को जब पिता के मरने की सूचना मिली तो वे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। उस समय लक्ष्मण और सीता फल-फूल चुनने के लिए बाहर गये हुए थे। राम जानते थे कि उन दोनों का हृदय बहुत कोमल है। यह दु:खद समाचार सुन कर वे व्याकुल, व्यथित हो उठेगे। अतः उनके लौट आने पर राम ने बहुत यत्नपूर्वक यह कटु संवाद सुनाया जिससे कि वे उस दुःख को सह सके, परंतु वे दोनों अत्यंत विकल हो उठे। भरत तथा उसके साथ आया हुआ सारा राजपरिवार तो रुदन-क्रंदन कर ही रहा था। क्षति पारमिता के धनी बोधिसत्त्व राम ने सबको धीरजभरी धर्मदेशना दी और समझाया –

“बहुत विलाप करके भी हम मृत पिता को जीवित नहीं कर सकते। प्रिय-वियोग के समय रुदन-क्रंदन से यदि किसी का भला होता हो तो हम सबको अवश्य रोना चाहिए, परंतु इससे तो अपनी तथा औरों की हानि ही होती है। रोने वाला अपने आपके प्रति हिंसा करता है, औरों का रुदन बढ़ा कर उनके प्रति भी हिंसा करता है। रोने-पीटने से मृत व्यक्ति को भी कोई लाभ नहीं होता। अतः रोना निरर्थक है । समझदार आदमी को चाहिए कि ऐसे समय मन में दु:ख जागते ही उसे तुरंत दूर कर दे, ठीक वैसे ही जैसे कि घर में आग लगने पर उसे तुरंत बुझा दिया जाता है।”

बोधिसत्त्व राम के धर्मोपदेश से सबका रुदन-क्रंदन रुका। इस प्रकार बोधिसत्त्व ने अपनी क्षति पारमी का संवर्धन किया, तथा औरों को भी क्षति-धर्म सिखाया। (जातक कथाओं में से)

साधको, जीवन में अनचाही घटना घटती ही रहती है। प्रिय व्यक्ति, वस्तु, स्थिति से वियोग होता ही रहता है। बोधिसत्त्व के अनेक जन्मों के अनुभवों से हम लाभान्वित हों और सहिष्णुता की पारमी का संवर्धन कर अपना कल्याण साध लें।

कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

('विपश्यना' वर्ष 24, अंक 8, माघ पूर्णिमा, 15-2-1995 से साभार)
नवम्बर 2015 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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एक ज‍िज्ञासा - क्या ईश्वर है

यह जिज्ञासा लगभग सभी के मन में समायी रहती है कि वह कौन है जो जन्मने पर हमारी मृत्यु निश्चित करता है और मरने पर पुनर्जन्म देता है? अधिकतर लोग उसे ईश्वर के रूप में मानते हैं। वह ईश्वर है जो हमें जन्म देता है और मृत्यु तक पहुँचाता है और फिर जन्म देता है। बुद्ध के पहले भी ऐसे प्रश्न उठते थे, बुद्ध के समय भी और बुद्ध के बाद भी। बुद्ध के बाद का एक भारतीय संत कहता है - ‘पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्। वह औरों की तरह अपने परमात्मा, मुरारि से प्रार्थना करता है-- ‘पाहि मुरारे... -- मुझे इस भव-संसरण से बाहर करो।

बुद्ध ने भी इस सच्चाई को जानने के लिए, इस समस्या के समाधान के लिए कई जन्मों में बहुत समय बिताया कि वह कौन है जो हर मृत्यु के बाद नया जन्म देता है। अंततः जब सम्यक संबोधि जागी तब तो सब स्पष्ट हो गया कि पुनर्जन्म कोई नहीं देता। हम स्वयं अपने लिए पुनर्जन्म की तैयारी करते रहते हैं। हमारे मानस में जितने भी कर्म-संस्कारों के बीज हैं, उनमें का हर बीज अपना फल लेकर आता है। मृत्यु के समय कोई न कोई बीज प्रमुख होकर हमारे लिए एक नया जन्म खड़ा कर देता है। संबोधि से यह बात स्पष्ट हुई कि मैंने अपने पुनर्जन्म को समाप्त कर दिया है। जिन कर्म-बीजों से यह पुनर्जन्म होता है, उन्हें नष्ट कर दिया है। नया-नया घर बनाने वाले को न जाने कब से खोज रहा था। अब स्पष्ट हो गया कि मेरे भीतर एक भी पुराना कर्म-बीज नहीं रहा और नया कर्म-बीज बनाने की तृष्णा नहीं रही। अतः स्पष्ट हो गया कि मैं ही अपना घर बनाता रहा हूं, अन्य कोई मेरा नया घर बनाने वाला नहीं है। जब पुनर्जन्म के बीज समाप्त हो गये तब कहा - 'नथिदानि पुनभवोति' - अब नया जन्म नहीं होगा। 'अयं । अन्तिमा जाति' - यह अंतिम जन्म है।

खोज पूरी हो गयी। जब तक किसी अन्य को नया जन्म देने वाला मानता था और मानता था कि वही मेरे लिए नये-नये घर बना कर तैयार रखता है, वह ईश्वर ही है। अब यह भ्रम दूर हुआ। 'मैं ही मेरा ईश्वर हूं, अन्य कोई नहीं है।

प्रकृति ही ईश्वर है, अन्य कोई नहीं। प्रकृति के नियमों के अनुसार 'जैसा बीज वैसा फल' सबको मिलता है। कोई चाहे कि मैं बीज तो नीम का डालूं, परंतु फल उसमें मीठे आम के लगें, तो यह असंभव है। जैसा बीज है, वैसा ही फल होगा। ऐसे ही जैसे हमारे कर्म-बीज हैं, वैसे ही कर्म-फल होंगे। मृत्यु के समय हमारे संचित कर्म-बीजों में से कोई एक निम्न कोटि का बीज प्रबल होकर आगे आता है और हमें अधोगति का फल देता है। अधोगति के फल देने वाले बीज समाप्त हो जायें तो किसी ऊर्ध्वगति के बीज से हमें ऊर्ध्वलोक का फल मिलता है। यह प्रकृति का बँधा-बँधाया अटूट नियम है। इसमें किसी मुरारि की कृपा नहीं काम करती। बुद्ध हो जाने पर अधोगति के ही नहीं बल्कि ऊर्ध्वगति के भी सारे कर्म-बीज नष्ट हो गये, कोई फल देने वाला नहीं बचा। ऐसी अवस्था में सारे रहस्य स्पष्ट हो गये । यही बुद्ध की संबोधि थी।

बुद्ध स्वयं भी इस खोज में बहुत भटके। अनेक जन्मों में इसकी खोज करते रहे कि मरने के बाद मेरे लिए नया-नया घर बना देने वाला वह कौन है? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-- ‘अनेकजातिसंसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं' - अनेक जन्मों में बिना रुके संधावन करते रहा। 'गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं' -- घर बनाने वाले की खोज में बार-बार दुःखमय जन्म लेता रहा। 'गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि'-- हे गृहकारक! मैंने तुझे देख लिया है। अब तू मेरे लिए कोई घर नहीं बना सकता!
‘सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं ।
विसङ्घारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा ॥

-- घर बनाने की सारी कड़ियां भग्न हो गयीं, घर का शिखर विशृंखलित हो गया यानी इस पुनर्जन्म का रहस्य समझ में आ गया। हे घर बनाने वाले! अब तु मेरे लिए नया घर नहीं बना सकता। क्योंकि मैंने अपने भीतर कर्म-संस्कारों के सारे बीज विपश्यना द्वारा समाप्त कर लिये और अब तृष्णा बची ही नहीं, जिससे कि नये संस्कार बनें । इसके बाद न पुराने शेष रहे और न नये बन सकेंगे। कर्म-बीज ही नहीं रहा तो कर्म-फल कहां से आयेगा?

इस मुक्त-अवस्था में सारा रहस्य स्पष्ट हो गया। अब किसी मुरारि से प्रार्थना करने की जरूरत नहीं जो किसी को भव-संसरण से मुक्त कर दे। अब यह स्पष्ट हो गया कि -- 'अपनी मुक्ति अपने हाथ'। जब सारे पुरातन कर्म-संस्कार विपश्यना द्वारा नष्ट कर दिये जायें और नये संस्कार बनाने वाली तृष्णा का नामोनिशान नहीं रहे, ऐसी अवस्था में पुनर्जन्म का कोई अर्थ ही नहीं । अतः ईश्वर के नाम की कल्पना और उससे की गई प्रार्थना दोनों ही निरर्थक हैं, बेमानी हैं।

जब भगवान बुद्ध की यह वाणी प्रसिद्ध होने लगी तो पुरोहितों की धरती हिल गयी। अब तक वे किसी परमात्मा की प्रार्थना करना सिखाते थे, जो कि उन्हें भव-संसरण से मुक्त कर दे। परंतु बुद्ध के अनुसार ऐसा न तो परमात्मा है, न अन्य कोई उन्हें भव-संसरण से मुक्त कर सकता है। बुद्ध की इस घोषणा ने पुरोहितों की धरती हिला दी। क्या करते? बड़े-बड़े यज्ञ स्थापित करके अपने लिए अपार धन प्राप्त करने की योजनाएं समाप्त हो गयीं। जब ईश्वर ही नहीं है तो कोई क्यों उनसे यज्ञ करायेगा और क्यों बड़ी दान-दक्षिणा देगा? तब उन्होंने एक पासा फेंका और एक चाल चली। बुद्ध को ही ईश्वर बना दिया। यानी बुद्ध को ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया। इस सफेद झूठ के कारण अनेक लोग सच्चाई से विचलित हो गये। परंतु जो बचे रहे, वे इस भ्रम में नहीं उलझ पाये ।

बुद्ध-विरोधी लोगों में इस बात का दुःख रहा कि सम्यक सम्बुद्ध के इतने स्पष्ट विवेचन द्वारा यह सिद्ध हुआ कि पुनर्जन्म देने वाला कोई ईश्वर नहीं है। यह प्रकृति ही है जो अपने नियमों के अनुसार काम करती है। उन्हें इस बात का दुःख रहा कि बुद्ध को ईश्वर का अवतार बता कर ईश्वरवाद को कायम रखने का जो मिथ्या प्रयत्न किया जा रहा था, उसका उन्हें कोई मनोवांछित परिणाम नहीं मिला। जो लोग समझदार थे, उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली।

कांची कामकोटि पीठ के जगद्गुरु श्री जयेन्द्र सरस्वती से इस पर चर्चा हुई। वे उदार वृत्ति के संत पुरुष हैं। उन्होंने यह भूल तुरंत स्वीकार कर ली और मेरे साथ जो समझौता किया गया उसमें पहली बात यही रखी गयी कि बुद्ध किसी ईश्वर के अवतार नहीं थे। उनकी उदार दृष्टि और वास्तविकता को समझ कर अन्य तीनों पीठासीन जगद्गुरु शंकराचार्यों - श्री भारती तीर्थ महास्वामी, शृंगेरी पीठाधीश्वर, श्री स्वरूपानंद सरस्वती महाराज, द्वारका शारदा पीठाधीश्वर और श्री विद्यानंद गिरि महामंडलेश्वर, कैलास आश्रम पीठाधीश्वर ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया।

इतना होने पर भी किसी के मन में यह भ्रम रहे कि बुद्ध ईश्वर के अवतार थे, तो यह झूठी मान्यता कहां तक चलेगी?

बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया तो अब पूजा करने वाले किसकी पूजा करेंगे? बुद्ध स्वयं अपने आपको ईश्वर मानने के सर्वथा विरुद्ध थे। बुद्ध ने एक बात अपने शिष्यों को बार-बार दोहरायी कि मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता। तुम्हें स्वयं अपना जीवन सुधारना है। मैं मुक्तिदाता नहीं हूं, केवल मार्ग-आख्याता हूं। मैंने मार्ग बता दिया। अब उस पर चलना तुम्हारा काम है। फिर भविष्य के लिए तुम्हारे द्वारा किये गये अच्छे काम ही अच्छे फल लायेंगे। काम तुम्हें करना है। मैं तो मार्ग आख्यात करने वाला हूँ -- 'तुम्हेहि किच्चमातप्पं, अक्खातारो तथागता’ । बुद्ध की इस घोषणा ने बुद्ध-विरोधी सभी पुरोहितों को हिला दिया।

अगर ईश्वर की प्रार्थना नहीं करें तो अन्य छोटे-मोटे देवी-देवताओं की ही प्रार्थना करके अपनी इच्छा पूर्ति कर लें । परंतु जब स्वयं काम करना है और जब हमारी मनचाही कर देने वाला कोई है ही नहीं, तब हम किसकी पूजा करें, किसकी प्रार्थना करें? जब बुद्ध ने कह दिया कि तुम्हारी इच्छाओं की। पूर्ति कोई दूसरा नहीं कर सकेगा। भव-संसरण से छुटकारा पाने के लिए तुम्हें स्वयं विपश्यना द्वारा अपने अधोगति और ऊर्ध्वगति के सारे कर्म-बीजों को समाप्त करना होगा। आगे नया कर्म-बीज बनाओगे नहीं तो भव-संसरण से स्वतः मुक्ति मिल जायगी। इस घोषणा से छोटे-बड़े सभी पुरोहितों की धरती हिल गयी।

'न कोई ईश्वर है जो हमें मुक्त कर देगा और न छोटे-मोटे देवी-देवता हैं, जो हमारी इच्छाओं की पूर्ति कर देंगे'-- इन दो वक्तव्यों के कारण बुद्ध को घोर नास्तिक ठहराया गया। फिर भी उनकी शिक्षा फैलती ही गयी, क्योंकि वह सार्वजनीन शिक्षा थी। वह कोई संप्रदाय नहीं था, क्योंकि बुद्ध ने कोई संप्रदाय स्थापित नहीं किया। बुद्ध ने धर्म सिखाया और जो सिखाया, वह सार्वजनीन था, सबके लिए समान रूप से उपकारी था। सदाचार का जीवन जीना, मन को बिना किसी बाहरी आलंबन के एकाग्र करना और भीतर जो कुछ महसूस हो रहा है, उस सत्य को ही समता के भाव से देखना - यह मार्ग सबके लिए अनुकूल था। और फैलता ही गया। क्योंकि सच्चाई तो सच्चाई है। बुद्ध को नास्तिक कह देने से  सांसारिक सच्चाई झूठी नहीं हो सकती।

अब इस जिज्ञासा की पूर्ति हो गयी कि अपना घर बनाने के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कोई दूसरा हमारे लिए नया घर नहीं बनाता। मिथ्यादृष्टि दूर हुई, सही ज्ञान जागा। बुद्ध की शिक्षा का यह मकसद कि हर व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं जिम्मेदार है पूरा हुआ। जब तक कर्म-बीज हैं, तब तक नया-नया घर बनता रहेगा। विपश्यना द्वारा सारे कर्म-बीज समाप्त कर लें तो नया घर नहीं बन सकेगा। इसके पहले अपने ईष्टदेव से प्रार्थना करता रहा कि मेरे काम, क्रोध, लोभ, मोह को दूर करो, इनसे छुटकारा दिलाओ। रोज-रोज गीली आंखों से प्रार्थना करता रहा, परंतु कोई देवी-देवता मेरे लिए कुछ नहीं कर सका। अब विपश्यना ने मेरे मन की मुराद पूरी की। एक बड़ी जिज्ञासा पूरी हुई। मेरा कल्याण हुआ। इसी में सबका कल्याण समाया हुआ है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

मई 2013 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

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सामुहिक साधना सत्र के आरम्भ में गुरुजी की धम्म वंदना



अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, बुद्ध के निर्वाण धातु , धम्म धातु, बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।
अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, धम्म के निर्वाण धातु , ज्ञान धातु , बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।
अनन्त पुण्यमयी, अनन्त गुणमयी, संध के निर्वाण धातु , धम्म धातु , बोधिधातु। चित्त पर जागे प्रतिक्षण, अंग अंग जागे प्रतिक्षण।

सामुहिक साधना सत्र के समापन एवं मंगल मैत्री के पूर्व के समय

अनिच्चा वत सङ्खारा, उप्पादवय धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरूज्झन्ति, तेसं वूपसमो सुखो।।
(अर्थ- सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु , व्यक्ति अनित्य ही तो है। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना , यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपस्सना साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न होकर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब  पूर्णतया उपशमन हो जाता है - पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, उसी का नाम परमसुख है , वही निर्वाण सुख है।)

अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।
गहकारक दिट्ठोसि , पुन गेहं न काहसि।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खितं।
विसंङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगाति।।
(अर्थ- अनेक जन्मो तक बिना रूके संसार में दौड़ता रहा। (इस कायारूपी) घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दुख:मय जन्म में पड़ता रहा है।
हे गृहकारक ! अब तू देख लिया गया है! अब तू पुन: घर नहीं बना सकेगा! तेरी सारी कड़िया भग्न हो गई है। घर पर शिखर भी विशृंखलित हो गया ह। चित्त संस्कार रहित हो गया है, तृष्णा का समूल नाश हो गया है।)

सब्बे सङ्खारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।
अथ निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया।।
(अर्थ- सभी संस्कृत (बनी हुई चीजें ) अनित्य है जब कोई प्रज्ञा से यह देख लेता है, तो सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। ऐसा है या चित् विशुद्धि का मार्ग।)

सब्बेसु चक्कवाळेसु, यक्खा देवा च ब्रह्मुनो।
यं अम्मेहि कतं पुञ्ञं, सब्बसम्पत्ति साधकं।।
(अर्थ- सभीचक्रवालों के यक्ष देव और ब्रह्मा हमारे द्वारा किये सर्वसंपत्ति साधक पुण्य का अनुमोदन करें।)

सब्बे तं अनुमोदित्वा, समग्गा सासने रता।
पमादरहिता होन्तु, आरक्खासु विसेसतो।।
(अर्थ- और वे समग्र रूप में शासन में रत हो विशेष कर बुद्ध शासन की रक्षा में प्रमादरहित होवें।)

पुञ्ञभागमिदं चञ्ञं सम ददाम कारितं।
अनुमोदन्तु तं सब्बे, मेदनी ठातु सक्खिके।।
(अर्थ- इस परित्राण पाठ से अर्जित पुण्य को तथा अन्य पुण्यों को भी हम समान रूप से वितरित करते हैं। सभी (यक्ष देव और ब्रह्मा) इसका अनुमोदन करें और पृथ्वी साक्षी रहे।)

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भिक्खुओं, केवल एक मोह का त्याग कर दो, तो मैं तुम्हारे अनागामी होने की जामिन लेता हूँ

तथागत बुद्ध कहते है...........

मोहं भिक्खवे, एकधम्मं पजहथ ।
अहं वो पाटिभोगो अनागामितया ।।
                     

" भिक्खुओं,  केवल एक मोह का त्याग कर दो, तो मैं तुम्हारे अनागामी होने की जमीन लेता हूँ ।"

मोह याने मूढता, अज्ञान अवस्था, अविद्या  । मोह अवस्था में ही हम नए नए संस्कारों का सृजन करते रहते हैं, मन को नए नए विकारों से विकृत करते रहते हैं।हमें होश ही नहीं रहता कि हम क्या कर रहे हैं ।हम अपने आपको राग के बन्धनों में जकड़े रखते हैं, द्वेष के बन्धनों में जकड़े रखते हैं । इस अनजान अवस्था में इन बन्धनों की गांठे हम बान्धते ही रहते हैं ।
यदि मोह दूर हो याने हमें होश रहे, सावधानी  रहे, जागरूकता रहे, तो अपने चित्त पर नए संस्कारों की गहरी लकीरें पडने ही नहीं देंगे अपने आपको राग और द्वेष के बन्धनों में बन्धने ही नहीं देंगे ।यह ज्ञानपूर्ण जागरूकता ही प्रज्ञा हैं, जो मोह को जड से उखाड फेंकती हैं ।

अतः हमें प्रज्ञा को जागृत रखने के लिए और पुष्ट बनाए रखने के लिए विपश्यना करते रहना हैं ।

........भवतु सब्ब मंगलं

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बुद्ध पूर्णिमा पर गोयन्का जी का लेख

🌺बुद्ध जयन्ती - वैशाख पूर्णिमा🌺 (यह लेख 28 वर्ष पूर्व पूज्य गुरुजी द्वारा म्यंमा(बर्मा) से भारत आने के पूर्व वर्ष 1968 की वैशाख पूर्णिमा ...